सेब की लाली : एक आकर्षण या धोखा

सेब को सेब की तरह न देखकर बस रंगों के आधार पर देखा जाता है

Update: 2021-09-06 10:39 GMT

दिव्याहिमाचल.

सेब को सेब की तरह न देखकर बस रंगों के आधार पर देखा जाता है। कलर नहीं है तो भाव नहीं मिलेगा। जैसे सेब के गुणों की विशेषता उसके रंग में ही छुपी है, सेब के अंदर नहीं। इसी कारण बागबान पेस्टिसाइड्स के प्रयोग को प्रेरित होते हैं…
रंग, जि़ंदगी के रंग या जि़ंदगी में रंग, नि:संदेह जीवन को बहुत खूबसूरत बनाते हैं और उनका होना या न होना बहुत महत्त्व रखता है। लेकिन हमारे खानपान से संबंधित चीज़ों में रंगों का महत्त्व, लोगों का चमक-दमक व दिखावे को स्वास्थ्य से अधिक महत्त्व दिखाता है। फल, सब्जिय़ां हम रोज बाज़ार से बैग में भरकर लाते हैं, इस उम्मीद में कि इससे हमें, हमारे परिवार को कई तरह से स्वास्थ्य लाभ मिलेगा। लेकिन लाभ की बजाय हम कई तरह के ज़हर भीतर ले रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं, हम इन्हें अच्छी तरह से धोते हैं, फिर भी इसमें कई तरह के पेस्टिसाइड्स, जिनका इन पर छिड़काव है, वे इसके गुण तत्त्व में असर डालें तो अचंभा नहीं। सेब की बात की जाए तो परमात्मा द्वारा इस धरती पर जैसे इसे अमृत फल के रूप में भेजा गया हो। जैसे जीवनदायनी, जीवन शक्ति इसमें अपने यौवन पर खड़ी आग्रह कर रही हो, 'मुझे ग्रहण करो, मैं तुम्हारे लिए अमृतदायिनी बन तुम्हें हर बीमारी, तकलीफ से दूर रखूंगा। कितने खूबसूरत लग रहे हैं इसके प्रकृति में गुंजायमान यह शब्द। लगे भी क्यों नहीं, कौन नहीं चाहता स्वस्थ जीवन। स्वस्थ जीवन में ही स्वस्थ मन व मस्तिष्क विद्यमान रहता है। कहावत है धन जाए तो क्या जाए, स्वास्थ्य जाए तो हानि पाए, चरित्र जाए तो कुछ भी पीछे न रह पाए।
लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में तो यदि स्वास्थ्य ही नहीं रहा तो धन व चरित्र का ज्ञान व भान कैसे रह सकता है। अच्छा स्वास्थ्य सर्वोपरि है क्योंकि अच्छे स्वास्थ्य से ही मन के भीतर मन की निचली परत तक शांति पहुंच सकती है और यही शांति अच्छे चरित्र की कारक है। यदि सेब की बात की जाए तो इसके अनगिनत गुण, पौष्टिकता, स्वास्थ्यवर्धकता इसे बाकी सभी फलों से इसे विशिष्ट तो बनाते ही हैं, इसकी सार्वभौमिकता को भी दर्शाते हैं। इसमें अनगिनत गुण हैं! फलों में फलों का राजा यदि किसी को कहा जाए तो वह सेब ही है। कहावत भी है 'एन एप्पल ए डे कीप्स डॉक्टर अवेÓ। सेब के अनगिनत तत्त्व इसे फलों का राजा बनाते हैं। सेब में पेक्टिन जैसे फायदेमंद फाइबर्स पाए जाते हैं। सेब के खाने से कई बीमारियों का खतरा कम है जाता है। इसमें कई तरह के विटामिन व मिनरल पाए जाते हैं। एनीमिया, हार्ट रोगों को दूर करता है, लिवर को साफ करता है। इम्यून सिस्टम को मजबूत करता है। सेब खाने के अनगिनत फायदे हैं। सेब में विटामिन ए होने के कारण आंखों की रोशनी को बढ़ाने में मदद करता है और आंखों को कई प्रकार के रोगों से बचाता है।
सेब में विटामिन ए, बी, सी, कैल्शियम, पोटाशियम और एंटीऑक्सिडैंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। सेब में नियासिन और फाइबर कॉलैस्ट्रोल को कंट्रोल करते हैं। एक शोध के अनुसार सेब में फ्लाईवोनोइड पाया जाता है। इसमें पाया जाने वाला विटामिन खून के थक्के बनने से रोकता है। यूरोप के कई देशों में इसे गॉड गिफ्ट मानते हैं। लेकिन बाजारीकरण ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि हर कोई बस पैसा, पैसा, पैसा, बस इसकी तरफ ही भागता हुआ नजऱ आ रहा है। जाएगा भी क्यों नहीं, यह रुपया