कैप्टन पर से उठे भरोसे के बाद

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे कद्दावर और वरिष्ठ नेता से मुख्यमंत्री पद छीनते हुए कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को कोई गौरव हासिल नहीं हुआ है

Update: 2021-09-19 15:36 GMT

विनोद शर्मा। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे कद्दावर और वरिष्ठ नेता से मुख्यमंत्री पद छीनते हुए कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को कोई गौरव हासिल नहीं हुआ है। कांग्रेस पार्टी ने पंजाब विधानसभा में भले ही अपनी विधायी ताकत को बरकरार रखा हो, लेकिन लोकप्रियता के पैमाने पर यह पार्टी कुछ पायदान नीचे जरूर उतर गई है। वैसे कोई भी ताउम्र मुख्यमंत्री बने रहने की ख्वाहिश नहीं रख सकता और कैप्टन अमरिंदर सिंह अब 79 साल के हो चुके हैं। उनके पास दो कार्यकालों में साढ़े नौ साल तक पंजाब की कमान रही है। कुछ समय पहले ही यह जाहिर हो गया था कि उन्हें अब नेहरू-गांधी परिवार का विश्वास और समर्थन हासिल नहीं है, मगर उनकी विदाई पर मुहर तब लगी, जब उन्हें अंधेरे में रखते हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) ने चंडीगढ़ में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुला ली।

