अमेरिका को ले डूबा अहंकार: बाइडन की खोखली और दिशाहीन नीति के चलते अफगान मुद्दे पर यूएस की हो रही जगहंसाई
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कुछ समय पहले जब यह घोषणा की थी कि वह 31 अगस्त तक अपनी सेनाओं को अफगानिस्तान से हटा लेंगे
भूपेंद्र सिंह| अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कुछ समय पहले जब यह घोषणा की थी कि वह 31 अगस्त तक अपनी सेनाओं को अफगानिस्तान से हटा लेंगे तभी से यह चर्चा शुरू हो गई थी कि अमेरिका तालिबान को नियंत्रित किए बिना वहां से निकल रहा है और इसके दुष्परिणाम अवश्य सामने आएंगे। तालिबान ने अमेरिकी राष्ट्रपति की घोषणा के उपरांत ही अफगानिस्तान के शहरों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। हैरानी यह रही कि अफगान सेना ने शायद ही कहीं पर तालिबान का प्रतिरोध किया हो। ऐसे हालात में भी अमेरिका का आकलन यह था कि तालिबान के काबुल तक पहुंचने में करीब 90 दिन लग सकते हैं, लेकिन वे एक सप्ताह के अंदर ही वहां जा धमके। इसी के साथ अफगानिस्तान को लेकर अमेरिकी खुफिया तंत्र के आकलन की पोल खुल गई। तालिबान के काबुल पर कब्जे के साथ ही हजारों अफगानी नागरिक जिस तरह देश छोड़ने के लिए हवाई अड्डे पर जमा होने लगे और इसके कारण जैसे हालात पैदा हुए, वे दिल दहलाने वाले रहे। कई लोग अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए हवाई जहाज के बाहर ही लटक गए और अपनी जान गंवा बैठे। कई माताएं अपने बच्चों को अमेरिकी सेनाओं को सौंपने लगीं कि उनकी जान बचा लो।
अमेरिका ने 20 वर्षों में दो ट्रिलियन डालर अफगानिस्तान में किए खर्च
अमेरिका ने पिछले 20 वर्षों में करीब दो ट्रिलियन डालर अफगानिस्तान में खर्च किए। इनमें से करीब 80 प्रतिशत धन अमेरिकी सैनिकों और कंपनियों पर खर्च हुआ। शेष 20 प्रतिशत वहां के आधारभूत ढांचे के निर्माण में। आखिर इतना धन खर्च करने के बाद भी अमेरिका अफगान सेना को सक्षम क्यों नहीं बना सका? इसका यही जवाब है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में वही गलती की जो उसने वियतनाम, इराक, लीबिया आदि में की थी। अमेरिका ने जिस भी देश में अपनी सेनाएं भेजकर वहां के हालात अपने हिसाब से नियंत्रित करने की कोशिश की, वहां वह नाकाम ही हुआ, क्योंकि उसने कभी भी संबंधित देश की सामाजिक संरचना और जमीनी हकीकत पर गौर नहीं किया।
अमेरिका को ले डूबा अहंकार
अमेरिकी प्रशासन हमेशा इसी अहंकार में रहा कि अपने सैन्य बल के दम पर वह किसी भी देश में अपने पिट्ठू नेताओं को खड़ाकर स्थिरता ले आएगा। इतिहास गवाह है कि वह अपने इस मकसद में कभी सफल नहीं रहा। अमेरिकी प्रशासन अफगानिस्तान की चुनौतियों को समझने से इन्कार करता रहा। उसने यही समझा कि वह राष्ट्रपति अशरफ गनी को लोकतांत्रिक रूप से सशक्त करने के साथ अफगान सेना को मजबूत बना रहा है। यह समझ गलत साबित हुई। इसका जिम्मेदार वही है। उसने जब दोहा में तालिबान से समझौता किया तब गनी सरकार को उससे बाहर रखा। इससे गनी सरकार और अफगान सेना, दोनों का मनोबल गिरा। अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका ने कई ऐसी गलतियां कीं जिनका उसे जवाब देना होगा। एक तो सैन्य वापसी का उसका फैसला सवालों के घेरे में है और दूसरे, उसे इसका भी जवाब देना होगा कि यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया गया कि अमेरिकी फौज के अत्याधुनिक हथियार और उपकरण तालिबान के हाथों में न लगने पाएं। तालिबान के हाथ लगे ये हथियार पूरी दुनिया के लिए खतरा बन गए हैं।
खोखले सैन्य बल की तरह अफगान सेना ने तालिबान के सामने खड़े किए हाथ
अफगान सेना ने तालिबान के सामने जिस तरह हाथ खड़े किए, उससे स्पष्ट है कि वह एक खोखला सैन्य बल था। देश छोड़कर भागे अशरफ गनी ने सफाई दी कि उन्हें अपनी जान का भी खतरा था, क्योंकि इन्हीं तालिबान ने 25 साल पहले अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्ला को मारकर लैंपपोस्ट पर लटका दिया था। उनकी आशंका सही भी हो सकती है, लेकिन यह भी देखना होगा कि उन्होंने अमेरिका को अंधेरे में रखा और खुद अमेरिकी अधिकारी भी यह नहीं देख सके कि अफगान सेना किस हाल में है? अफगान सैनिकों को समय पर वेतन मिलना तो दूर रहा, वर्दी और जूते तक नहीं मिलते थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिकी और अफगान अधिकारियों के भ्रष्टाचार के कारण तीन लाख संख्या वाली अफगान सेना केवल कागजों पर खड़ी हुई हो?