ही है जिसकी कीमत हमारी आर्थिकी की मज़बूती दर्शाती है। किसानों, बागवानों को फल-सब्जियों के यह सीजऩ अच्छी कमाई जहां एक ओर दे रहे हैं, वहीं इनके जीवन को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाकर हमारी आर्थिकी में भी सहयोग करते हैं। नि:संदेह यह सब सत्य है, लेकिन कैश क्रॉप में बढ़ोतरी के लिए समय-समय पर जो पेस्टिसाइड्स का उपयोग हो रहा है, वह हमारी पैदावार बढ़ाने व कीमत देने में सहयोग तो कर रहा है, लेकिन साथ ही जीवन मूल्यों को नष्ट कर रहा है। किसी को मूल्यों की चिंता ही नहीं है। नैतिकता का स्थान जैसे सांसारिकता ने ले लिया है। फलों में इन दवाइयों का असर खाने वाले के जीवन पर कितना कुठाराघात करता होगा, किसी को इसकी पड़ी ही नहीं है। हैरानी तो तब होती है जब इसे पैदा करने वाला स्वयं भी इन पेस्टिसाइड्स का सेवन भरपूर करता है।
सेब जैसे फलों में भी जो पेस्टिसाइड्स का उपयोग हो रहा है, वह इसकी पौष्टिकता को ही नुक्सान नहीं पहुंचा रहा है, बल्कि स्वास्थ्य लाभ देने की बजाय कई तरह की बीमारियों का घर बन रहा है। यही पेस्टिसाइड्स बारिश के पानी से जब घुलकर नदी-नालों तक पहुंचता है तो उन्हें भी दूषित कर देता है। यही जल जब जमीन में रचता है तो पेस्टिसाइड्स को अपने साथ ले जाकर जमीन के नीचे के जल को भी प्रभावित करता है। हमारी सभ्यता परोपकार परमोधर्म: से स्व उपकार उत्तम कर्म की तरफ मुड़ती हुई नजऱ आ रही है। ऐसा नहीं है कि इन पेस्टिसाइड्स का उपयोग केवल हमारे देश में ही हो रहा है, बल्कि यह विदेशों में भी भरपूर मात्रा में उपयोग हो रहा है। लेकिन इतिहास में नजऱ डाली जाए तो समझ आ जाएगा कि भारत ने विश्व गुरु की उपाधि यूं ही नहीं ली थी, बल्कि विश्व का मार्गदर्शन करने के कारण यह उपाधि ली थी। ध्यान से देखें तो इस बात से कोई नहीं मुकर सकता कि जीवन दर्शन विश्व को भारत की ही देन है। खानपान में ज़हर के वितरण को रोकने के लिए भी इस धरा से एक क्रांति के आगाज़ का वक्त अब आना ही चाहिए। आज भी भले ही पेस्टिसाइड्स युक्त इन फलों व सब्जियों की बाज़ार में बहुत मांग है व बढ़ते बाजारीकरण से इसको बढ़ावा मिल रहा है, लेकिन इस कमाई का ज्यादा हिस्सा बिचौलिए ही ले रहे हैं।
जैसे सेब के मामले में ही देखें, कमाई का ज्यादा हिस्सा आढ़तियों के पास ही रहता है। प्रश्नचिन्ह स्वास्थ्य पर ही नहीं लग रहा है, बल्कि कमाई का हिस्सा भी बिचौलिए के हाथ में ही है। इस सबके लिए मुख्य रूप से क्या किसान या बागवान जि़म्मेदार है या हमारी नीतियां भी इसके लिए जिम्मेदार हैं? क्यों आढ़ती कोई सरकारी नहीं हो सकता या सरकार का इन पर कोई चैक हो? प्रश्न यह भी है कि सरकार ऑर्गैनिक खेती के लिए क्या कर रही है? सेब के मामले में ऑर्गैनिक सेब की बात सब कर रहे हैं, बागवान भी इसकी तरफ मुडऩा चाहता है, लेकिन जब बाज़ार ही उपलब्ध नहीं होगा तो कैसे आर्गेनिक फार्मिंग को बढ़ावा मिलेगा। जब सेब की मांग आती है तो उसके तत्व कोई नहीं पूछता, बस एक प्रश्न की गूंज चहुं ओर सुनाई देती है, 'कलर कैसा है। सेब को सेब की तरह न देखकर बस रंगों के आधार पर देखा जाता है। कलर नहीं है तो भाव नहीं मिलेगा। जैसे सेब के गुणों की विशेषता उसके रंग में ही छुपी है, सेब के अंदर नहीं। इन्हीं कारणों से बागवान सेब में रंग लाने के लिए कई दवाइयों का सहारा लेकर बाज़ार में समय से पहले उतारने के लिए तैयार रहता है। अब समय आ गया है जब इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।
रीना भारद्वाज, लेखिका रोहड़ू से हैं
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