बार-बार वही 'रार' भरी अदालत में 'खाकी-वर्दी' को मुंसिफ की फिर खुलेआम फटकार! आखिर क्यों?

अमूमन हमारे देश में आपराधिक मुकदमों की सुनवाई में देरी होने का ठीकरा हिंदुस्तानी ‘अदालतों’ के सिर पर ही फूटता देखा-सुना जाता रहा है

Update: 2021-09-09 14:20 GMT

संजीव चौहान। अमूमन हमारे देश में आपराधिक मुकदमों की सुनवाई में देरी होने का ठीकरा हिंदुस्तानी 'अदालतों' के सिर पर ही फूटता देखा-सुना जाता रहा है. या फिर एक घिसा-पिटा तकिया कलाम हमारी अदालतों की ढीली या कहिए कछुआ चाल के लिए प्रचलित है, 'तारीख पे, तारीख तारीख पे तारीख'. सीधे-सपाट अल्फाज़ों में कह सकते हैं कि अब तक न्याय में देरी के लिए हर जगह अदालतों-जजों को ही परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जिम्मेदार मान लिया जाता था! भागमभाग वाली जिंदगी और अत्याधुनिक तकनीक के जमाने में अब सब कुछ पलट चुका है.

अदालतों में पैरवी के मामलों को "कछुआ चाल" से बढ़ाने का 'ठीकरा' अब जांच एजेंसियों के सिर फूटना शुरू हो चुका है. यह एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) से लेकर किसी भी राज्य की पुलिस या फिर देश की कोई भी अन्य बड़ी जांच एजेंसी भी हो सकती है. आलम यह है कि अदालतों में पेश मुकदमों की 'ऊट-पटांग' फाइलें देखकर, मुंसिफ (जज) तक उखड़ जा रहे हैं.
मत भूलो 47 साल पुराना लंबित रेलमंत्री हत्याकांड
पीड़ित पक्ष (मुवक्किल पक्ष) की तो बात ही छोड़ दीजिए. यहां इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि जज या अदालतें तभी उखड़ती हैं जब उनके सब्र का बार-बार इम्तिहान लेने की जाने-अनजाने 'नाकाम-कोशिश' की जाती है. कुल जमा यह कहा जाए कि अदालतों और जांच एजेंसियों की कथित लेट-लतीफी का अगर हिंदुस्तान में मौजूदा वक्त में कोई सर्वोत्तम उदाहरण है, तो वो है भारत के पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री हत्याकांड का केस. जी हां पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड (Former Railway Minister Lalit Narayan Mishra Murder Case). देश को हिला देने वाला ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड 2 जनवरी सन् 1974 को बिहार राज्य के समस्तीपुर रेलवे जंक्शन के प्लेटफार्म नंबर 2 पर अंजाम दिया गया था. करीब पांच दशक यानि 47 साल पहले. हत्याकांड को अंजाम बम से हमला करके दिया गया था. हत्याकांड को तब सिर-ए-अंजाम पहुंचाया गया जब देश के रेल मंत्री श्री मिश्रा एक रेल लाइन का उद्दघाटन करने मौके पर पहुंचे थे. बुरी तरह घायल रेलमंत्री को तत्काल इलाज के लिए पटना ले जाया गया. जहां अगले दिन यानि 3 जनवरी 1974 को उनकी मौत हो गई.
दादा के कत्ल की पैरवी में पोता जुटा है
मामले में गवाह-सबूत सब मजबूत थे. इसके बाद भी जांच एजेंसियों-अदालतों में 'तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख' के चलते यह मामला अभी तक न्याय की उम्मीद में अदालतों के चक्कर काट रहा है. हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) ने पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड में उनके पोते की याचिका पर सुनवाई करते हुए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी समझी जाने वाली केंद्रीय जांच ब्यूरो यानि CBI को, मामले की नए सिरे से जांच का आदेश दिया है. लिहाजा न्याय के इंतजार में 47 साल से कानून की फाइलों में धूल फांक रहा यह मुकदमा फिर चर्चा में आ गया.
