क्‍या सचमुच लड़कियों की आधी जिंदगी सिर्फ सेल्‍फी खींचने में गुजर रही?

आपने भी अकसर ऐसे मीम देखे होंगे कि सेल्‍फी लेने के चक्‍कर में लड़की ने आड़ा-टेढ़ा मुंह बना रखा है.

Update: 2020-12-08 15:56 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आपने भी अकसर ऐसे मीम देखे होंगे कि सेल्‍फी लेने के चक्‍कर में लड़की ने आड़ा-टेढ़ा मुंह बना रखा है. सेल्‍फी की दीवानगी इस कदर है कि लड़की छत से गिर जाए, गाड़ी के नीचे आ जाए, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. इंस्‍टा पर एक फोटो लगाने से पहले वो दो सौ तस्‍वीरें खींचेगी, उसमें डेढ़ सौ फिल्‍टर लगाएगी, तब कहीं जाकर कोई एक फोटो पोस्‍ट होगी.


लड़कियाें के सेल्‍फी ऑब्‍सेशन का मजाक उड़ा रहे ये मीम अकसर ऐसा हिसाब-किताब करते पाए जाते हैं कि अगर एक पोस्‍ट की गई फोटो के लिए दो सौ फोटो खींची गई तो इंस्‍टा पर पोस्‍ट 500 फोटो के लिए कुल कितनी फोटो खींची गई होगी. बेसिकली उन चुटकुलों का म‍कसद ये साबित करना है कि लड़कियों की आधी जिंदगी सिर्फ सेल्‍फी खींचने में कट रही है.

ये तो हुई मजाक की बात, लेकिन सच तो ये है कि ये सिर्फ मजाक भर नहीं है. दुनिया भर में इसे लेकर कई अध्‍ययन हो चुके हैं कि लड़कियां लड़कों से ज्‍यादा सेल्‍फी खींचती हैं. 2016 में हॉलीडेआईक्‍यू की एक स्‍टडी ने दावा किया था कि 41 फीसदी महिलाएं और सिर्फ 35 फीसदी पुरुष सेल्‍फी लेते हैं.

2014 में सिटी यूनिवर्सिटी, न्‍यूयॉर्क और कैलीफोर्निया इंस्‍टीट्यूट ऑफ टेलीकम्‍युनिकेशन एंड इंफॉर्मेशन जब स्‍मार्ट फोन और सेल्‍फी का हमारे मनोविज्ञान पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्‍ययन कर रहे थे तो उन्‍होंने पाया कि लड़कियां लड़कों के मुकाबले 14 फीसदी ज्‍यादा सेल्‍फी ले रही थीं.

नई स्‍टडी ऑस्‍ट्रेलिया के ब्रिस्‍बेन में स्थित क्‍वींसलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्‍नोलॉजी में विजुअल कम्‍युनिकेशन एंड मीडिया के प्रोफेसर टी.जे. थॉमसन ने की है. उनकी शुरुआती जिज्ञासाएं कुछ और थीं, जब उन्‍होंने ये ढूंढना शुरू किया कि अपने हाथ में स्‍मार्ट फोन लिए इंसान अपने आसपास की दुनिया को कैसे देख रहा है. अपनी नजर से और कैमरे की नजर से भी.
फिल्‍म और रील वाले कैमरे की दुनिया अलग थी. अब स्‍मार्ट फोन के कैमरे की आंख से दुनिया कैसी दिखाई देती है. क्‍या आप कल्‍पना कर सकते हैं कि पूरी दुनिया में मोबाइल कैमरे से कितनी फोटो खींची जाती होगी? आप सोचकर कहेंगे- लाखों या करोड़ों. नहीं. साल 2020 में कुल 1.43 खरब तस्‍वीरें खींची गई यानी दस लाख करोड़ से भी ज्‍यादा. इतनी बड़ी संख्‍या कि दिमाग को भी इस संख्‍या की कल्‍पना करने में थोड़ा वक्‍त लगता है.
थॉमसन जानना चाहते थे कि लोग किस तरह की चीजों की तस्‍वीरें ज्‍यादा खींचते हैं. अपनी स्‍टडी में उन्‍होंने पाया कि हर चार फोटो में तकरीबन 1.74 फोटो किसी ऑब्‍जेक्‍ट की थी, 1.07 इंसानों की थी, एक फोटो प्रकृति की थी और सिर्फ .18 फोटो पशुओं की थी. इतना ही नहीं, पुरुष और महिला, दोनों अपने फोन कैमरे का बहुत अलग ढंग से इस्‍तेमाल कर रहे थे. महिलाएं पुरुषों के मुकाबले 8.6 बार अधिक सेल्‍फी खींच रही थी और 3.5 बार अधिक कोई और उनकी तस्‍वीर खींच रहा था. यानी महिलाएं पुरुषों से ज्‍यादा अपनी फोटो खिंचवा भी रही थीं और खुद भी खींच रही थीं. उसे सोशल मीडिया पर पोस्‍ट करने का उनका प्रतिशत भी पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्‍यादा था.

