Editorial: 'अगम बहै दरियाव’, कालखंड की महागाथा

Update: 2024-07-05 08:47 GMT
Editorialप्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति जी का उपन्यास हाल के दिनों का सर्वाधिक पठनीय उपन्यास है। इसका उदाहरण है कि राजकमल प्रकाशन की ओर से घोषणा की गई है कि उनके तीन सबसे ज़्यादा बिकने वाले उपन्यास हैं - राग दरबारी, सोफ़ी का संसार और अगम बहै दरियाव। पिछले साल सितंबर में यह उपन्यास आया था। छ माह के अन्दर ही इसका दूसरा संस्करण आया। पता चला है कि तीसरा संस्करण भी शीघ्र आने वाला है। यह उपन्यास की पाठकप्रियता का उदाहरण है। इस उपन्यास पर अनेक शहरों में चर्चा हो चुकी है। इसी सप्ताह सात जुलाई को लखनऊ में भी देश के जाने-माने साहित्य आलोचक व विद्वान इस पर चर्चा करेंगे।
जहां तक मेरी बात है, कथाकार शिवमूर्ति जी की मैं पुरानी पाठक हूं। उनकी कहानियों को बड़े मनोयोग और दिलचस्पी से पढ़ती हूं। उनके बारे में लिखने में कुछ संकोच भी है। फिर भी बहुत साहस करके उनके नवीनतम उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ पर कुछ लिखने की कोशिश की है। मेरी नज़र में यह उपन्यास नहीं अपने कालखंड की महागाथा है।


 

‘अगम बहै दरियाव’ को पढ़ते हुए, इससे गुजरते हुए, इसमें डूबते-उतराते हुए मुझे प्रेमचंद कृत ‘गोदान’ याद आ रहा था। शिवमूर्ति जी के इस उपन्यास में जितने पात्र हैं या उस कालखंड में जो भी चरित्र सामने आए हैं, वह बिल्कुल सजीव से लगते हैं। लगता है जैसे इस उपन्यास को शिवमूर्ति जी लिख नहीं रहे हों बल्कि जी रहे हैं और हम भी उनके साथ चल रहे हैं। इसमें बहुत सारे पात्र हैं जिनकी गिनती करना मुश्किल है। इनका चरित्र चित्रण इस प्रकार किया गया है कि एक बार शुरू करने के बाद अंत में क्या होता है, इसकी जिज्ञासा बनी रहती है।
‘अगम बहै दरियाव’ किसानों के जीवन संघर्ष की गाथा है। उनके जीवन में संघर्ष पूरी जिंदगी बना रहता है। उन्हें कभी भी सुकून या चैन की जिंदगी नहीं मिलती। अपनी समस्याओं को सुलझाते-सुलझाते वे बूढ़े हो जाते हैं और कभी-कभी आत्महत्या तक करने को भी विवश हो जाते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि कहानी में स्याह पक्ष ज्यादा है और अभिव्यक्ति बहुत ही मार्मिक व संवेदित कर देने वाली बन पड़ी है। शायद कथाकार शिवमूर्ति जी ने यही सोच कर इस उपन्यास का नाम भी ‘अगम बहै दरियाव’ रखा है।
यह उपन्यास आपातकाल से लेकर उदारीकरण के बाद करीब 4-5 दशकों में फैली एक ऐसी दस्तावेजी और करुण महागाथा है जिसमें किसान-जीवन की संपूर्णता हमारे सामने आती है। उपन्यासकार भिन्न-भिन्न पात्रों के माध्यम से एक साथ कई सवाल खड़े करता है। सूखे जैसी विकट समस्या को काल्पनिक आंचल से ढ़कने की बजाय उसे एकदम उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत कर पाठक को अपनी ओर खींचता है। उपन्यास का मर्म संवाद के साथ उजागर होता है क्योंकि किसी भी संस्कृति का अहम हिस्सा उसकी भाषा होती है जो सामाजिक ताना-बाना को समझने में मदद करती है।
छत्रधारी सिंह (उपन्यास का एक पात्र) ठाकुर है। गांव के धनी किसान, दूसरे गरीब दलित किसान की जमीन हड़पना, धोखा देना व ऊंची जाति होने का फायदा उठाना अर्थात दंभ और दबंगई उसके चाल-चरित्र में है। ईंट का भट्ठा चलाना भी उसके आय का एक स्रोत है। उसकी दबंगई गांव में प्रसिद्ध है। दलित और पिछड़ी जातियों को वह आतंकित भी करता रहता है। छत्रधारी सिंह का मानना है कि कमजोर हमेशा से बलवानों का आहार बनता ही रहा है। आज भी यह होना कोई नयी बात नहीं है। वह तो हमारा शिकार हैं। उपन्यास में शिवमूर्ति जी गीतों के माध्यम से उसके इस चरित्र को सामने लाते हैं -
ठग, ठाकुर औ बीग, सोनार
धाए धूपे करैं अहार।
अर्थात ठग, ठाकुर, भेड़िया और सोनार दौड़ धूप कर ही अपना आहार प्राप्त करते हैं। इन चारों की सफलता में छल का भी योगदान होता है। उसमें धर्म व अधर्म विचारणीय नहीं होता। मूल है लक्ष्य की प्राप्ति। शिवमूर्ति जी ने लोकजीवन के गीतों के ऐसे उद्धरणों से इस उपन्यास को दिलचस्प और सशक्त के साथ काव्यमय भी बनाया है। इससे पाठक में रोचकता भी पैदा होती है।
छत्रधारी सिंह पिछड़ी जाति के संतोखी की खेती की जमीन धोखे से हड़प लेता है। संतोखी 35 साल तक अपनी जमीन पाने के लिए मुकदमा लड़ता है और बुढ़ा होकर कंगाल हो जाता है। छात्रधारी सिंह और पुलिस के अत्याचार की मार से त्रस्त होकर जंगू डाकू बन गांव से गायब होकर जंगल चला जाता है। संतोखी इस जंगू का सहारा लेना चाहता है। उसकी कातर पुकार रात के अंधेरे बियावान में गूंजती है -
जंगू रा...जा ऽ...ऽ
इंसाफ दो ...ऽ..ऽ
जंगल के राजा...
