असहनशीलता के विरुद्ध

अपने किसी भी कदम के विरुद्ध उठी आवाज को सहन नहीं कर पातीं। उन्हें दबाने की हर कोशिश करती हैं, चाहे उसके लिए विवेक और संवैधानिक मूल्यों को ताक पर ही क्यों न रखना पड़े। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी पत्रकार सिद्दीकी कप्पन के खिलाफ ऐसा ही दमनकारी रास्ता चुना था।

Update: 2022-09-12 05:15 GMT

Written by जनसत्ता: अपने किसी भी कदम के विरुद्ध उठी आवाज को सहन नहीं कर पातीं। उन्हें दबाने की हर कोशिश करती हैं, चाहे उसके लिए विवेक और संवैधानिक मूल्यों को ताक पर ही क्यों न रखना पड़े। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी पत्रकार सिद्दीकी कप्पन के खिलाफ ऐसा ही दमनकारी रास्ता चुना था। उसे लेकर अब सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पुलिस को कड़ी फटकार लगाई है। कप्पन की जमानत मंजूर करते हुए अदालत ने कहा कि हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी है।

वे यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि हाथरस पीड़िता को न्याय दिलाने की जरूरत है और उन्होंने आवाज उठाई। क्या यह कानून की नजर में अपराध है? हाथरस की घटना किसी से छिपी नहीं है कि किस तरह बलात्कार पीड़िता की मौत के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने रात के अंधेरे में उसके शव को जला दिया था। उस घटना के संबंध में पीड़िता के परिवार से बातचीत के लिए जा रहे पत्रकारों तक को रोक दिया गया था। सिद्दीकी कप्पन भी उनमें थे। उत्तर प्रदेश पुलिस ने उनके खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम यानी यूएपीए के तहत मामला दर्ज कर दिया था। यह गैर-जमानती धारा है। इस तरह उन्हें सात सौ दिन जेल में बिताने पड़े।

पिछले कुछ सालों से यह प्रवृत्ति आम हो गई लगती है कि सरकारों के विरुद्ध आवाज उठाने वालों के खिलाफ यूएपीए लगा दिया जाता है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी हाथरस आदि मामलों के तथ्यों को छिपाने के प्रयास में कई लोगों के खिलाफ इस धारा का इस्तेमाल किया। कप्पन के साथ दो और लोगों को गिरफ्तार किया गया था। इसके अलावा भी कई आंदोलनों में और सोशल मीडिया आदि पर सरकार के खिलाफ लिखने पर लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। इस तरह लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी ही कठघरे में खड़ी नजर आने लगी है।

लोकतंत्र की खूबसूरती ही यही है कि हर नागरिक सरकार से सवाल कर सकता है, उसके किसी फैसले पर अंगुली उठा सकता है। मगर उत्तर प्रदेश सहित तमाम राज्य सरकारें शायद सवाल पसंद नहीं करतीं। जहां भी उन्हें लगता है कि किसी सवाल से उनकी छवि पर असर पड़ेगा, वहां वे दमन का रास्ता अख्तियार करती देखी जाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले से सरकारों में बढ़ती असहनशीलता पर कड़ा प्रहार किया है।

आखिर सरकारों के गलत फैसलों का विरोध न हो, उन पर सवाल न पूछे जाएं, तो फिर वे निरंकुश हो जाएंगी। सरकारों को भी नियम-कायदों के दायरे में रह कर काम करना होता है, वे उनसे ऊपर नहीं हो सकतीं। मगर उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस तरह पिछले कार्यकाल में अपराध रोकने के नाम पर पुलिस को मुक्तहस्त कर दिया और उसके कानून की अनदेखी तक पर चुप्पी साधे रखी, उससे समाज की समरसता काफी कुछ छिन्न-भिन्न हुई।

पुलिस निरंकुश व्यवहार करती देखी गई। इस तरह भय का वातावरण बना कर शासन करने का नुस्खा लोकतंत्र में उचित नहीं माना जाता। कप्पन जैसे अनेक लोग आज भी जेलों में बंद हैं और उन्हें जमानत नहीं मिल पा रही, जबकि पिछले कुछ सालों में बार-बार दोहराया जाता रहा है कि जमानत नागरिकों का अधिकार है। मगर सरकारें उनकी गैरकानूनी गतिविधियों का हवाला देकर उन्हें बाहर आने से रोकती रहती हैं। पुलिस की यह भी जवाबदेही होनी चाहिए कि जिन लचर दलीलों के आधार पर वह लोगों को बरसों जेल में ठूंसे रहती है, उनके जीवन के उन बहुमूल्य दिनों और जेल में झेली पीड़ा की कीमत कौन चुकाएगा!

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