घृणा और प्रतिशोध का नया दौर
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की चुनावी रैली के दौरान हत्या स्तब्ध करती है
शशि शेखर
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की चुनावी रैली के दौरान हत्या स्तब्ध करती है। वह हंसमुख और मिलनसार राजनेता थे। उन पर भला ऐसा हमला क्यों हुआ? हमलावर तेत्सुआ यामागामी कभी नौसेना में हुआ करता था। उसमें इतनी नफरत क्यों और कहां से आई? जापान 'गन-कल्चर' से खुद को दूर रखता आया है। उसकी धरती पर रचा गया यह कांड गहरी साजिश के साथ घृणा के उस सैलाब की ओर इशारा करता है, जिसने संसार भर में समाज और सरकारों के बीच जानलेवा अलगाव पैदा कर दिया है।
हमारा देश भी इससे अछूता नहीं है और यहीं के उदाहरण से चर्चा शुरू करता हूं। पिछले हफ्ते गाजियाबाद की एक रिहायशी सोसायटी में अलस्सुबह छत्तीसगढ़ पुलिस के जवान एक प्रख्यात चैनल के एंकर को गिरफ्तार करने पहुंचे। वे अपने काम को अंजाम दे पाते, इससे पहले संबंधित थाने की पुलिस वहां पहुंचकर उनसे सवाल-जवाब करने लगती है। देखते-देखते हाथापाई की नौबत आ जाती है। धक्का-मुक्की का यह दौर जारी था कि नाटकीय अंदाज में गौतमबुद्धनगर पुलिस की एंट्री होती है। वह उस एंकर को अपने साथ ले जाती है। गजब यह कि अखबारों में छपा, नोएडा पुलिस ने पत्रकार के यहां दबिश की रवानगी बिना प्रथम सूचना दर्ज किए कर डाली थी।
इसके बाद नोएडा के सेक्टर 20 थाने में दिन भर 'टेक्निकल' वाद-विवाद चलता है। छत्तीसगढ़ के पुलिसकर्मियों के पास गिरफ्तारी वारंट था, जबकि गौतमबुद्धनगर पुलिसकर्मियों का कहना था कि हमारे पास जी न्यूज प्रबंधन द्वारा लिखाई गई शिकायत है, जिसमें हम संबंधित 'एंकर' को संदिग्ध मान रहे हैं। बाद में उस एंकर को गिरफ्तार कर थाने से ही जमानत पर रिहा कर दिया गया, पर वह छत्तीसगढ़ पुलिस के हाथ आने के बजाय गुम हो जाता है। उसके अधिकारी रायपुर की अदालत में इस एंकर को फरार बताते हुए कुर्की वारंट जारी करने की गुहार लगा देते हैं। वे गाजियाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से भी उनके कर्मचारियों की औपचारिक शिकायत दर्ज कराते हैं। चूहे-बिल्ली का यह खेल अगले तीन दिन तक जारी रहता है। शुक्रवार की दोपहर आला अदालत ने रोहित रंजन की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी और रायपुर से आए दस्ते को हाथ मलते हुए लौटना पड़ा।
एंकर पर आरोप है कि उसने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के एक बयान को गलत संदर्भ में पेश किया। हालांकि, चैनल ने अगले दिन खुद को घिरता देख माफी मांग ली थी, पर मामला ठंडा नहीं हुआ। इस समूचे प्रकरण ने उन प्रश्नों को पुन: धार दे दी है, जो कई सालों से रह-रहकर उभरते आए हैं। क्या पुलिस भी अब तेरी-मेरी हो गई है? कानून का अनुपालन क्या अब सत्तारूढ़ पार्टी के हक-हुकूकों के तहत किया जाएगा?
इन सवालों पर चर्चा इसलिए जरूरी है, क्योंकि इस कार्यशैली से संविधान की सुरक्षा और उसके प्रति लोगों की निष्ठा खतरे में पड़ रही है। आपको याद होगा। कुछ हफ्ते पहले इसी तरह का तमाशा दिल्ली में दिखा था, जब पंजाब और दिल्ली की पुलिस भारतीय जनता युवा मोर्चा के एक पदाधिकारी की गिरफ्तारी को लेकर आमने-सामने थी। बाद में पंजाब पुलिस को हरियाणा में रोक लिया गया और उन्हें 'तकनीकी आधार' पर उस नेता को रिहा करना पड़ा। मामला अदालत के विचाराधीन है और नेता जी दिल्ली में स्वतंत्र घूम रहे हैं। मैं चाहूं, तो ऐसी तमाम घटनाओं की याद दिला सकता हूं, जब राजनीतिक कारणों से एक राज्य के पुलिसकर्मी दूसरे राज्य के वर्दीधारियों से टकरा गए या खुल्लम-खुल्ला केंद्रीय एजेंसियों के सामने जा खडे़ हुए।
क्या इससे भारत के संघीय ढांचे को खतरा नहीं पैदा हो रहा?
