तस्लीमा नसरीन।
अफगानिस्तान में तालिबान के राज का असर बांग्लादेश तक में देखा जा रहा है। तमाल भट्टाचार्य नाम के एक बंगाली बाबू अफगानिस्तान के एक स्कूल में पढ़ाते थे। वतन वापसी के समय तालिबान से उनका आमना-सामना हुआ। तालिबान के कथित मधुर व्यवहार से मुग्ध होकर अब वह उन्हीं के गुण गा रहे हैं। तालिबान के लड़ाके चुनाव जीतकर नहीं, बल्कि बंदूक की नली से सत्ता में आए हैं।
अब ये लड़ाके वहां 1,400 साल पुराना शरिया कानून लागू करेंगे। शरिया कानून के तहत किस तरह पत्थर मारकर लड़कियों की हत्या की जाती है, औरतों को बुर्के के अंधेरे में कैद किया जाता है, लड़कियों की पढ़ाई और रोजगार का रास्ता बंद किया जाता है, उस बंगाली बाबू को निश्चित तौर पर इन सबके बारे में पता होगा। फिर वह किस आधार पर कह रहे थे कि बीती सदी के नौवें दशक के
तालिबान और आज के तालिबान में फर्क है?
तालिबान के रवैये में वह फर्क देख रहे हैं, पर जिस शरिया कानून के जरिये वे सरकार चलाएंगे, वह कानून तो नहीं बदला है। अफगानिस्तान की जेलों से लड़ाकों को रिहा किया गया है। तालिबान की नई सरकार में इन लड़ाकों की बड़ी भूमिका है। तालिबान की ताकत देखकर अनेक देशों के लड़ाके तालिबान की तरह सत्ता पाने के सपने देख रहे हैं। मैंने सुना है कि बांग्लादेश में अनेक लोग तालिबान द्वारा सत्ता दखल करने पर खुशियां मना रहे हैं।
इनमें से अनेक लोग ऐसे हैं, जो अफगानिस्तान जाकर तालिबान से सैन्य प्रशिक्षण लेकर आए हैं। मेरा मानना है कि अब और भी अधिक संख्या में बांग्लादेशी अफगानिस्तान जाएंगे, ताकि लौटकर वे बांग्लादेश को तालिबान राज जैसा बना सकें। बांग्लादेश की सरकार अगर अब भी सतर्क न हुई, तो आने वाले दिन खतरनाक होने वाले हैं। सत्ता दखल करने के बाद ही तालिबान ने साफ कह दिया था कि लड़कियों को नौकरी करने की जरूरत नहीं है।
उन्हें घर से बाहर निकलने की भी जरूरत नहीं है। घर से निकलते समय उनके साथ पुरुष अभिभावक का होना जरूरी है। तीस पार की एक अफगान महिला ने बताया कि खाने की कोई चीज बाजार से खरीद कर लाने के लिए उसे चार साल के अपने बेटे को साथ ले जाना पड़ा। उस दिन चार साल का वह अभिभावक अगर साथ न होता, तो अकेले बाहर निकलने के जुर्म में उस महिला को चाबुक की मार खानी पड़ती।
वहां लड़कियों की कम उम्र में शादी करा देने के लिए भी तालिबान दबाव बना रहे हैं। यह एलान करवाया जा रहा है कि अट्ठारह से अधिक उम्र की कोई लड़की कुंवारी न रहे। अट्ठारह से कम उम्र में शादी करा देने का मतलब है लड़कियों के जीवन से जुड़ी तमाम संभावनाओं का गला घोंट देना। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से जहां लोग नाराज और चिंतित हैं, वहीं इस घटनाक्रम से खुश होने वालों की संख्या भी कम नहीं है।
भारत में भी अनेक मुसलमान काबुल पर तालिबान के कब्जे से खुश हैं। लेकिन विरोधाभास देखिए कि यही लोग भारत में हिंदूवादी कट्टरता का तीखा विरोध करते हैं। ये चाहते हैं कि भारत गणतंत्र बना रहे, इसका धर्मनिरपेक्ष स्वरूप कायम रहे। लेकिन मुस्लिम देशों को लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए या नहीं, इस बारे में उनकी कोई अपेक्षा नहीं है।
ये गैरमुस्लिम देशों में आधुनिकता की उम्मीद करते हैं, लेकिन चाहते हैं कि मुस्लिम देश शरिया कानूनों से चलें। आचरण के इस दोहरेपन पर इन्हें शर्म भी नहीं आती। पिछले महीने तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा कर लेने के बाद से ही यह स्पष्ट है कि उनमें और बीस साल पहले के तालिबान में कोई फर्क नहीं है। बीस साल पहले भी तालिबान ने संगीत को प्रतिबंधित किया था।
इस बार भी काबुल के राष्ट्रीय संगीत इंस्टीट्यूट पर ताला लगा हुआ है। कुछ दिन पहले ही इस इंस्टीट्यूट में घुसकर तालिबान के लड़ाकों ने तमाम वाद्ययंत्र तोड़ डाले। तालिबान के पिछले दौर में संगीत से जुड़े अनेक कलाकारों को धमकियां दी गई थीं, उनका अपहरण किया गया था, कुछ कलाकारों की जान भी ले ली गई थी। तब राष्ट्रीय संगीत इंस्टीट्यूट के एक कार्यक्रम के दौरान आत्मघाती हमला हुआ था।
उस कार्यक्रम में मौजूद जो लोग आज भी जिंदा हैं, वे शायद ही कभी उस दिन के आतंक से मुक्त हो सकेंगे। जिन लोगों के घर में वाद्ययंत्र हैं, वे बेहद डरे हुए हैं, क्योंकि तालिबान के लोग घर-घर तलाशी ले सकते हैं। तालिबान का यही डर अफगान नागरिकों को अफगानिस्तान छोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है। इधर तालिबान को इस बात का क्षोभ है कि अमेरिका अफगान इंजीनियरों को अपने यहां ले जा रहा है।
लेकिन ऐसा तो है नहीं कि अमेरिकी घर-घर जाकर अफगान इंजीनियरों को अपने यहां ले जा रहे हैं। अफगान इंजीनियर खुद ही डर, क्षोभ और आतंक से अफगानिस्तान छोड़ रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि तालिबान के राज में देश में विज्ञान की कोई कीमत नहीं है। जहां सिर्फ धार्मिक कट्टरता का महत्व हो, वहां इंजीनियर या वैज्ञानिक भला क्यों रहना चाहेंगे?
शिक्षित अफगान महिलाओं का मानना है कि जल्दी ही तालिबान का महिलाओं के खिलाफ अभियान तेज हो सकता है। अफगान सेना से जुड़ी महिला पायलट नीलोफर रहमानी का कहना है कि आने वाले दिनों में तालिबान लड़ाके शिक्षित और आंदोलनकारी महिलाओं को काबुल स्टेडियम में ले जा सकते हैं और पत्थर मार-मारकर उनकी हत्या कर सकते हैं। ऐसे में, बेहतर तो यही होगा कि दुनिया के तमाम देश तालिबान को मान्यता न देने के मुद्दे पर एक हों।
तालिबान दरअसल शुरू से ही आतंकियों का संगठन है। लिहाजा इससे किसी भी तरह का राजनीतिक या कूटनीतिक रिश्ता रखने का मतलब है तालिबान की कट्टरता और क्रूरता को स्वीकार कर लेना। इसलिए तालिबान के खिलाफ समूची मानवता को, पूरे विश्व को एकजुट होना पड़ेगा। इसमें महिला संगठनों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए, क्योंकि तालिबान के निशाने पर मूलतः महिलाएं ही हैं।