अंसल बिल्डरों को कैद

पिछले तीन दशकों में भारत उपहार सिनेमा जैसी कई त्रासदियों को झेल चुका है, जिनमें सैकड़ों लोगों की जानें गई थीं।

Update: 2021-11-10 02:43 GMT

पिछले तीन दशकों में भारत उपहार सिनेमा जैसी कई त्रासदियों को झेल चुका है, जिनमें सैकड़ों लोगों की जानें गई थीं। उपहार त्रासदी के पीड़ितों ने 24 वर्ष तक न्याय के​ लिए संघर्ष किया और उपहार अग्निकांड मामले में सबूतों से छेड़छाड़ करने के दोषी रियल एस्टेट कारोबारी सुशील अंसल और गोपाल अंसल को सात-सात साल के कारावास की सजा दिलाने में सफलता प्राप्त की है। उपहार त्रासदी पीड़ित एसोसिएशन की चेयरपर्सन नीलम कृष्णामूर्ति की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के निर्देश पर मामला दर्ज किया गया था। इससे पहले उपहार ​अग्निकांड केस में 2007 में पटियाला हाऊस कोर्ट ने 12 आरोपियों को सजा सुनाई थी। अंसल बंधुओं काे लापरवाही से मौत सहित अन्य धाराओं में दोषी पाया गया था। हाईकोर्ट ने 6 आरोपियों काे सजा सुनाई और अंसल बंधुओं की सजा दो साल घटाकर एक साल कर दी थी। तब अंसल बंधुओं को जेल भेज दिया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों काे जमानत दे दी थी।अब पटियाला हाऊस कोर्ट ने अंसल बंधुओं समेत पांच आरोपियों को सजा सुनाई है। मुख्य मैट्रोपालिटिन मजिस्ट्रेट पंकज शर्मा ने फैसला सुनाते हुए कहा कि यह उनके करियर के सबसे बड़े मामलाें में से एक था, कई रातों तक सोचने के बाद उन्होंने फैसला किया कि आरोपी सजा के हकदार हैं।सबूतों को नष्ट करने या उनसे छेड़छाड़ कर आरोपियों ने कानून की प्रक्रिया को बाधित किया। वह न्याय प्रशासन प्रणाली को कमतर करने से कम नहीं था। आरोपियों ने ऐसा करके न्याय प्रणाली की पवित्रता पर हमला किया था। अदालत का फैसला अपने आप में एक नजीर है और यह उन लोगों को एक चेतावनी है जिनके लिए दूसरों की जान की कोई कीमत नहीं। सिनेमाघरों, मॉल और निजी अस्पतालों के मालिक लोक सुरक्षा के प्रति जागरूकता नहीं दिखाएंगे तो फिर लोग ​सु​रक्षित कैसे रह सकेंगे। लोग अस्पतालों में अपना जीवन बचाने के​ लिए जाते हैं लेकिन अब अस्पताल भी लोगों के लिए श्मशान बन चुके हैं। अस्पतालों में अग्निकांडों से अनेक लोग मारे जा चुके हैं। यह विडम्बना ही है कि हमारी व्यवस्थाओं में मनुष्य की जान की कोई कीमत नहीं रही, बाकी हर चीज की कीमत बढ़ चुकी है। ऐसे अग्निकांड होने पर पूंजीपति, उद्योगपति या बड़े बिल्डर कानूनों की धज्जियां उड़ाते हैं। नियमों की अवहेलना करते हैं। सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देकर मामला दबाने की कोशिश करते हैं। सुनवाई में बाधाएं खड़ी करते हैं। गवाहों को रिश्वत देकर एक-एक कर उन्हें तोड़ते हैं या फिर मुआवजा राशि देने की पेशकश करते हैं। अंसल बंधुओं ने भी ऐसी पेशकश की थी और मोल-भाव करने की कोशिश की थी। संपादकीय :ऐसी भी बहुएं होती हैअफगानिस्तान पर सुरक्षा बैठकअब बच्चों का वैक्सीनेशन !चन्नी के फैसलों से 'चानन'मर जाएगा स्वयं, सर्प को अगर नहीं मारेगात्रिपुरा में साम्प्रदायिक हुड़दंगन्याय प्रक्रिया को जितना सम्भव हो सके लम्बा खींचना ही उनका उद्देश्य बन गया था। उपहार त्रासदी पीड़ित लम्बी लड़ाई के बावजूद टूटे नहीं। पीड़ितों को धमकियां दी गई थीं कि वे अंसल बंधुओं से नहीं उलझें अन्यथा गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। पीड़ित परिवारों का कहना था कि जाे उनके जीवन के सबसे कीमती थे (अपने बच्चे) उन्हें तो हम खो चुके हैं। अब उन्हें किसी बात का डर नहीं लगता, अब वे धमकियों से डरने वाले नहीं। अंसल के साथ समझौते कर लेने के प्रस्ताव भी कई लोग लेकर आए। उनका उद्देश्य यही था कि पीड़ित अदालती लड़ाई खत्म कर दें। अंसल बंधुओं का अपराध केवल एक की हत्या नहीं सामूहिक हत्याकांड था। अंसल का रसूख उन्हें अपराध की सजा से नहीं बचा पाया। कहते हैं कि इंसाफ की चक्की बहुत धीमे चलती है लेकिन पीसती बहुत महीन है। न्यायपालिका ने एक बार फिर साबित किया कि कानून के सामने सब एक समान हैं। कोई भी प्रभावशाली व्यक्ति जिसके हाथ कितने भी लम्बे क्यों न हों, वह बच नहीं सकता। 1997 का साल और 13 जून की तारीख दिल्लीवासी उस हादसे को शायद ही भूल पाएं क्योंकि एक-दो नहीं बल्कि 59 लोग हंसते-खेलते घरों से फिल्म देखने उपहार सिनेमा गए थे लेकिन सिनेमा में लापरवाहियों के चलते आग की लपटों में जिंदा जल गए। सिनेमाघर में सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध ही नहीं थे। उपहार सिनेमा परिसर आज भी उस हादसे की मौन गवाही दे रहा है। नीलम कृृष्णामूर्ति, शेखर कृष्णामूर्ति और अन्य अभिभावक अपने बच्चों को गंवाने के बाद कैसे जीवन बसर कर रहे हैं, इसे लिखने के लिए अब शब्द नहीं बचे हैं। उपहार त्रासदी के लिए कोई जनाक्रोश प्रदर्शन नहीं किया गया, कभी कोई मोमबत्ती मार्च नहीं निकाला गया। जन प्रदर्शन होने से सरकार पर दबाव पड़ता। अदालत का फैसला सरकारों के लिए भी एक चेतावनी है कि वह सार्वजनिक स्थानों पर जनसुरक्षा के लिए कोई ठोस नियम और कानून बनाएं। अगर उद्योगपति अपने लाभ का कुछ हिस्सा सुरक्षा व्यवस्था पर खर्च करे तो कीमती जानें बच सकती हैं। सामाजिक संगठनों को सार्वजनिक स्थानों पर जनसुरक्षा के उपाय करने के​ लिए एक अभियान चलाने की जरूरत है। न्यायपालिका तो जनसुरक्षा के मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करती रहती है। बड़े अस्पताल बनाना ठीक है लेकिन उनमें आग से बचाव की व्यवस्था ही नहीं होगी तो जन ​हानि होना निश्चित है। व्यवस्थागत खामियों को दूर करने के​ लिए सशक्त आंदोलन की जरूरत है।

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