भारत की आत्मा है कृषि क्षेत्र
कृषि क्षेत्र भारत की जनमूलक-प्रजातान्त्रिक राजनीति के केन्द्र में इस प्रकार रहा है कि
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कृषि क्षेत्र भारत की जनमूलक-प्रजातान्त्रिक राजनीति के केन्द्र में इस प्रकार रहा है कि महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपना पहला सबसे बड़ा आन्दोलन 1917 में बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती के विरुद्ध ही शुरू किया था। स्वतन्त्र भारत में कांग्रेस से अलग होकर समाजवादी आन्दोलन के दो प्रवर्तकों आचार्य नरेन्द्र देव व डा. राम मनोहर लोहिया ने कृषि क्षेत्र की समस्याओं को लेकर ही नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना की शुरूआत की। आचार्य कृपलानी ने तो किसान मजदूर पार्टी तक बनाई। ये सभी राजनीतिज्ञ मूल रूप से किसान नहीं थे मगर किसानों का हित उनके लिए सर्वप्रमुख था। भारत के राजनीतिक चिन्तन में कृषि क्षेत्र का समावेश होना इसलिए जरूरी है कि मूलतः यह देश गांवों और खेती-किसानी का इस प्रकार है कि इसकी राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर आन्तरिक सुरक्षा तक के क्षेत्र में खेतीहर व ग्रामीण जनता की प्रमुख भागीदारी अंग्रेजी शासनकाल के समय से चलती आ रही है, इसी वजह से इस देश की नब्ज पकड़ते हुए 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने 'जय जवान-जय किसान' नारे का उद्घोष किया था जिससे इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का सीधा सम्बन्ध इसकी आर्थिक सुरक्षा से पुनः स्थापित हो सके। यह केवल एक नारा नहीं था बल्कि इसके पीछे भारतीय संस्कृति का वह दिव्य ज्ञान था जिसमें अन्न को देवता की संज्ञा दी गई थी और सिपाही को रक्षक की प्रतिष्ठा दी गई थी।