यह मुद्दा तब और गंभीर हो जाता है, जब हम पत्रकारिता के साथ न्यायपालिका पर हो रहे हमलों को तेज से तेजतर होता पाते हैं। पूर्व भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा पर एक न्यायमूर्ति द्वारा की गई कठोर टिप्पणी को लेकर तरह-तरह की बातें सोशल मीडिया पर तूफान मचाए हुए हैं। न्यायपालिका के खिलाफ पहले भी बोला और लिखा जाता रहा है, पर वह असहमति का सूचक होता था। उग्र आलोचना और नियोजित 'कैंपेनिंग' का यह दौर अब तक अजनबी था।
भारत ही नहीं, समूची दुनिया इस समय नफरत के इसी कारोबार से लहूलुहान है। सोशल मीडिया के महाकाय कॉरपोरेट जब फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और ऐसे अन्य प्लेटफॉर्म लेकर सामने आए, तब कहा गया था कि इससे दुनिया एक-दूसरे के करीब आएगी। शुरू में ऐसा हुआ भी, पर बाद में ये प्लेटफॉर्म बेलगाम हो गए। प्यू रिसर्च सेंटर ने पिछले साल दावा किया था कि 41 फीसदी अमेरिकी कभी न कभी ऑनलाइन उत्पीड़न से वाबस्ता हुए हैं। 18 से 45 साल के व्यक्तियों के बीच हुए एक अन्य अध्ययन में 83 प्रतिशत लोग नफरत के शिकार बताए गए। नस्ल, राष्ट्रीयता, धर्म, लिंग, शारीरिक विकार और विस्थापन जैसे संवेदनशील मुद्दे चरमपंथी विचारों और समूहों की भेंट चढ़ चुके हैं। 'व्हिसलब्लोअर' फ्रांसेस हौगेन ने ब्रिटिश संसदीय दल के समक्ष लगभग दो साल पहले दावा किया था कि फेसबुक (अब मेटा) अपने मुनाफे के लिए घृणा के इस दौर को हवा दे रहा है। भारतीय मूल के इंजीनियर अशोक चंदवने ने कंपनी को अलविदा कहते हुए लिखा था, 'मैं अब ऐसे संगठन में योगदान नहीं दे सकता, जो अमेरिका और दुनिया भर में नफरत को बढ़ावा दे रहा है।'
हालांकि, मेटा ने इस दावे को नकारते हुए कहा है कि हम तो जहर बुझी सामग्री की सफाई का काम करते हैं। उसके अनुसार, सिर्फ भारत में पिछली मई में 1.75 करोड़ पोस्ट इसलिए हटा दी गई, क्योंकि उनमें आपत्तिजनक सामग्री पाई गई। आप जानते ही होंगे, लगभग तीन अरब लोग हर माह मेटा प्लेटफॉर्म का थोड़ा या बहुत इस्तेमाल करते हैं।
कोई कुछ भी कहे, पर यह सच है कि सोशल मीडिया अपनी राह से भटक गया है। इसके पीछे सुनियोजित प्रयास हैं, क्योंकि समूची दुनिया में अब ताजो-तख्त का फैसला जोड़ने के बजाय तोड़ने के मुद्दे पर किया जाने लगा है। हुकूमतें और हुक्मरां इसके जरिये लोगों का ध्यान असली मुद्दों से हटाने में कामयाब होते हैं। संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम की ताजा रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2019 के बाद से धरती पर 81.10 करोड़ लोग खाली पेट सोने को मजबूर हैं। हर रोज 25 हजार इंसान भूख से तड़प-तड़पकर जान दे देते हैं। यही नहीं, 45 देशों के पांच करोड़ से अधिक लोग अकाल के कगार पर हैं। इस बदहाली का एक जिम्मेदार नफरतों का महाकाय कारोबार भी है। एक रिपोर्ट के अनुसार, सन 2017 में भारतीय अर्थव्यवस्था को इससे नौ फीसदी का नुकसान उठाना पड़ा, जो प्रति-व्यक्ति 40 हजार रुपये से अधिक बैठता है। हो सकता है, कुछ लोग इन आंकड़ों से असहमत हों, पर यकीनन कोविड ने इस मार को और मारक बना दिया है। क्या आप सोशल मीडिया पर ऐसे मुद्दों पर सार्थक बहस देखते-पढ़ते-सुनते हैं? यह तथ्य तथाकथित 'मेनलाइन मीडिया' को भी ठहरकर सोचने की दावत देता है।
यही वजह है कि दूसरे महायुद्ध के बाद जिन उच्चतम लोकतांत्रिक आदर्शों ने जोर पकड़ा था, वे ऐसी हरकतों से शिथिल होने लगे हैं। राजनेताओं के साथ पत्रकार और न्याय क्षेत्र से जुड़े लोग भी इस दौरान विचलन का शिकार बनते रहे हैं। किसी सयाने ने कहा था कि अगर कोई थप्पड़ मारे, तो उस पर नाराज होने के बजाय अपनी कमजोरियों पर गौर करो। न्यायमूर्तियों की न्यायकर्ता जानें, पर क्या हम पत्रकार ऐसा कर रहे हैं?
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