सुनवाई दिल्ली हाईकोर्ट के डिवीज़न बेंच में हुई. ललित नारायण मिश्रा के पोते वैभव मिश्रा ने हाईकोर्ट का ऑर्डर आने पर कहा है कि, उनके दादा के कत्ल में शामिल असली हत्यारों का नाम अब सामने आने की उम्मीद जगी है. सोचिए जिस देश के रेलमंत्री की जघन्य हत्या का अंतिम फैसला 47 साल में न आ सका हो, उस देश के बाकी दूर दराज या पिछड़े इलाकों में 'जांच एजेंसियों' और 'कानून' का आलम क्या होगा? किसी से भला कैसे छिपा रह सकता है?
कानून को 'एक आंख' से देखने की भूल
ऐसे में यहां कुछ ताजा-तरीन उदाहरणों का जिक्र करना भी जरूरी है. बदले वक्त और हालातों में अब एकदम इसके उलट हो रहा है. अब जब अदालतें मुकदमों की तेज या त्वरित सुनवाई की कोशिशों में जुटी हैं. तो 'खाकी वर्दी' यानि पुलिस या फिर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) सरीखी जांच एजेंसियां ही, मुंसिफ और कोर्ट की चाल को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से धीमा करने-कराने पर आमादा हैं. इसकी बानगी देखने के लिए आपको देश के किसी पिछड़े गांव, गरीब तबके या दूर-दराज के इलाके में जाने की जरूरत नहीं है. आप देश की राजधानी दिल्ली की ही कुछ अदालतों में यह कड़वा सच, अपनी आंखों से देख सकते हैं. उसी दिल्ली में जहां मौजूद हुकूमतें देश का 'कानून' बनाती हैं. पीड़ितों को न्याय दिलवाने की उम्मीद में. गंभीर और विचार करने योग्य बिंदु यह है कि जिस दिल्ली में 'कानून' बनता है. वहीं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से खाकी वर्दी इसका मखौल उड़ाने की जानी-अनजानी बेजा कोशिशों से बाज आने को राजी नहीं है.
अपनी हिफाजत की भी "भीख" मांगनी पड़ती!
यही वजह है कि कानून को 'एक आंख' से देखने की गलती करने वाली खाकी वर्दी, दिल्ली की कुछ अदालतों में तो खुलेआम इन दिनों खुद ही खुद की छीछालेदर कराने पर आमादा दिखाई देती है. ऐसा नहीं है कि यह मैं कोई विशेष या दबी-छिपी जानकारी लिखकर पेश कर रहा हूं. जमाने में यह सब जग-जाहिर है. रोज खबरों की सुर्खियों में है. विशेषकर तब से जबसे दिल्ली में (26 जनवरी 2021) किसान ट्रैक्टर रैली की आड़ में, राजधानी की सड़कों पर कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ीं या उड़वाई गईं! हाथों में हथियार लिए खड़ी दिल्ली पुलिस अपने ही घर में (दिल्ली में) सिर नीचा किए रहस्यमयी 'खामोशी' के साथ, बेबसी के आलम में मार खाकर उपद्रवियों के हाथों खुद को 'जख्मी' करवाती रही. सड़कों पर पिट रहे हथियारबंद पुलिसकर्मियों या पैरा मिलिट्री फोर्स के जवानों ने हाथ में हथियार शायद इसलिए नहीं उठाये, क्योंकि उन सबको (हथियारबंद जवानों) अपनी हिफाजत में लाठी-गोली चलाने की इजाजत अपने आला-अफसरान से 'भीख' में मांगनी पड़ती!
