तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का करीबी, लगभग 5 साल तक क्यूबा जेल में रहा आतंकवादी मुल्ला अब्दुल कयूम ज़ाकिर को अफगानिस्तान का नया रक्षा मंत्री बनाया गया है। शरियत शिक्षा का कर्ता-धर्ता, मदरसे में 7वीं जमात तक पढ़ा मौलवी सखउल्लाह शिक्षा मंत्री होगा। अनपढ़, बैंकिंग प्रणाली से अनजान, टेरर फंडिंग का आतंकी गुल आगा अब अफगानिस्तान का वित्त मंत्री होगा। जिसे अफगानिस्तान का 'जल्लाद' कहा जाता है, जिसने सैकड़ों आतंकी हमलों को अंजाम दिया और 'कसाई' की तरह लोगों की हत्याएं कीं और कराईं, ऐसे दुर्दान्त आतंकी सदर इब्राहीम को गृह मंत्री बनाया गया है। 'मोस्ट वांटेड' आतंकी अब्दुल बाकी अब अफगानिस्तान का उच्च शिक्षा मंत्री होगा। तालिबान हुकूमत में ऐसे और भी चेहरे हैं, जिनका अतीत आतंकवाद से जुड़ा रहा है, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 'काली सूची' में उनके नाम दर्ज हैं और उन पर पाबंदियां चस्पा की गई हैं। कइयों पर तो इनाम भी घोषित हैं। यदि अफगानिस्तान में आतंकी ही कैबिनेट का हिस्सा होंगे, तो विश्व आतंकवाद के खिलाफ अफगानिस्तान की सुरक्षा, मानवाधिकार रक्षा, औरतों-बच्चों-धार्मिक अल्पसंख्यकों की हिफाजत और मानवीय अधिकारों, कानून की हुकूमत आदि की उम्मीद कैसे कर सकता है? लोकतंत्र तो बहुत दूर की कौड़ी है।
आश्चर्य है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, मानवाधिकार आयोग और जी-7 देशों के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक भी ऐसा प्रस्ताव पारित नहीं किया गया, जिसमें तालिबानी आतंकियों का जिक़्र किया गया हो अथवा तालिबान की हुकूमत को काबू में रखने के फैसले लिए गए हों। किसी भी तरह के प्रतिबंध का प्रस्ताव भी पारित नहीं किया गया। तालिबान के लिए इन वैश्विक मंचों का जरा-सा भी खौफ नहीं है। तो फिर इन महान संस्थाओं के अस्तित्व के मायने ही क्या हैं? विश्व में युद्ध के हालात को सुरक्षा परिषद समाप्त नहीं करवा सकती। आज तक कश्मीर का मसला भी लटका है। तो फिर इन संगठनों पर अरबों रुपए खर्च क्यों किए जाएं? ये बेहद गंभीर और चिंतनीय सवाल हैं। संयुक्त राष्ट्र का गठन आज क्या अप्रासंगिक हो रहा है? सुरक्षा परिषद में भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर की अध्यक्षता में आतंकवाद पर विमर्श जरूर किया गया, लेकिन तालिबान हुकूमत के मद्देनजर एक सवाल अनसुलझा ही रहा कि क्या कोई भी आतंकी ताकत बंदूक, बम, बारूद के बल पर, किसी भी हुकूमत को, कब्जा सकती है?
फिर लोकतांत्रिक जनादेश कितने प्रासंगिक रहेंगे? तालिबान इन महान मंचों के कथित ताकतवर नेताओं और देशों के 'उपदेशात्मक' बयान न तो सुनने को तैयार है और न ही मानता है! फिर बार-बार आग्रह क्यों किए जाते रहे हैं? हैरत है कि अमरीका, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और भारत सरीखे बड़े देशों ने तालिबान हुकूमत से बातचीत की इच्छा जताई है। अमरीकी सीआईए के निदेशक ने तो तालिबान के सह-संस्थापक एवं राष्ट्रपति पद के दावेदार मुल्ला बरादर से बातचीत भी की थी। क्या महाशक्तियां भी तालिबान के आतंकी शासन के सामने आत्म-समर्पण की मुद्रा में आ चुकी हैं? फिर खासकर अमरीका की 'आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई' का निष्कर्ष क्या रहा है? क्या बेमानी और नाकाम…! इसी दौरान पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और तालिबान की साझा साजि़श सामने आई है कि काबुल हवाई अड्डे पर और आसपास 'मानव-बम' हमले को अंजाम दिया जा सकता है। ऐसे ऑपरेशन का कमांडर सलिल्लाह मुजाहिद को तय किया गया है, जो तालिबान की विजयी सेना का स्वयंभू कमांडर भी कहा जाता है।
हवाई अड्डे के बाहर खूंख्वार सेना बल 'बदरी-313' को भी तैनात किया गया है। साजि़श के मद्देनजर ही अमरीका, ब्रिटेन और ऑस्टे्रलिया आदि देशों ने अपने नागरिकों के लिए 'परामर्श' भी जारी किए हैं कि वे काबुल एयरपोर्ट के इलाके में भी न जाएं। इन गतिविधियों के मद्देनजर भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत का यह बयान बेहद गौरतलब है कि अब भी तालिबान का चेहरा वही पुराना है। वह बदला नहीं है, सिर्फ खोखले और दिखावटी दावे कर रहा है। भारत के सैनिक तालिबानी आतंक से भी निपटने में सक्षम और तैयार हैं। भारत को हालात पर लगातार दृष्टि बनाए रखनी चाहिए। किसी भी निर्णय की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
दिव्याहिमाचल