धुंधली नजर के पार एक किताबी दुनिया
धर्म के आधार पर हिंदुस्तान का बंटवारा या हिंदुस्तान की बर्बादी
वर्ष 1946 के अगस्त की 16 तारीख को कलकत्ता झुलस रहा था, कलकत्ते ने बर्बादी का ऐसा मंजर शायद हुगली के किनारे कंपनी राज की स्थापना के बाद अभी ही देखा था। कोई चार हजार लोग मारे गए थे, केवल 72 घंटे में दस हजार से ज्यादा लोग बेघर हो गए थे, अलग मुस्लिम देश की मांग के नाम पर यह तबाही मचाई गई थी। पढ़े-लिखे और किसी जमाने के सेक्यूलर मुहम्मद अली जिन्ना इस डायरेक्ट एक्शन के बाद (या उससे) वह नहीं रहे जो उससे पहले वह थे, जिन्ना ने चुन लिया था कि या तो धर्म के आधार पर हिंदुस्तान का बंटवारा या हिंदुस्तान की बर्बादी।
यह अलग बात है कि बंटवारे में एक अलग किस्म की बर्बादी दोनों मुल्कों को देखनी, झेलनी, सहनी पड़ी। यह उनके जीवन का एक शिफ्ट था। उनके किरदार का ग्राफ नया और अप्रत्याशित रूप ले रहा था। ठीक इसी तरह, महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन के धकेलने के बाद जो किरदार में बदलाव महसूस हुआ उसने दुनिया की तारीख बदली। यह बदलाव ऐसा था कि उसकी मिसालें दी जाती हैं।
यह याद करने का ताजा मंतव्य है कि कन्हैया कुमार को कांग्रेस में शामिल हुए ज्यादा दिन नहीं हुए, विनायक दामोदर सावरकर चर्चा में हैं। एक विचार (राजनीतिक) के साथ जीवन भर रहना प्रतिबद्धता या वफादारी तो है, पर यह भी है कि हमने नए खयालों को आने के लिए अपने जेहन की खिड़कियां भी बंद रखीं। मुझे लेखक के तौर पर ऐसे किरदार रचना अच्छा लगता है, जो अच्छे या बुरे जैसे भी लें, शिफ्ट लें, उनमें परिवर्तन हो, ठहरे हुए पानी न हों। गलत चुनकर ठोकर खाएं, नए जीवनानुभव हासिल करें। सही चुन लेंगे तो अच्छा है ही। वैसे सही कोई वस्तुनिष्ठ सच तो है नहीं, हर किसी के लिए अपना अलग सही या गलत होता है। उत्तर भारत में जब आर्य समाज की आंधी आई थी, लोग आर्य समाजी हुए, हम सब बराबर हैं, हम सब आर्य हैं के भाव में क्रातिकारी बदलाव दिखने लगे थे, पर भारतीय समाज की सदियों से पोषित जातीय संरचना का गैरबराबरीवाला भाव उन्हें वापस वहीं ले आया, स्वामी दयानंद सरस्वती का सुंदर सपना हकीकत बनकर सौ साल भी नहीं ठहर पाया, व्यवहार में सब फिर पहले जैसे हो गए।
राहुल सांकृत्यायन को याद करता हूं, कभी कॉमरेड रहे, कभी बौद्ध हुए, कभी आर्य समाजी। किसी एक जगह रहने से क्या उनका जीवन इतना विराट बन पाता क्या भला? जिधर से छोड़ कर जाएंगे, वहां तो अवसरवादी या व्यक्तिगत हितों के कारण पाला बदलने वाला ही कहा जाता है। जहां जाएंगे, वहां स्वागत होगा, सत्य बोध की तरह स्वीकारा जाएगा, सुबह का भूला समय रहते सही जगह आगया ही कहा जाएगा। सच दोनों के बीच में कहीं होगा।
कई कांग्रेसियों ने बदला पाला
पाला तो कभी सुभाषचंद्र बोस ने भी बदला था, कांग्रेस छोड़कर, विराट व्यक्तित्व गांधी से भिड़कर। पाला चंदन मित्रा ने भी बदला था और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी। वरुण गांधी अभी संक्रमण काल में हैं। यही आना-जाना बंगाल में हाल ही देख चुके हैं।
जीवन एक ही है, पूर्वजन्मों और भावी जन्मों की कल्पनाओं और यथार्थ के दरम्यान धुआं ही है। किसी भी खयाल के साथ रहने, जीने, छोड़ने या/ और नए सच/ खयाल को समझने का अवसर खुद को देने के लिए भी ठीक यही एक जीवन है। एक मनुष्य का जीवन ब्रह्मांड की लघुतम इकाई हो सकती है, परंतु अपने आप में विराट है। उस विराट का वैभव परिवर्तन की संभावनाओं के स्वीकार में है।
धुर वाम यानी हार्ड लाइनर से मध्यमार्गी होकर कांग्रेस में प्रवेश कन्हैया के लिए सहज नहीं रहा होगा, भीतर का संघर्ष कितना बड़ा रहा होगा, हम प्रायः उथला-सा जीवन जीने वालों के लिए अकल्पनीय है। शिद्दत से, पूरे वजूद के साथ कहीं रहने, होने के बाद उससे शिफ्ट लेना बाहर- भीतर की नई दुनिया का सृजन करना है। जेएनयू के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्षों सहित कितनी ही लंबी सूची बनाई जा सकती है कि धुर वामी, चमकदार चेहरे और रोशन दिमागवाले लोग मध्यमार्गी होकर कांग्रेस में शामिल हुए, कुछ उदाहरण ऐसे भी मिल जाएंगे कि एक्सट्रीम शिफ्ट लेते हुए वाम से दक्षिणमुखी हो गए, जनसंघ या आरएसएस में काम करने लगे।
विनायक दामोदर सावरकर को जब एक लेखक मानवीय भाव में देखेगा, तो बेहतर और अलग समझ पाएगा, राजनीति की बायनरी दरअसल जो पहला अनिवार्य, नकारात्मक काम करती है, वह यह है कि किरदार/ व्यक्तित्व/ इंसान को मानवीय भाव से देखने से हमको अलग कर देती है। जिस तार्किकता से हम उन्हें माफीनामे या अंग्रेजपरस्त होने का प्रमाणपत्र देकर खलनायक बनाते हैं, ठीक उसी तर्क पर तो हम नेताजी सुभाषचंद्र बोस को नाजीवादी हिटलर से मिलने- मदद मांगने के आधार पर खलनायक सिद्ध कर सकते हैं। खारिज या सिद्ध करने की ऐतिहासिक प्रक्रिया किसी वैचारिक चश्मे से होती है, तो दोषपूर्ण ही होती है, तथ्यों के खंडित चश्मे तो हम चश्मों की ऐसी दुकान में ठीक करवाने को दे आए हैं जो जमाने से, पुराने रेलवे स्टेशन के 'एबेनडंड यार्ड' सी बंद पड़ी है, उसका ताला भी जंग खा गया है। और जो उस ताले को तोड़ने आएगा, बहुत मुमकिन है कि रास्ते में ही उसकी मॉब लिंचिग हो जाए।
( लेखक फिल्म प्रोफेशनल और स्वतंत्र इतिहासकार हैं)