मार खाती पुलिस की खामोशी का मतलब
उस दिन हिंदुस्तान की राजधानी की सड़कों पर दिल्ली पुलिस की उस दुर्दशा पर, तब तत्कालीन दिल्ली पुलिस आयुक्त ने दुहाई दी थी. वे बोले, "हमारे हथियार (दिल्ली पुलिस) जवाब में अगर उस दिन अपना मुंह खोल देते तो हालात बिगड़ सकते थे. शहर का अमन-चैन बिखर सकता था. हम कानून के रखवाले हैं. कानून से ही जबाब देंगे. 26 जनवरी 2021 पर लाल किले के अंदर और दिल्ली की सड़कों पर उपद्रव मचाने वालों को हम कानूनन ही सबक सिखाएंगे." बस इसके बाद से ही दिल्ली पुलिस ने उस फसाद के आरोपियों को कानूनन सबक सिखाने की चाहत में देश भर में छापे मारने शुरू कर दिए. सबसे ज्यादा छापेमारी हरियाणा, पंजाब, दिल्ली में ही की गई. मकसद था लाल किला कांड में किसान ट्रैक्टर रैली की आड़ में शामिल हमलावरों को गिरफ्तार करना. पुलिस का मानना था आरोपियों को गिरफ्तार करके उन्हें जेल में ठूंसकर आगे-पीछे का सब हिसाब बराबर कर लिया जाएगा.
जब 'खाकी वर्दी' सबकुछ भूल गई
इसी सब का रिजल्ट था जो दिल्ली पुलिस ने अपनी सबसे ताकतवर स्पेशल सेल, क्राइम ब्रांच की टीम के सैकड़ों अफसरों-जवानों को सड़कों पर उतार दिया. इस हिदायत के साथ कि अब वे सभी बेधड़क होकर 26 जनवरी 2021 की ट्रैक्टर कार रैली की आड़ में खून-खराबा करने के जिम्मेदारों को घेर-दबोचकर अदालतों में पेश करें. उसके बाद उन सबकी अदालतों से लंबी-लंबी 'पुलिस रिमांड' लेकर उन्हें (संदिग्धों/आरोपियों) को समझाओ कि, हथियारबंद होने के बाद भी खामोशी अख्तियार करके मार खाती रहने वाली पुलिस कितनी ताकतवर है. नतीजा वही हुआ जिसकी प्लानिंग की गई. दिल्ली पुलिस की टीमों ने दिन-रात छापेमारी की तो एक के बाद एक, लालकिला कांड के संदिग्ध आरोपी उसके जाल में फंसते चले गए. यहां तक तो सब सही-सलामत रहा. बात तब बिगड़नी शुरू हो गई जब उपद्रवियों को दनादन दिन रात हरियाणा, पंजाब, दिल्ली में छापे मार कर दबोचने में जुटी दिल्ली पुलिस आगे पीछे की सब भूल गई.
हर कोशिश नाकाम होती चली गई
दिल्ली पुलिस भूल गई कि जिस कोर्ट-कचहरी-कानून के सहारे वो (दिल्ली पुलिस) आरोपियों को उनकी "औकात" बताने वाली है, वे आरोपी भी उसी कानून के सहारे इन्हीं कोर्ट कचहरियों में खुद के बचाव का हर 'तोड़' तलाशे बैठे होंगे. हुआ भी वही, जिसकी दिल्ली पुलिस ने सोची ही नहीं थी. आरोपियों की कानूनी फाईलें (मुकदमे) लेकर जब दिल्ली पुलिस की टीमों ने दिल्ली की अदालतों की ओर दौड़ना शुरू किया तो वहां 'पासा' उलटा पड़ गया. जल्दबाजी में उठाए गए कदमों की चाल में फंसी, खुद दिल्ली पुलिस ही अदालतों में जाकर लड़खड़ाती नजर आने लगी.
दिल्ली पुलिस ने जिस अंधाधुंध गति से आरोपियों को पकड़ना शुरू किया. कमजोर अदालती दस्तावेजों और ढीली पुलिसिया जांच का हवाला देकर, अदालतों ने आरोपियों का उसका लाभ देना शुरू कर दिया. आरोपियों को लाभ ही नहीं दिया वरन्, अदालतों ने ऐसा करते वक्त पुलिसिया पड़तालों पर भी तीखी और भरी अदालत में तमाम टिप्पणियां तक कर डालीं. यह अलग बात है कि, उन खरी-खरी अदालती टिप्पणियों में से तमाम को 'अदालत ने ऑन रिकार्ड' नहीं लिया.