इस सियासी चाल में शामिल इशारा साफ और पुरजोर था। कैप्टन को बदलाव की गतिविधियों से बाहर रखा गया, ताकि उन्हें विधायकों के बीच समर्थन जुटाने के लिए समय न मिल सके। कैप्टन ने अपनी पार्टी द्वारा दिए गए इस घाव को उन तमाम घावों में सबसे निर्मम माना, जो पार्टी ने उन्हें नवजोत सिंह सिद्धू के साथ खींचतान की वजह से दिए हैं। कैप्टन की सलाह के खिलाफ जाकर ही नवजोत सिंह सिद्धू को कांग्रेस राज्य इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। मध्य रात्रि में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाने का कदम एक तरह का तख्ता पलट ही था, जिसने इस बात की एकदम पुष्टि कर दी कि नेतृत्व का कैप्टन अमरिंदर सिंह पर से विश्वास उठ गया है। सभी मौजूदा संकेतों को देखकर यही लगता है कि वह नेतृत्व की योजनाओं के मोर्चे पर पार्टी के लिए गैर में तब्दील हो गए। यही वजह है कि वह कांग्रेस विधायक दल (जिसके वह नेता थे) में शर्मिंदा होने के बजाय मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा सौंपने के लिए राजभवन पहुंच गए। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति किसी भी तरह के विरोध से बचना चाहती थी, इसलिए विधायकों को दिए गए निर्देश में साफ कर दिया गया था कि कांग्रेस विधायक दल की बैठक के लिए पार्टी कार्यालय पहुंचते समय रास्ते में कहीं भी पड़ाव नहीं डालना है। यह संदेश इसलिए स्पष्ट रूप से दिया गया था, क्योंकि मुख्यमंत्री ने कथित तौर पर अपने फार्महाउस में बैठक बुला रखी थी। फिर भी राज्यपाल को इस्तीफा सौंपने जाने से पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह से मंत्रियों और पार्टी सांसदों के अलावा दो दर्जन से अधिक विधायकों ने मुलाकात की। अलविदा कहते हुए, उन्होंने विधायकों से विधायक दल की बैठक में भाग लेने के लिए कहा। शायद इसी वजह से विधायक दल की बैठक में 80 विधायकों में से 78 की उपस्थिति दर्ज हुई और विधायक दल ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को राज्य में कैप्टन का उत्तराधिकारी चुनने के लिए अधिकृत कर दिया।
हमेशा नेहरू-गांधी परिवार के प्रति सम्मान का व्यवहार करने वाले कैप्टन ने उल्लेख किया है कि हाल के सप्ताहों में नई दिल्ली में जिन जांचों का उन्होंने सामना किया, उससे उन्हें 'अपमान' महसूस हुआ। उन्हें विधायक दल की बैठक के बारे में अंधेरे में रखकर मानो जले पर नमक छिड़का गया। पार्टी की आंतरिक उथल-पुथल के बीच, जो अक्सर खुलेआम हो जाती थी, कैप्टन अपने दोस्तों और सलाहकारों से कहते थे कि यदि नेतृत्व चाहे, तो वह सुलह के साथ पीछे हटने को तैयार हो जाएं। अपने फार्महाउस में सुशोभित चित्रों की ओर इशारा करते हुए वह कहते थे, सार्वजनिक जीवन में पांच दशक का अच्छा समय गुजारने के बाद मुझे कोई पछतावा नहीं है और संतुष्टि के साथ पीछे मुड़कर देखने के लिए बहुत कुछ है। अपने साथ हुए व्यवहार से परेशान होने के बावजूद कैप्टन ने नेहरू-गांधी परिवार को कभी बुरा-भला नहीं कहा। स्वर्गीय राजीव गांधी के साथ अपनी दोस्ती की यादों को ताजा करते हुए उन्होंने एक बार इस लेखक से कहा था, 'मैं सोनिया गांधी या उनके बच्चों के खिलाफ कभी नहीं जाऊंगा, जो मुझे अंकल कहते हैं।' मेरा आकलन है, यदि सोनिया गांधी सीधे इस्तीफा देने के लिए कहतीं, तो कैप्टन दे देते, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कैप्टन ने मुझे वे संदेश भी दिखाए थे, जो उन्होंने प्रियंका गांधी के साथ अपने विशाल फार्महाउस में लगे पौधों और फूलों की उत्तम किस्मों के बारे में साझा किए थे और कहा था, 'वह अपना जवाब देने में बहुत तेज हैं।'
ऐसे में, किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि आखिर संवाद की कड़ी कैसे टूटी, जिसका ऐसा दुखद परिणाम हुआ। कुछ मामलों में उनकी कार्यशैली की वजह से वांछित नतीजे नहीं मिले, जिससे भले ही लोगों और विधायकों के एक वर्ग के बीच उनकी लोकप्रियता घट गई थी, लेकिन समस्या हल के योग्य थी। अब यह धारणा कि उनके प्रमुख आलोचक नवजोत सिंह सिद्धू के हित में उन्हें बलिदान कर दिया गया है, कांग्रेस पार्टी की जमीन खराब कर सकती है। कम से कम विधानसभा चुनावों से पहले के बचे हुए समय में सिद्धू को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं करना चाहिए। गुस्सा शांत करने के लिए पंजाब के नए मुख्यमंत्री का किसी भी गुट से जुड़ाव नहीं होना चाहिए। कांग्रेस हाईकमान इसी कोशिश में दिखता है। जहां तक नवजोत सिंह सिद्धू का सवाल है, तो उनके साथ हमेशा से समस्याएं रही हैं। वह ऐसे नेता हैं, जो अपने ही नगाड़े पर मार्च करते हैं। वह लोक-लुभावन बोलने वाले नेता हैं, ऊर्जावान प्रचारक हैं, लेकिन पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर चलने और सरकार चलाने में वह कितने कामयाब होंगे, यह देखने वाली बात होगी। क्या सिद्धू में नेतृत्व की वह क्षमता है? क्या वह समावेशी नेतृत्व दे सकते हैं? लोग अभी भी याद करते हैं, क्रिकेटर सिद्धू क्रिकेट कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन से लड़कर टीम छोड़कर स्वदेश लौट आए थे। भाजपा में रहते हुए लोकसभा चुनाव में अरुण जेटली जैसे मजबूत नेता का प्रचार करने अमृतसर नहीं गए थे। बाद में लोकसभा चुनाव में सिद्धू को अमृतसर सीट पर जीत हासिल हुई, जिसमें मजीठा के लोगों के वोट का बड़ा योगदान था, तब सिद्धू ने कहा था, मैं अपनी चमड़ी का जूता बना दूं, तब भी मजीठा का कर्ज नहीं उतार सकता। वह इस तरह के अतिरेकी बयान के लिए भी जाने जाते हैं, अगर भविष्य में उन्हें मुख्यमंत्री बना भी दिया जाए, तो क्या वह पार्टी के लिए फायदेमंद नेतृत्वकर्ता साबित होंगे? यह एक बड़ा सवाल है, जिसका फैसला कांग्रेस नेतृत्व को किसी भी निर्णय से पहले करना पडे़गा।


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