अमृत महोत्सव: आजादी के 75 साल और स्वतंत्रता संग्राम आधारित भारतीय फ़िल्मों पर एक नजर

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Update: 2022-08-05 01:40 GMT

करीब सौ साल के संघर्ष, आत्म-बलिदान और न मालूम कितने त्याग और तपस्या के बल पर 15 अगस्त 1947 को हम आजाद हुए। 15 अगस्त हमारा स्वतंत्रता दिवस है। इस साल हम अपनी स्वतंत्रता का 75वां साल अर्थात अमृत महोत्सव मना रहे हैं। यह अवसर है हम अपनी फ़िल्मों पर भी एक नजर डालें और देखें उनमें स्वतंत्रता कैसे चित्रित हुई है?


सिनेमा समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला एक चाक्षुष माध्यम है। स्वतंत्रता आंदोलन को कुछ शब्दों में बांधता फ़िल्म 'जागृति' का कवि प्रदीप का गीत है, 'हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के'। मोहम्मद रफ़ी का गाया यह गीत जागृत करता हुआ कहता है, स्वतंत्रता पूर्व की पीढ़ी ने संघर्ष किया अब स्वतंत्रता को संभाल कर रखना अगली पीढ़ी का दायित्व है।


जिन्होंने जीवन की बाजी लगा कर हमें एक स्वतंत्र देश सौंपा, ये लोग वास्तव में तूफ़ान से कश्ती निकाल कर ही लाए थे। नई पीढ़ी को स्वतंत्र देश उपहार के रूप में प्राप्त हुआ। जो हमें अनायास प्राप्त होता है उसकी वास्तविक कीमत हम नहीं आंक पाते हैं।

कवि लिखता है, मुल्क हर बला को टाल कर अपनी मंजिल पर पहुँचा है। बापू ने इसे अपने खून से सींचा है और शहीदों ने दीपक जलाए रखा है अब तुम्हारी पारी है, तुम इसका भविष्य हो। कवि 1954 (फ़िल्म 'जाग्रति' का रिलीज वर्ष) में हमें आगाह करता है कि हम बारूद के ढ़ेर पर बैठे हुए हैं। सावधान रहना, आलस नहीं करना, देश को आगे ले जाना।

प्रदीप का लिखा, लता मंगेशकर का गाया, हेमंत कुमार का संगीतबद्ध 'जागृति' फ़िल्म का ही एक और गीत है, 'दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढ़ाल, साबरमति के संत तूने कर दिया कमाल'। गीत कुछ शब्दों में गाँधी, आजादी का संघर्ष और भारत की तस्वीर उकेर देता है। राष्ट्रीय त्योहारों पर इन्हें अवश्य बजाया जाता है।

स्वतंत्रता संग्राम, शहीद, गुलामी के अत्याचार, आजादी इन विषयों पर भारत की लगभग सारी भाषाओं के सिनेमा में काम हुआ है। मलयालम में 2011 में एक फ़िल्म का नाम ही रखा गया 'अगस्त 15'। साजी कैलास की इस फ़िल्म को एस.एन. स्वामी ने लिखा है। यह सफ़ल नहीं रही, इसमें मलयालम के प्रसिद्ध अभिनेता मम्मूटी ने क्राइम ब्रान्च ऑफ़ीसर की प्रमुख भूमिका निभाई है।

मलयालम फ़िल्म 'कालापानी'

1996 में बनी मलयालम फ़िल्म 'कालापानी' खूब सफ़ल रही। गुलामी के दौरान न मालूम कितने लोगों को कालापानी की सजा दी गई। कालापानी मतलब अंदमान द्वीप के सेलुलर जेल में सड़ा देना। यहाँ कैदियों पर अमानुषीय अत्याचार किए जाते थे। इन कैदियों में अधिकतर राजनैतिक कैदी हुआ करते थे। इनको झूठे मुकदमे में फ़ंसा कर कालापानी की सजा दे दी जाती थी।

आने वाली पीढ़ियों को अवश्य जानना चाहिए कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लोगों ने कितना अत्याचार सहा था। 'कालापानी' 1915 के ब्रिटिश इंडिया की बात करती है। डॉक्टर गोवर्धन मेनन को ट्रेन में बम फ़ेंकने के झूठे आरोप में गिरफ़्तार करके पोर्ट ब्लेयर के सेलुलर जेल भेज दिया जाता है। वहाँ डॉक्टर कैदियों पर होने वाले भयंकर अत्याचार को देखता है। 1965 में भारतीय सेना का ऑफिसर सेतु अपनी ऑन्ट पार्वती के पति डॉक्टर गोवर्धन मेनन के विषय में पता करने के लिए कालापानी जाता है। वहाँ जाकर वह रिकॉर्ड्स खंगालता है, उसे गोवर्धन के इतिहास का पता चलता है।

गोवर्धन राष्ट्रवादी था उसे उसकी शादी के दिन गिरफ़्तार कर सेलुलर जेल भेज दिया गया था। उस पर 55 लोगों से भरी ट्रेन, जिसमें अंग्रेज भी थे में बम फ़ेंकने का आरोप था। यहाँ स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल तमाम लोग सजा काट रहे थे। एक आइरिस जेलर डेविड बेरी (एलेक्स ड्रैपर) बहुत दुष्ट है, इंग्लिश डॉक्टर लेन हटन दयालु है।