अदालतों के सामने खाकी की वो 'बालहठ'
इस बार फिर दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली पुलिस को खुलेआम कहिए या फिर भरी अदालत में फिर से घेर लिया. इस बार पेंच फंसा है बीते साल (फरवरी 2020 में) उत्तर पूर्वी दिल्ली जिले में सांप्रदायिक दंगों से जुड़े मुकदमे की ढीली पुलिसिया तफ्तीश पर. दिल्ली की यह अदालत उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों के मुकदमों की सुनवाई कर रही है. कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को आड़े हाथ लेकर खुलेआम कह दिया कि वो (दिल्ली पुलिस), जांच में ढुलमुल रवैया अपना रही है. पुलिस एक के बाद एक अतिरिक्त चार्जशीट कोर्ट में दाखिल करती जा रही है. पूरक आरोप-पत्र (सप्लीमेंट्री चार्जशीट) जांच पूरी किए बिना ही अदालत में लाकर दाखिल कर दिए जा रहे हैं. ऐसे में मुकदमों की सुनवाई को किसी भी कीमत पर आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है. मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अरुण कुमार गर्ग ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को ऐसे मामलो में कानूनन उचित कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए. ताकि दंगों के इन मुकदमों की जांच समय पर पूरी किया जाना सुनिश्चित किया जा सके. इससे पहले अदालत 1 सितंबर 2021 को भी इसी तरह से दिल्ली पुलिस को आड़े हाथ लेकर हड़का चुकी थी.
'हाथ खड़े' कोर्ट ने किए, पसीना पुलिस को आया
कोर्ट ने फटकार लगाते हुए यहां तक कह दिया कि, "पुलिस के ऐसे रवैये से कोर्ट मामलों की सुनवाई को आगे बढ़ाने में असमर्थ है." भजनपुरा व गोकुलपुरी थाना क्षेत्र में हुए दंगों के मुकदमों की सुनवाई कर रही कोर्ट ने आगे कहा कि, ऐसे मामलों में जांच का निष्कर्ष समयबद्ध तरीके से सुनिश्चित किया जाए. जांच एजेंसी (दिल्ली पुलिस) की निष्क्रियता के कारण सुनवाई तक मुकदमे नहीं पहुंच पा रहे हैं. जबकि अदालत, डीसीपी व उससे ऊपर पद (रैंक) तक पर्यवेक्षण अधिकारियों सहित जांच एजेंसी (दिल्ली पुलिस) के ढुलमुल रवैये के कारण अन्य दंगों के मामलों के साथ-साथ गुण-दोष के आधार पर मामले को आगे बढ़ाने में असमर्थ है. लिहाजा ऐसे में पूरा मामला दिल्ली पुलिस आयुक्त के पास भेजना जरूरी है. ताकि न्यायालय द्वारा दिए गए समय के भीतर अन्य दंगों के मामलों की जांच को भी समयबद्धता के साथ सुनिश्चित किया जा सके.
खाकी को मुंसिफ की हर बार फटकार की 'रार'
कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की संबंधित टीम को आड़े हाथ लेकर चेतावनी देते हुए आगे कहा, 'संबंधित मामले में पुलिस को तीन सप्ताह के अंदर अनुपूरक आरोप पत्र (सप्लीमेंटरी चार्जशीट) कोर्ट में हर हाल में दाखिल करने का समय दिया जाता है. अगर पुलिस ऐसा कर पाने में नाकाम रही तो कोर्ट मामले की सुनवाई शुरू कर देगी.' यहां उल्लेखनीय है कि इससे पहले, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (एडिश्नल डिस्ट्रिक्ट सेशन जज) विनोद यादव भी दिल्ली दंगों से संबंधित मामलों की जांच के तरीके को लेकर, दिल्ली पुलिस को आड़े हाथ लेकर फटकार लगा चुके हैं. ऐसे में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि, बार-बार की फटकार से भले ही 'खाकी' (दिल्ली पुलिस) हार न माने. मुंसिफ (जज) ने मगर भरी अदालत में दो टूक उसे फिर सबकुछ खुलेआम तरीके से समझा दिया है."


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