जनता से रिश्ता वेबडेस्क : बातों के उस्ताद हमेशा कहते रहे कि अभिभावकों को अपने सपने अपने बच्चों पर नहीं लादने चाहिए। उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को पोषित करना चाहिए। दिलचस्प है कि अब हर किस्म की बातें पकाने वाले गुरुओं ने भी अभिभावकों को समझाना शुरू कर दिया है। वे विद्यार्थियों को ज्ञान दे रहे हैं कि किसी के भी अधूरे या पूरे सपने न देखें। परीक्षा के दिनों में तनाव न लें। इनमें ऐसे लोग शामिल हैं, जो अपने मनमाने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए दिन-रात जुगाड़ लगाते दौड़े फिरते हैं। विज्ञापनों में करोड़ों लगा देते हैं। जात-पांत, धर्म, संप्रदाय की क्यारियों में जबान के नए बीज बोते और खाद-पानी देते हैं।
बातों के इन उस्तादों की बातें राजनीतिक लगती हैं। इनके निरंतर प्रवचनों के बाद भी कितने अभिभावक सुधरे होंगे, यह खोज का विषय है। कुछ प्रतिशत को छोड़ दें तो प्रतिभा गढ़ने के जुगाड़ जारी हैं। बच्चे का नाम स्कूल में रहता है, पढ़ता कोचिंग सेंटर में है। अध्यापक अपने बच्चों को अध्यापक नहीं बनाना चाहते। डाक्टर या इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं। कोचिंग केंद्र का नैतिक कर्तव्य चुंबक की तरह बच्चों को खींच कर, विशेषज्ञों द्वारा पढ़वा कर प्रतियोगी परीक्षा में हिट करवाना होता है। जो बच्चे मेहनत, लगन से अच्छे कालेज में पहुंच जाते हैं, उनके फोटो खरीद कर भी कुछ महीने कोचिंग मंदिर के मुख्यद्वार पर लगाए जाते हैं, ताकि दूसरे बच्चे अपने अभिभावकों से वहां आने को कहें। दीगर कारणों से कोचिंग सेंटर बंद हो सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि बातों के उस्तादों की बातों के कारण हुए हों।
कई और शातिर तिकड़में हैं, जो सिर्फ लगाने वालों को पता होती हैं। बच्चों पर व्यावसायिक सपने लादने का सफल, सांस्कृतिक शैक्षिक माहौल हमने परस्पर सहयोग से बहुत सालों में बड़ी शिद्दत से तैयार किया है। हम बच्चों से वही करवाना चाहते हैं, जो उन्हें बढ़िया पैकेज दिलवाए। कोई स्वीकार नहीं करेगा कि वह आत्मावलोकन या समाज के लिए शिक्षा ग्रहण कर रहा है। प्रसिद्ध संस्थान में कोचिंग लेने के बावजूद नैसर्गिक प्रतिभा को मनपसंद कैंपस में दाखिला न मिले, तो बहुत से बच्चे पैसे या कर्ज के सहारे व्यावसायिक रूप से कामयाब होने के लिए घर या देश से दूर जाते हैं। दूसरों के बच्चों का जाना सामान्य मानने वालों का दिमाग भी जुगाड़ लगाता रहता है कि उनके बच्चे कब जाएंगे। सरकार भी तो ख्वाब पूरे करने के लिए शैक्षिक ऋण उपलब्ध कराती है।
बातों के उस्तादों को पता होगा कि बच्चों के पैदा होने से पहले ही अच्छे स्कूलों की इमारतें अभिभावकों के दिमाग और जेब में घूमते हुए पूछने लगती हैं कि कौन-से स्कूल में जुगाड़ फिट हो सकता है। जुगाड़ लगाए जाते हैं और सफल भी होते हैं। जिनके पास पैसे, जुगाड़ और भाग्य तीनों नहीं हैं उनके पास पूरे तो क्या, अधूरे सपने भी नहीं रहते। उनके बच्चे खुद मेहनत करते हैं, जिनमें से कुछ सफल भी होते हैं। उनका ख्वाब डाक्टर या इंजीनियर ही बनना नहीं होता। उनका सपना जिंदगी में सफल होना होता है। बातों के उस्ताद सलाह देते हैं कि शिक्षा के कारण बच्चे त्योहारों का मजा नहीं ले पाते, इसलिए शिक्षा को ही त्योहार बना लिया जाए। दो अलग विचारों की अदला-बदली बातों में ही आसानी से हो सकती है। अब तो त्योहार भी बाजार के हवाले हो चुके हैं और शिक्षा तो पहले से बाजार के हवाले है।
बातें करने वाले कहते हैं कि आईपैड, मोबाइल में घुसने से ज्यादा आनंद तो अपने अंदर घुसने का होता है। ऐसे में जब मानवीय रिश्ते भी बाजार के किनारे टिके हैं, यह सुनना भी अधिकांश अभिभावकों को खालिस प्रवचन ही लगेगा। अभिभावक बच्चे को दुनिया में आते ही स्मार्ट फोन के साथ रहना सिखा रहे हैं। कई जगह जिंदगी की विवशताएं भी सशक्त भूमिका निभाती हैं। ऐसा अभी तक संभव नहीं हो पाया है कि चौथी कक्षा या उससे पहले विद्यार्थी की नैसर्गिक प्रतिभा पहचान कर उसे शिक्षक, किसान या अन्य उसी विशेष क्षेत्र में पढ़ाया जाए, ताकि उसकी मूल प्रतिभा उसे वही बनाने में मदद करे जो उसे होना चाहिए।
कितनी प्रतिभाओं को अवसर न मिलते, गर्क होते देख कर सवाल उभरता है कि क्या सफलता के लिए जरूरी मेहनत है या फिर जुगाड़ ही सब कुछ है। शिक्षा तो एक हिस्सा भर है जीवन का। आने वाले कल में पेट के लिए कमाने की फिक्र ही तो सारी दुविधा है। फिर मनपसंद जीवनसाथी और मकान भी इंतजार कर रहे होते हैं। शिक्षा को फिट रखने वाली कंपनी का विज्ञापन कहता है, अपने बच्चों की सोचने की क्षमता, सीखने की गति, प्रतिधारण शक्ति और अंक क्षमता बढ़ाने के लिए उनके पास ही आएं और उनके द्वारा पकाई सामग्री ही खिलाएं। वैसे, बातों के उस्तादों की बातें सचमुच खूब बिकती हैं।
सोर्स-jansatta