इंसाफ दो....
इस प्रसंग से गुजरने के बाद पाठक द्रवित होने से अपने को रोक नहीं सकता। ऐसे कारुणिक दृश्य से मन विह्वल हो जाता है। उपन्यास में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जिसमें पाठक के मर्म को कथा स्पर्श करती है। जैसे गन्ना किसान, विद्रोही जी, पहलवान और उसका बेटा बिल्लू का प्रेम प्रसंग। यह जहां संवेदित करता है, वहीं उजाले और स्याह पक्ष को दृश्यमान करते हुए कई सवाल भी खड़े करता है। इसे हम निम्न प्रसंग से समझ सकते हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ा रघुनंदन राय का बेटा राजेश्वर गांव आया है। गांव के पढ़ाकू लड़के सब उसकी ओर देखते हैं। राजेश्वर कहता है - आधे से ज्यादा विधायक और सांसद जनता की नाजायज संतान हैं। लड़के सवाल करते हैं - नाजायज या नालायक? वह बताता है कि नाजायज इसलिए कि जनता ने उन्हें पैदा ही नहीं किया। वे बूथ कैपचरिंग करके, नोट बांटकर या जातिवाद और सांप्रदायिकता का नशा पिलाकर वोट लूटते हैं। इन सब के मूल में पूंजी है। पूंजी दोनों के बीच रेफरी बनकर कुश्ती कराती है। राजेश्वर आगे कहता है कि जो व्यवस्था अमीरों को अकूत धन इकट्ठा करने की छूट देती है, वह जन कल्याणकारी कैसे हो सकती है? यह गांव में आई नई चेतना है कि गांव के दलित टोले की स्त्रियां भी वोट के महत्व को समझने लगती हैं। सरकार इसी वोट से बनती है। दबंग लोग लगे हैं उनके वोट की चोरी करने में। इसके लिए वे तैयार नहीं हैं। वे कहती हैं:
चल सखी वोट दई आईं
मोहर हाथी पर लगाईं
गन्ना किसानों का सरकार द्वारा ऋण माफी का प्रसंग भी बहुत ही उद्वेलित और विचलित करता है। कथाकार सहज और सरल भाषा में इस प्रसंग को कहानी में बड़े ही यथार्थ परक तरीके से ले आते हैं। सब कुछ जैसे हमारे सामने घटित हो रहा है। इस महागाथा में चाहे तूफानी का प्रधानी के लिए चुनाव का प्रसंग हो या बुल्लू का प्रेम प्रसंग सभी सजीव तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इसमें सोना का बुल्लू से प्रेम था। वह अपने पति के खिलाफ कोर्ट में गवाही देती है जिसने शक के आधार पर बिल्लू की हत्या कर दी थी और उसे झूठ बोलने पर विवश कर दिया था। फिर भी उसने सच का साथ दिया और अपने फौजी पति को उम्र कैद की सजा दिलवाई। इस तरह सोना का बोल्ड चरित्र उपन्यास में उजागर होता है।
शिवमूर्ति जी के कथा सृजन की विशेषता है कि वहां दब्बू, भीरू की जगह निर्भीक और अन्याय का प्रतिकार करने वाली स्त्रियां आती हैं जैसा कि सोना के चरित्र में हमें देखने को मिलता है। वैसा ही चरित्र हम देखते हैं जब गांव में इमरजेंसी के दौरान नसबंदी का फरमान आया। उस वक्त मर्द या तो भूमिगत हो गए थे या घर के अंदर छुप गए थे या गांव छोड़कर चले गए थे। स्त्रियां ही आगे बढ़कर आईं और डटकर मुकाबला किया। इसी तरह अपने वोट के अधिकार के लिए दलित टोले की स्त्रियां समाज के दबंगों का मुकाबला करती हैं और उन्हें परास्त भी कर देती हैं। उपन्यास में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहां स्त्रियां मुखर रूप से मौजूद दिखती हैं। मुझे लगता है कि शिवमूर्ति जी स्त्रियों के सवाल को बहुत ही पारखी नजर से देखते, समझते और व्यक्त करते हैं। वे स्त्रियों में भी समय आने पर एक होने की क्षमता, डट जाने, प्रतिरोध में खड़ा हो जाने तथा लड़ने-भिड़ने की ताकत को सामने लाते हैं।
