काशी के एक दलित आरती अर्चक और पूर्वांचल में बदलती हुयी दलित राजनीति
वाराणसी के इतिहास में कई ऐसे नाम हुए हैं जिन्होंने अपने अपने क्षेत्र में न सिर्फ धारा के विपरीत जाकर काम किया
उत्पल पाठक.
वाराणसी के इतिहास में कई ऐसे नाम हुए हैं जिन्होंने अपने अपने क्षेत्र में न सिर्फ धारा के विपरीत जाकर काम किया है बल्कि रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ने की मिसाल भी कायम की है, संत कबीर, रविदास हो या आयुर्वेद के आचार्य चरक इन सब में अगर कुछ एक जैसा है तो वह है इनकी जिजीविषा और समाज की मुख्य धारा से हटकर कुछ ऐसा अलग करना जो नज़ीर बन गया.
गेरुए कपड़ों में रहने वाले रामधनी राम उर्फ़ लालबाबा दलित हैं और खुद को गृहस्थ संत मानते हैं, इनकी विशेषता बस इतनी सी है कि है ये एक ऐसा काम करते हैं जिसे करना अब तक गैर ब्राम्हणों के लिये वर्जित माना गया है. रामधनी वाराणसी के अनेक घाटों में से एक अलग थलग पड़े घाट पर होने वाली लघु गंगा आरती के एकमात्र अर्चक हैं या स्पष्ट शब्दों में कहें तो यही इस आरती के आयोजक भी हैं और यही इसके एकमात्र अर्चक भी हैं. इस काम में उन्हें उनकी पत्नी और पुत्री की मदद भी मिलती है.
रविदास घाट पर संध्या आरती
वाराणसी में गंगा के तट पर कतारबद्ध घाटों की श्रृंखला में दक्षिण दिशा में स्थित है रविदास घाट, लगभग डेढ़ दशक पहले प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने इस घाट और इसके पीछे एक पार्क का निर्माण करवाया था इस घाट से शेष घाटों का संपर्क मार्ग नहीं बना है और यह घाट वाराणसी के घाटों की श्रंखला से काफी दूर है, लिहाजा यहां कभी वैसे उत्सव और आयोजन नहीं होते जैसे वाराणसी के अन्य घाटों पर अक्सर होते रहते हैं. इस घाट का इस्तेमाल मुख्यतः सरकारी आयोजनों के लिये कभी कभी होता है अन्यथा या घाट सुनसान ही रहता है, इस घाट के आसपास सफाई कर्मियों की मलिन बस्तियां हैं और कुछ यदुवंशी समाज के लोगों के घरों के अलावा समेत बिहार से आये मजदूरों एवं तीर्थ पुरोहितों के निवास हैं.
रामधनी राम वर्ष 2011 से नित्य रविदास घाट पर संध्या आरती करते हैं, कोविड लॉकडाउन के कारण बीच में कुछ महीनों के लिये इन्हे आरती बंद करनी पडी थी क्यूंकि इनके पास दैनिक आरती के संसाधन जुटाने के लिये पैसे नहीं थे , लेकिन लाकडाउन खत्म होने के बाद पिछले एक साल से वे निरंतर हर रोज़ शाम को अकेले आरती करते हैं. इनकी आरती में वाराणसी के अन्य घाटों पर होने वाली आरती जैसा कोई वैशिष्ट्य नहीं होता , न ही कतारबद्ध अर्चक, न ही आरती का संगीत और न ही ज्यादा घंटे घड़ियाल, इस लघु आरती में संत रविदास और मां गंगा की संयुक्त रूप से आरती की जाती है और यह सब कुछ रामधनी अकेले ही करते हैं. आरती के निमित्त इस्तेमाल होने वाली हर वस्तु रामधनी स्थानीय मोहल्लों में भिक्षाटन करके जुटाते हैं.
रामधनी राम की कहानी
रामधनी का विवाह 18 वर्ष की आयु में हो गया था लेकिन जब इनकी अवस्था 20 वर्ष की हुई तो इनके मन में वैराग्य और भक्तिभाव जाग गया और ये मीरजापुर के अपने मूल निवास स्थान सीखड़ से पूर्व दिशा की तरफ राबर्ट्सगंज चले गए और वर्षों तक रविदासी संतों की संगत में रहे और खेतिहर मजदूर बन कर जीवन यापन किया. विगत कुछ वर्षों से वे वाराणसी में रहते हैं और इसी घाट पर आरती करते हुए अपना जीवन बिता रहे हैं. रामधनी के पास वोटर आईडी भी है लेकिन कुछ दस्तावेजी कमियों की वजह से पिछले दो चुनावों में ये वोट नहीं डाल पाए जिसका इन्हे आज भी मलाल रहता है.
गौरतलब है कि वाराणसी के दशास्वमेध घाट, राजेंद्र प्रसाद घाट, अस्सी घाट, तुलसी घाट पर नित्य गंगा आरती सुबह शाम होती है , अन्य घाटों पर भी उत्सवों एवं त्योहारों पर गंगा आरती होती है. हर जगह आरती के अर्चक ब्राम्हण ही हैं. यहां तक कि श्मशान घाट (हरिश्चंद्र घाट ) पर डोम समाज द्वारा करवाई जाने वाली आरती के अर्चक भी ब्राम्हण ही हैं. ऐसे में एक दलित अर्चक का होना अपने आप में कौतूहल तो है ही लेकिन साथ ही ब्राह्मणवाद एवं जातिवाद को एक करारा तमाचा भी है. रामधनी के आरती करने से अब तक किसी को कोई तकलीफ भी नहीं हुयी, स्थानीय निवासी संजय शुक्ल का मानना है कि "रामधनी जी वर्षों से गंगा आरती की परम्परा का निर्वाहन कर रहे हैं और उनके दलित होने से किसी का कोई नुक्सान नहीं है."
