यह सही है कि अमेरिका ने तोरा बोरा की पहाड़ियों की काफी खाक छानी लेकिन ओसामा बिना लादेन को उसने पाकिस्तान के एबटाबाद में ढूंढ कर मार गिराया तथा अपने स्वाभिमान की रक्षा की। 9/11 हमले के माध्यम से विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति के वजूद को ललकारा गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने ऐलान कर दिया ''जहां भी आतंकवाद बढ़ेगा उसे कुचलने में अमेरिका अपनी भूमिका निभाएगा। इधर अमेरिका प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था तो अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा आपस में मिल चुके थे। हर तरह के अस्त्र-शस्त्र इकट्ठे किए जा चुके थे। ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर उत्कर्ष पर थे और इस्लामिक आतंकवाद की जय-जयकार की जा रही थी। अमेरिकी हमले के 20 वर्षों में अफगानिस्तान में न तो राजनीतिक स्थिरता आई न ही शांति की बहाली हुई। बम के धमाकों से पूरा देश जर्जर हो गया। अमेरिका से बड़ी भूल यह हो गई कि इस हमले में उसने उस पाकिस्तान को अपना मित्र बनाया जो स्वयं आतंकवाद की खेती करता है।
अमेरिका इस मित्रता के बदले पाकिस्तान पर डालर बरसाता रहा और पाकिस्तान द्वारा अमेरिकी डालरों से आतंकवाद ही फैलाया गया। अफगानिस्तान की भौगोलिक परिस्थितियों में अमेरिकी सैनिकों को युद्ध लड़ने का अनुभव भी नहीं था। अमेरिकी बलों की नाकामी में पाकिस्तान का बड़ा हाथ रहा। कुछ दिन पहले अमेरिकी और नाटो सेना ने बगदाद हवाई अड्डा अफगान बलों को सौंपा। अब पाकिस्तान अमेरिकी सैनिकों की वापसी के लिए हवाई मार्ग दे रहा है। अमेरिका सैनिकों की गाडि़यां और सैन्य उपकरण कराची बंदरगाह से वापस भेजे जा रहे हैं। कुल मिलाकर अमेरिका को अफगानिस्तान में विफलता ही मिली। यद्यपि अमेरिकी सैनिकों की वापसी तालिबान से समझौते के तहत ही हाे रही है लेकिन इसी बीच वहां तालिबान का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। विदेशी सेनाओं की वापसी से उत्साहित तालिबान ने कई जिलों पर कब्जा कर लिया है, इसके चलते देश में फिर से गृह युद्ध की आशंका पैदा हो गई है। अफगानिस्तान को लेकर भारत की चिन्ताएं बहुत बढ़ चुकी हैं। पिछले कुछ वर्षों से भारत सरकार ने अफगानिस्तान के प्रतिनिर्माण से जुड़ी परियोजनाओं में लगभग तीन अरब अमेरिकी डालर का निवेश किया हुआ है। संसद से लेकर सड़क और बांध बनाने तक कई परियोजनाओं में सैंकड़ों भारतीय पेशेवर काम कर रहे हैं। भारतीय अब डर-डर कर रह रहे हैं।
परिस्थितियों को देखते हुए भारत को अफगानिस्तान में अपनी भूमिका बदलनी पड़ी है। अब भारत को तालिबान से बातचीत करनी पड़ रही है। अफगानिस्तान शांति वार्ता के कई दौर हो चुके हैं। यद्यपि तालिबान का कहना है कि वे विदेशी नागरिकों को किसी तरह का नुक्सान नहीं पहुंचाएंगे लेकिन जमीनी हकीकत है कि तालिबान किसी एक सेना का नाम नहीं है, ये उन तमाम हथियारबंद चरमपंथी गुटों का साझा नाम है जो अपने हितों के आधार पर रणनीति तय करते हैं। इनमें से कई गुट पाकिस्तान की खुफिया एजैंसी आईएसआई के इशारे पर काम करते हैं। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान में उसकी मित्र सरकार बने और भारत की वहां कोई मौजूदगी न हो। आने वाला समय भारत के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। बड़ा खतरा यह है कि अगर अफगानिस्तान में तालिबान हावी हो जाता है तो वहां भेजे गए पाकिस्तान लड़ाकों के पास कोई काम नहीं रहेगा। पाकिस्तान उन आतंकियों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है। वैसी स्थिति में कश्मीर और देश के अन्य हिस्सों में आतंकवाद के बढ़ने का खतरा पैदा हो जाएगा। वैसी स्थिति में कश्मीर और देश के अन्य हिस्सों में आतंकवाद के बढ़ने का खतरा पैदा हो जाएगा। भारत को अपने कदम बहुत सतर्कतापूर्ण ढंग से उठाने होंगे। ऐसा नहीं है कि तालिबान भारत के महत्व को नहीं समझता। तालिबान का कहना है कि वे और भारत साथ-साथ चल सकते हैं। भविष्य में क्या होता है, अभी समय के गर्भ में है।