अमेरिका ने तालिबान की जड़ पर नहीं किया प्रहार, पाक में हैं तालिबान की जड़ें
अमेरिका से एक बड़ी भूल यह भी हुई कि उसने तालिबान की जड़ पर प्रहार नहीं किया। तालिबान की जड़ें पाकिस्तान में हैं। उनके काबुल में काबिज हो जाने के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने यह कहा कि अब अफगानिस्तान गुलामी से मुक्त हो गया। पाकिस्तान तालिबान के जरिये अफगानिस्तान पर दबदबा बनाना चाहता है। यह बात अमेरिका भी जानता था, पर उसने पाकिस्तान को कभी दंडित नहीं किया। अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान से भाग कर पाकिस्तान में ही छिपा था। अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान की असलियत को भांपते हुए भी आंखें बंद किए रहा। उसने उसके प्रति आगाह करने वाली अमेरिकी थिंक टैंकों की रिपोर्टों की भी अनदेखी की।
भारत भी अमेरिका को पाक के मंसूबों को लेकर आगाह करता रहा, लेकिन उसने आंखें नहीं खोलीं
भारत भी अमेरिका को पाकिस्तान के मंसूबों को लेकर आगाह करता रहा, लेकिन उसने अपनी आंखें नहीं खोलीं। वह इसकी भी अनदेखी करता रहा कि पाकिस्तान किस तरह आतंकी संगठनों की शरणस्थली है। अफगानिस्तान का प्रकरण इसकी गवाही दे रहा है कि पाकिस्तान के संदर्भ में अमेरिका की विदेश नीति खोखली भी है और दिशाहीन भी। आज अगर अमेरिका की जगहंसाई हो रही है और उस पर यह दोषारोपण हो रहा है कि उसने अफगानिस्तान को गर्त में धकेल दिया तो इसकी वजह उसकी पाकिस्तान नीति है। तालिबान अफगानिस्तान पर काबिज तो हो गए, मगर उनके लिए शासन आसान नहीं। अफगानिस्तान में गरीबी पसरी है और अर्थव्यवस्था तंगहाल। तालिबान की आर्थिकी अफीम की खेती पर निर्भर है। अफगानिस्तान अफीम, हेरोइन आदि का सबसे बड़ा उत्पादक है। अमेरिका नशे के इस कारोबार पर भी अंकुश नहीं लगा सका।
तालिबान में कोई बुनियादी बदलाव नहीं
तालिबान चाहे जैसे दावे क्यों न करे, उसमें कोई बुनियादी बदलाव आता नहीं दिख रहा है। वह कुल मिलाकर एक आतंकी संगठन है। तालिबान ने महिलाओं को अधिकार देने और बदले की भावना से काम न करने का भरोसा दिलाने की जो कोशिश की थी वह 48 घंटे में ही दुनिया को धोखा देने का हथकंडा साबित हो गई। दुर्भाग्य से जैसे पाकिस्तान तालिबान के पीछे खड़ा है वैसे ही चीन भी। चीन की मंशा बेल्ट एंड रोड योजना अफगानिस्तान तक ले जाने की है। वह पैसे के दम पर तालिबान को साधने की कोशिश में है। यदि तालिबान पर पाकिस्तान के साथ चीन का प्रभाव बढ़ा तो मध्य एशिया में भारत के लिए चिंताजनक स्थिति बन सकती है। अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में योगदान देने और वहां बुनियादी ढांचे में करीब तीन अरब डालर खर्च करने वाला भारत तालिबान को लेकर तत्काल किसी पहल से बच रहा है। यह उचित भी है, क्योंकि अभी अफगानिस्तान में सरकार का गठन होना और उसकी रीति-नीति तय होना शेष है।