बसपा, तब और अब
कभी कांग्रेस का धुर वोट बैंक रहा दलित समुदाय बाद में बामसेफ और बसपा के उद्भव के बाद संगठित हुआ और उसका सीधा लाभ लंबे समय तक बसपा को मिलता रहा. वर्ष 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बसपा को 206 सीटें मिली थीं और वोट प्रतिशत 30.43% था. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 27.4% वोट मिले और 21 लोकसभा सीटें मिलीं थी वर्ष 2012 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बसपा 80 सीटों पर सिमट गई और वोटों के प्रतिशत में 5% की गिरावट दर्ज हुयी जिसके बाद वोट प्रतिशत घटकर 25.9% पर आ गया. 2014 लोकसभा चुनाव में बसपा को 20% वोट मिले लेकिन एक भी सीट मिल पाई। वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा में बसपा 22.3% वोटों के साथ 19 सीटें ही मिल पाईं.
लेकिन आज बसपा के राजनैतिक पतन और पिछले तीन चुनावों में भाजपा द्वारा दलित वोटों में की गयी सेंध के बाद अभी के माहौल में दलित वोटों में बिखराव की संभावनाएँ बढ़ रही हैं. ऐसे में न सिर्फ सपा प्रमुख अखिलेश यादव नए तरीकों से नए दलित उम्मीदवारों को ढूंढ रहे हैं वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस के अंदरखाने में दलित प्रत्याशियों और विशेष रूप से दलित महिलाओं को प्रत्याशी बनाये जाने की अटकलों की बीच यह स्पष्ट है कि इस बार लगभग सभी प्रमुख दलों ने दलित वोटों में खेमेबंदी की योजना को आकार देना आरम्भ कर दिया है.
दलित वोटों की कवायद
हालांकि महानगरों में बैठकर उत्तर प्रदेश का राजनैतिक आकलन करने वाले जानकार आज भी मानते हैं कि प्रदेश में पासी, कुर्मी, नाई, कुम्हार, कहार, धोबी जैसी कई जातियां पिछली सरकारों की कृपा से उपजे यादव और जाटव एकाधिकार से नाराज हैं लिहाजा वे अब भी भाजपा के साथ हैं. लेकिन तयशुदा बात यह है कि भाजपा और संघ के अंदरखाने में दलित वोटों के बिखराव को रोकने की खासी कवायद चल रही है। इसका इशारा वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी की हालिया रैली में भी देखने को मिला जब उन्होंने सीरगोवर्धनपुर स्थित संत रविदास मंदिर के समीप 5.35 करोड़ की लगत से बने लंगर हॉल और सार्वजनिक सुविधा खंड का लोकार्पण किया. उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब के प्रस्तावित विधान सभा चुनावों और दोनों ही प्रांतों के करोड़ों रविदासी अनुयायियों को साधने के क्रम में इस लोकार्पण को महत्वपूर्ण माना जा रहा है.
ऐसे में भाजपा के पास पूर्वांचल के दलितों को धार्मिक मसले पर जोड़ने के लिये पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सतनामी विद्रोह जैसा कोई ऐतिहासिक महत्त्व वाला विषय नहीं है. लिहाजा पूर्वांचल में भाजपा को संत रविदास एवं भक्तिकाल में चंवर जाति के संतों एवं अन्य समाज सुधारकों को प्रतीकात्मक रूप से पूजे जाने एवं उनका स्थानीयकरण करते हुए दलित समुदाय से जुड़ने का विकल्प फिलहाल सबसे अधिक काम आ रहा है ऐसे में उत्तर भारत के बदलते सामाजिक वातावरण और हिंदुत्व के साथ हिन्दू धर्म के बीच के अंतर की पतली से लकीर के बीच भाजपा के लिये अगर कुछ अति संवेदनशील है तो वो है ;पूर्वांचल में दलित वोटों के बिखराव को रोकना.
पश्चिम और पूरब का अंतर
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तुलना में पूर्वांचल के दलित अतिशय गरीब हैं और उनके पास रोज़गार के नाम पर खेतिहर मजदूर बनने या पलायित होकर बड़े महानगरों में मजदूरी करने के सिवा कोई विकल्प नहीं मिल पाता है. ऐसे में गरीबी और संघर्ष के बावजूद उनकी राजनैतिक चेतना के कारण ही बसपा को लम्बे समय तक लाभ मिलता आया है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में दलित समुदाय खुद को सत्ता की मुख्य धारा से कटता हुआ देख रहा है. ऐसे में पश्चिम में अगर चंद्रशेखर और उनकी भीम आर्मी का भविष्य भले ही उज्जवल हो लेकिन पूर्वांचल में दलितों के बीच पैठ का एकमात्र सहारा भाजपा समेत अन्य सभी दलों के लिये धर्म के रास्ते ही बन पाएगा. शायद यही वजह है कि पिछले वर्ष फरवरी महीने में रविदास जयंती के उपलक्ष्य में वाराणसी के रविदास मंदिर में प्रियंका गांधी समेत सपा प्रमुख अखिलेश यादव एवं भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेताओं के अलावा चंद्रशेखर ने भी माथा टेका था और इस वर्ष भी फरवरी में रविदास मंदिर में सभी दलों के नेताओं की भीड़ चुनावी माहौल में दर्शन पूजन के बहाने दलित वोटों को साधने आएगी.