कहा जाता है कि बोलना कम कर दें, मौन रहना सीख लें तो जीवन में शांति उतरने लगती है। मगर हो इसका उलट रहा है। मशीन ने आदमी को चुप कर दिया है, पर अशांति बढ़ रही है। हमारे भीतर का शोर निरंतर बढ़ता जा रहा है। मोबाइल फोन पर लोग दिन भर लगे रहते हैं। चार लोग साथ बैठे हैं, पर मोबाइल ने उनके बीच का संवाद कम कर दिया है।
वे सब चुप हैं और मोबाइल पर लगे हुए हैं। वहां सूचनाएं बरस रही हैं, पर संवाद छीज रहा है। सूचनाएं उद्वेलन पैदा करती हैं। विचारों का द्वंद्व पैदा करती हैं। आदमी चुप है, पर उसके भीतर लड़ाई चल रही है। भीतर विचारों का संग्राम चल रहा है। एक सूचना आती है और आदमी विचार का ब्रह्मास्त्र लेकर उससे लड़ने को तैयार हो जाता है। हर आदमी किसी न किसी दल में हैअकेला होते हुए भी दल-बंद है। चुप है, पर नारे लगा रहा है, भीतर-भीतर खूब जोर-जोर से भाषण दिए जा रहा है। यहां तक कि एक आभासी विपक्ष से निरंतर लड़ रहा है। इस तरह बाहर-बाहर तो वह चुप दिखता है, मौन नजर आता है, पर भीतर उसके शोर भरा हुआ है।यानी यंत्र ने न सिर्फ हमारे बाहर शोर पैदा किया है, बल्कि हमारे भीतर भी शोर भर दिया है। फिल्मी गीत की पंक्तियां हैं न- भेजा शोर करता है। हमारे दिमाग में हर समय शोर चल रहा है।
बाहर के शोर से बचने के लिए आदमी ने अनेक तरीके निकाल लिए हैं। घर के खिड़की-दरवाजे इस तरह के बना लिए हैं कि उन्हें बंद कर लो, तो बाहर का शोर भीतर नहीं पहुंचता।गाड़ी में ऐसे इंतजाम कर लिए गए हैं कि सड़क पर बेशक चिल्ल-पों मची हो, पर वह गाड़ी के भीतर सुनाई नहीं देगी। मगर भीतर का शोर शांत नहीं हो रहा। बढ़ता ही जा रहा है। भीतर शोर कई बार इस कदर बढ़ जाता है कि आदमी को नींद नहीं आती। वह नींद से अचानक उठ बैठता है। नींद के लिए उसे गोली खानी पड़ती है।
भीतर का शोर थम जाए, तो बाहर का शोर भी परेशान करना बंद कर दे। मगर भीतर का शोर थमे कैसे। दिमाग का खलल मिटे कैसे। इसके उपाय तमाम बाबा, तमाम योगाचार्य, तमाम चिकित्सक तलाश रहे हैं, बहुत सारे उपाय तलाश भी रखे हैं। वे शिविर लगा कर आदमी के दिमाग का खलल मिटाने का प्रयास करते हैं।बहुत सारे लोग मोटी रकम खर्च कर भीतर का शोर शांत करने के उपाय सीखने जाते हैं। मगर दिमाग का खलल है कि मिटता ही नहीं। दरअसल, परेशानी बाहर के शोर से उतनी नहीं है, जितनी भीतर के शोर से है। यह बात सब जानते हैं, ऊपर-ऊपर तो सब चाहते हैं कि भीतर का शोर थमे, जीवन में कुछ शांति लौटे, मगर वास्तव में भीतर के शोर को जानबूझ कर हर कोई बढ़ाए रखना चाहता है।लाओत्स ने विचार-शून्यता पर बल दिया। कहा कि तुम केवल द्रष्टा बन जाओ। जो कुछ हो रहा है, उसे सिर्फ देखो, उस पर विचार कायम मत करो। विचारों को रोको। विचार रुक जाएंगे, तो भीतर का शोर थम जाएगा। मगर मन को विचारों से मुक्त कर पाना आसान तो नहीं। मन है, तो विचार तो उगेंगे ही उसमें।मगर आज की समस्या मन में विचारों के उगने से नहीं, बल्कि अनावश्यक विचारों के उगने से है। हमाने मन में इस कदर प्रदूषण बढ़ चुका है, मन की जमीन इस कदर प्रदूषित हो गई है कि उसमें सुवासित फूल देने वाले पौधे कम, विचारों का झाड़-झंखाड़ ज्यादा उगने लगा है।फूलों वाले पौधों को उस झाड़-झंखाड़ ने दबा दिया है, उनका विकास बाधित कर दिया है। अब कोशिश यही करनी होगी कि विचारों के झाड़-झंखाड़ को उखाड़ फेंकें। मन की जमीन को उर्वरा बनाएं और विचारों की सार्थक फसल उगने दें।
मन की जमीन को तैयार कोई और नहीं करेगा, उसमें सुवासित फूलों वाले पौधे कोई और नहीं रोपेगा, इसके लिए कोशिश खुद करनी होगी। पहचान करके झाड़-झंखाड़ को उखाड़ना होगा। नहीं तो, ये मन का सारा रस सोख जाएंगे, सारा खाद-पानी पी जाएंगे।लाओत्स ने जो द्रष्टा भाव विकसित करने की बात की थी, उसे विकसित कर लेंगे, विचारों के अनावश्यक झाड़-झंखाड़ को पहचानना शुरू कर देंगे, उन्हें उखाड़ना शुरू कर देंगे, उनकी बढ़वार जैसे रोकना शुरू कर देंगे, भेजा शोर करना बंद कर देगा।
सोर्स-jansatta