उपन्यास में ठाकुर छत्रधारी सिंह, गन्ना मिल मालिक, सरकार का रवैया, पुलिस-प्रशासन, न्याय व्यवस्था और इसके द्वारा जो शोषण-उत्पीड़न-दमन होता है अर्थात सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना हमारे सामने उद्घाटित होता है। वहीं इनके विरुद्ध दलित व पिछड़ी जातियों और गरीब किसानों का संघर्ष बड़े ही तार्किक ढंग से प्रस्तुत होता है। यह बात भी सामने आती है कि इस व्यवस्था के ताने-बाने का विरोध करने के लिए एकजुट होना बहुत जरूरी है। उपन्यास का एक पात्र हैं विद्रोही जी। यह किसान यूनियन के दफ्तर में रहते हैं। यूनियन के संगठनकर्ता और योजनाकार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा है। किसान यूनियन को मजबूत करने के लिए पूरे प्रांत का दौरा करते हैं। संतोखी की इनसे अपेक्षा है और न पूरी हो पाने पर दुखी होकर कहता है कि यही काम मेरे साथ की गई जालसाजी का विरोध छत्रधारी सिंह के दरवाजे पर चढ़कर किए होते तो मुझे अपनी आधी उम्र कोर्ट कचहरी में भटकते हुए क्यों गुजारनी पड़ती। तब भूसी जो उपन्यास का एक दूसरा पात्र है उसे समझाता है - भूल जाओ सारी बातें। सही वक्त पर सही काम के लिए उठाई गई आवाज से अपनी आवाज मिलाओ। इस तरह यह कहानी किसी एक संतोखी की नहीं है बल्कि हजारों-लाखों संतोखी की है, किसान वर्ग की है।
उपन्यास का यह प्रसंग निश्चय ही वर्तमान से जुड़ता है। उदाहरण के लिए भूसी का यह कहना कि क्या है किसान के हाथ में ? न बीज है, न बिजली है, न बाजार है। खेत पर भी गिद्ध की नजर। उसके पक्ष में पॉलिसी बनाइए, सब्सिडी दीजिए, खाद में, बीज में, दूध में। पहलवान का यह कहना कि कब तक सरकार उद्योगपतियों को सगा और किसानों को सौतेला मानती रहेगी? किसानों के लिए यह अंधेरा समय है। इससे उबरने कि लिए आगे आइए। बोला - ‘के के तैय्यार बा?’ हजारों कंठ से आवाज आई ‘सब केहूं तैय्यार बा’। फिर किसान एकता के नारे गूंजने लगे। उपन्यास का यह संदर्भ तीन साल पहले तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली के बॉडर पर चले किसान आंदोलन की याद दिलाता है। उपन्यास को पढ़ते हुए सब कुछ जैसे आंखों के सामने दृश्यमान हो रहा है।
इस तरह शिवमूर्ति जी का यह उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ वर्तमान के दुष्चक्र में फंसे किसान की महागाथा तो है ही साथ ही पिछले पांच दशक के कालखंड और इस दौर में राजनीतिक उठा-पटक को भी हमारे सामने ले आता है। किसान का जीवन एक नदी की तरह है। वह बहती रहे तो लोगों को उससे जीवन मिलता रहेगा। लेकिन आज वह नदी संकटग्रस्त है। किसान भी संकट में है। यह उपन्यास उसके दुख, पीड़ा, हर्ष-विषाद, संघर्ष , आशा-आकांक्षा को सजीव ढंग से प्रस्तुत करने में सफल है। जैसे नदी बाधाओं के बाद भी रास्ता बना लेती है, वैसा ही किसान का जीवन है। उपन्यास उसकी ताकत से पाठक को परिचित कराता है। ऐसा हमने किसान आंदोलन के दौरान भी देखा। सरकार को पीछे हटना पड़ा। कृषि कानून वापस लेने पड़े । लेकिन तिकड़म करने से वह बाज नहीं आ रही है। उपन्यास का अंत आंदोलन में होता है जो आज भी किसानों का यह आंदोलन जमीन पर जारी है, इस उम्मीद के साथ:
रात नफरत की काली खतम जल्द हो
एक ऐसी सुबह की यहां पौ फटे
जिसमें इन्सां बराबर हों दुनिया के सब
जाति धर्मों की नामोनिशानी मिटे।
अंत में, 586 पृष्ठ के इस भारी भरकम उपन्यास को पढ़ना आसान नहीं रहा है। लेकिन शुरू कीजिए तो इससे बाहर निकलना संभव नहीं है। ऐसे ही बांधता है और जिज्ञासा पैदा करता है। पिछले डेढ़ माह से यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा बना रहा है। इसे पढ़ना बहुत सार्थक लगा। बहुत कुछ जानने - समझने को मिला। इस कृति के लिए शिवमूर्ति जी को तहे दिल से बधाई एवं शुभकामनाएं।
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