एक तरह से देखा जाए तो ये सारे अध्‍ययन मीम्‍स के लिए मसाले का काम कर रहे हैं. वो ये तो बताते हैं कि लड़कियां और महिलाएं अपनी ज्‍यादा तस्‍वीरें खींच रही हैं, लेकिन ये नहीं बताते कि ऐसा होता क्‍यों है. ऐसा क्‍यों‍ है कि एक खास जेंडर अपने चेहरे, लुक के प्रति ज्‍यादा संवेदनशील है, जबकि दूसरे को इस बात से खास फर्क नहीं पड़ता कि वो कैसा दिख रहा है.

अपनी तस्‍वीरें खींचना, उसे सोशल मीडिया पर पोस्‍ट करना, उस पर आए कमेंट्स और लाइक्‍स को एक किस्‍म की स्‍वीकार्यता और वैलिडेशन की तरह देखना आखिर किस तरह के मनोविज्ञान की उपज है. ऐसा क्‍यों होता है?

दो साल पहले एडिनबर्ग बिजनेस स्कूल ने सोशल मीडिया पर एक स्‍टडी की थी. यह स्टडी कहती है कि स्‍मार्ट फोन और सोशल मीडिया दरअसल हमारे इगो और सेल्फ का नया एक्सटेंडेड वर्जन हैं यानी आपके आत्म का ही एक विस्तार. ये वैसे ही आपका एक हिस्‍सा हो गया है, जैसे आपका हार्ट, किडनी, आंखें और कान. आत्‍म का यह नया विस्‍तार हमारे बारे में लगातार एक झूठी छवि बना रहा है. वो जो हम नहीं है, लेकिन जैसा दुनिया को दिखाना चाहते हैं.


 

सोशल मीडिया पर घूम रही हमारे स्‍मार्ट फोन के फिल्‍टर से छनकर निकली तस्‍वीरें दरअसल हम नहीं हैं. वो हमारी एक ऐसी छवि है, जो हमने दुनिया के लिए बनाई है. हम जो नहीं हैं, खुद को वो दिखा रहे हैं. इससे हमारे ऑल्‍टर इगो को एक किस्‍म के संतोष और स्‍वीकार्यता का एहसास होता है. अपने सबसे उदास और अकेले क्षणों में लोग फेसबुक और इंस्‍टाग्राम पर सबसे सुंदर तस्वीर डालकर लिखते हैं- "फीलिंग ऑसम." चार लोग आकर इस "फीलिंग ऑसम" पर भी दिल बना जाते हैं. हमें एक क्षण के लिए सचमुच लगने लगता है कि हम ऑसम महसूस कर रहे हैं. फिर वो झूठ ही हमारा सच हो जाता है.

न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन कहता है कि सोशल मीडिया से लोगों में अकेलापन और ईर्ष्या की भावना बढ़ी है. अपनी निजी जिंदगियों में अकेले और परेशान लोगों को लगता है कि बाकी दुनिया बहुत खुश है क्योंकि उनकी सोशल मीडिया वॉल खुशमिजाज तस्वीरों और एडवेंचर से भरी है. हालांकि ऐसी ही खुशहाल वॉल उनकी भी है, जो असल में खुश नहीं हैं. और उन नाखुश लोगों की वर्चुअल खुशी बाकी लोगों में भी वही अकेलापन और ईर्ष्या पैदा कर रही है. ये एक ऐसे कुचक्र की तरह है, जिससे बाहर निकलने की राह आसान नहीं. हम सोशल मीडिया के आभासी ग्‍लैमर के ट्रैप में हैं.

ऐसे में अगर कोई स्‍टडी ये कहती है कि लड़कियां ज्‍यादा सेल्‍फी खींचती हैं तो बात सिर्फ इतनी नहीं है कि लड़कियां ज्‍यादा सेल्‍फी खींच रही हैं, बात ये है कि वो स्‍वीकार्यता और वैलिडेशन की ज्‍यादा जरूरत महसूस कर रही हैं. खुद पर उनका भरोसा कम है.

 

वैसे भी ऐतिहासिक तौर पर ये दुनिया उनके लिए मर्दों की तरह सुंदर और सुरक्षित दुनिया नहीं है. वो ज्‍यादा डरी हुई और लगातार एक किस्‍म के तनाव में हैं. और पूरी दुनिया में स्त्रियों को सैकड़ों साल से यही सिखाया-बताया गया है कि एक स्‍त्री का सबसे बड़ा एसेट उसका सौंदर्य है. स्त्रियों के लिए बुद्धिमत्‍ता की, ज्ञान की वैसी जरूरत नहीं सिखाई गई, जैसीकि पुरुष की नजर में सुंदर और आकर्षक दिखने की.

जब तक स्त्रियां ढंग से जीवन का ये बुनियादी सबक न सीख लें कि एक मनुष्‍य के रूप में उनका मूल्‍य उनके रूप-रंग से कहीं ज्‍यादा है, उनके जीवन का अर्थ कहीं ज्‍यादा है, उनके हक और अधिकार कहीं ज्‍यादा हैं, ऐसे अध्‍ययन उन्‍हें सेल्‍फी में डूबा बताते रहेंगे और बाकी उन पर मीम बनाते रहेंगे.


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