उम्र का अंतर भावना को कभी दबा नहीं पाता; जीवन वाक्य में मात्र अर्धविराम है मृत्यु

महिपत रॉय शाह की राज कपूर, माला सिन्हा, महमूद और हास्य अभिनेता राधा कृष्णन अभिनीत फिल्म 'परवरिश' में प्रस्तुत किया गया है

Update: 2021-11-12 16:55 GMT

जयप्रकाश चौकसे। महिपत रॉय शाह की राज कपूर, माला सिन्हा, महमूद और हास्य अभिनेता राधा कृष्णन अभिनीत फिल्म 'परवरिश' में प्रस्तुत किया गया है कि एक अस्पताल में आग लग जाती है, जहां एक अमीर व्यक्ति और एक बदनाम गली की महिला दोनों के यहां एक साथ पुत्र जन्म होता है। अस्पताल में तैनात लोगों ने हाल ही में जन्मे सभी शिशुओं को बचाने का काम तेजी से किया परंतु आपाधापी में बच्चों के पहचान पत्र गुम हो गए।

दुविधा आन खड़ी हुई कि अमीर का शिशु और तवायफ के शिशु में पहचान कैसे की जाए? अमीर व्यक्ति निर्णय लेता है कि दोनों ही शिशु उसके घर में पलेंगे। बड़े होने पर उनके आचरण से संभवत: कुछ पता चल जाए। तवायफ का भाई भी साथ ही रहना चाहता है ताकि वह आगे चलकर अपने भांजे को पहचान लेगा। अमीर व्यक्ति कोई एतराज नहीं करता। हास्य कलाकार राधाकृष्णन ने तवायफ के भाई की भूमिका अभिनीत की थी।
कालांतर में बच्चे, युवा होते हैं और उनमें बड़ा आपसी प्रेम होता है। महमूद अभिनीत पात्र की आदतों और व्यवहार से यह अनुमान लगता है कि वह तवायफ का बेटा है। राज कपूर अभिनीत पात्र भी सब कुछ समझ लेता है परंतु वह नहीं चाहता कि महमूद बदनाम गली में पहुंच जाए। इसलिए वह ऐसा बेहूदा आचरण करने लगता है ताकि महमूद वारिस बने और वह अच्छी जिंदगी जी पाए।
राज कपूर अभिनीत पात्र इतना योग्य है कि वह अपने गुजारे के लिए कुछ ना कुछ तो कर ही लेगा। वह जानता है कि ऐसा करने से वह अपनी प्रेमिका को भी खो देगा। शंकर-जयकिशन के सहायक रहे दत्ता राम ने फिल्म में मधुर संगीत दिया था। एक लोकप्रिय गीत था, 'वादे भुला दें, कसम तोड़ दें, वो हालात पे अपने हमें छोड़ दें, आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें, कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं
उन्हें घर मुबारक हमें अपनी आहें​​​​​​​
बरबादियों की अजब दास्तां है।' गौरतलब है कि यह फिल्म उन्हीं दिनों बन रही थी, जब राज कपूर और नरगिस का अलगाव हुआ था। अत: कुछ लोगों का अनुमान था कि इस गीत के माध्यम से राज कपूर अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को अभिव्यक्त कर रहे थे। बहरहाल 'परवरिश' सुखांत फिल्म है। अंत में अमीर व्यक्ति दोनों को ही अपना वारिस बना देता है। एक अमेरिकन फिल्म में प्रस्तुत किया गया कि एक अनाथालय में आग लग जाती है।
अनाथालय का उच्च अधिकारी बच्चों को लेकर निकट ही बने वृद्धाश्रम चला जाता है। वहां के उम्रदराज लोगों को शोर पसंद नहीं है। यहां तक कि वे एक -दूसरे से भी कम ही बोलते हैं। बच्चे तो शोर करते हैं। धीरे-धीरे उम्रदराज लोगों और बच्चों में आपसी स्नेह का रिश्ता बन जाता है। अब संस्था चहकने लगती है। उम्रदराज लोगों को बच्चों का शोर, संगीत की तरह लगने लगता है।
कुछ समय बाद वहां के एक उम्रदराज व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। संस्था के दूसरे बुजुर्ग यह नहीं चाहते कि बच्चों को सत्य पता चले कि उनके चहेते एक बुजुर्ग अब नहीं रहे। क्योंकि उनका मानना है कि मासूम बच्चों को मृत्यु की जानकारी उन्हें रातों-रात वयस्क बना देगी। वृद्धजन योजना बनाकर आधी रात के बाद अपने उस मृत साथी को कब्रिस्तान ले जाते हैं। लेकिन बूढ़े लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि बच्चे तो वहां पहले ही आ चुके हैं।
सबकी आंखों में आंसू हैं। गोया की उम्र का अंतर भावना को कभी दबा नहीं पाता। मृत्यु तो जीवन वाक्य में मात्र अर्धविराम है। बहरहाल, पाकिस्तान के फिल्मकार शोएब मंसूर के निर्देशन में बनी फिल्म 'बोल' में भी कहानी के अंत में बताया गया कि है कि तवायफ की कोख से जन्मी बच्ची भी पढ़ाई-लिखाई में प्रवीण होती है। अत: स्पष्ट है कि जन्म से चरित्र तय नहीं किया जा सकता। 'बोल' एक दस्तावेज नुमा फिल्म है और 'परवरिश' को भी सराहा गया है।
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