14 लोगों की रिहाई का आदेश आता है, पर जेलर और मिर्ज़ा खान मिल कर जेल भागने के नाम पर कैदियों को मार डालते हैं। सच्चाई जान कर गोवर्धन जेलर तथा मिर्ज़ा को मार डालता है। गोवर्धन का क्या हुआ, सेतु अपनी ऑन्ट को क्या बताता है, यह सब आप स्वयं देखें।
फिल्म कालापीन का पोस्टर
क्लासिकल 'कालापानी' का फ़िल्म निर्देशक प्रियदर्शन से हिन्दी सिने-दर्शक परिचित है। गाथात्मक फ़िल्म को लिखा भी प्रियदर्शन ने है। फ़िल्म में अमरीश पुरी (जेलर मिर्ज़ा खान) तथा तब्बू के अलावा अन्नु कपूर (वीर सावरकर), टीनू आनंद (कैदी) भी नजर आते हैं। गोवर्धन मेनन की मुख्य भूमिका में मलयालम के प्रसिद्ध और लोकप्रिय अभिनेता मोहनलाल हैं।

वहीं मोहनलाल जिन्होंने 'सत्या' फ़िल्म में पुलिस ऑफिसर की भूमिका की है। तब्बू ने पार्वती नाम से पहले उनकी प्रेमिका और बाद में उनकी पत्नी की भूमिका की है। इनके अलावा फ़िल्म में नेदुमुड़ी वेणु (डॉक्टर के मामा), श्रीनिवासन (कैदी, जेलर का जासूस), विनीत (इंडियन आर्मी ऑफ़ीसर सेतु) हैं।

इस फ़िल्म का संगीत प्रमुख संगीतकार इलईराजा ने दिया है। पाँच गीत वाली इस फ़िल्म का एक गीत, 'वंदे मातरम' जावेद अख्तर ने लिखा है, बाकी के गीत अरिवुमति के हैं। चित्रा एवं श्रीकुमार ने गीतों को स्वर दिया है। सिनेमाटोग्राफ़ी कुशल संतोष शिवन की है। फ़िल्म कई पुरस्कार प्राप्त हुए। इस मलयालम फ़िल्म की हिन्दी, तमिल, तेलगू डबिंग हुई है। मलयालम फ़िल्म में हिन्दी, इंग्लिश, तमिल, बाँग्ला, तेलगू तथा जर्मन भाषा का भी प्रयोग हुआ है।

देश-प्रेम से जुड़ी फिल्में

'जाग्रति' एक शुरुआती फ़िल्म थी जो देश के प्रति कर्तव्य का संदेश देती है। इसके बाद देश-प्रेम से जुड़ी कई फ़िल्में बनीं है जिन्होंने कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष रूप से दर्शकों को स्वतंत्रता के प्रति जागरुक होने का पैगाम दिया है। 'स्वदेश', 'पूरब-पश्चिम', 'रंग दे बसंती', 'चक दे इंडिया', 'एयरलिफ़्ट', 'लगान', 'नमस्ते लंदन' और न मालूम कितनी फ़िल्में हैं जिन्हें देख कर देश-प्रेम जागता है।

ऐसी फ़िल्मों में सबसे पहले मनोज कुमार की 'शहीद' याद आती है। मनोज कुमार 'भारत कुमार' कहलाने लगे थे। फ़िल्म भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की शहादत को सामने लाती है। मनोज कुमार ने शहीद भगत सिंह की भूमिका की है। फ़िल्म का अंतिम दृश्य अत्यंत मार्मिक है।

राजकुमार संतोषी ने 'द लेजेंड्स ऑफ़ भगत सिंह' बनाई जिसमें अजय देवगन भगत सिंह की भूमिका में हैं। असेंबली बम विस्फ़ोट, भगत सिंह का अनशन, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फ़ाँसी अत्यंत पावरफ़ुल दृश्य हैं। भगत सिंह जिसे कोई नहीं जानता था अपने आंदोलनकारी कारनामों के चलते देश में गाँधी से अधिक नहीं तो बरावर जाने जाने लगे।

सुखदेव के रूप में सुशांत सिंह और डी. संतोष का राजगुरु के रूप में अभिनय आधिकारिक बन पड़ा है। पंजाबी टच लिए इस फ़िल्म के गाने कौन भूल सकता है?

गीत आज भी कर देते हैं रोमांचित

'मेरा रंग दे बसंती चोला', 'पगड़ी संभाल जट्टा' एवं 'सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' सुन कर आज भी रोमांच होता है। सीपिया तथा भूरे टोन में बनी यह फ़िल्म ऐतिहासिकता का भान कराती है। तीनों के मृत शरीर को ब्रिटिश सरकार चुपचाप रात के अंधेरे में रफ़ा-दफ़ा करती है लेकिन सुबह पूरा भारत उबल पड़ता है। ये हमारा अतीत है जिस पर हमें गर्व है।

फ़िल्में तो बहुत हैं। अमृत महोत्सव पर कुछ फ़िल्मों के माध्यम से देशवासियों को मेरा सलाम!


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सोर्स: अमर उजाला 

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