वर्तमान में इलेक्ट्रानिक प्रौद्योगिकी व्यापक और शक्तिशाली होती जा रही है। यह सिलसिला आने वाले दशकों में भी जारी रहेगा। सूचना और संचार क्रांति ने भी अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। लेकिन यह भी ब्रह्मांडीय खतरों से मुक्त नहीं है। अंतरिक्ष से भी सूरज से आने वाले विकिरण इसे प्रभावित करते हैं। इसलिए अब इस दिशा में भी वैज्ञानिक शोध हो रहे हैं कि कैसे सूर्य के विकिरणों से बचा जा सके।
वैज्ञानिकों का मानना है कि सूरज और पृथ्वी के बीच अंतरिक्ष में एक विशालकाय बुलबुले का निर्माण करके सूरज से आने वाले खतरनाक विकिरणों को धरती पर पहुंचने से रोका जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे विनाश को रोकने के लिए मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी (एमआइटी) के वैज्ञानिकों ने सूर्य और पृथ्वी के बीच अंतरिक्षीय बुलबुला यानी 'स्पेस बबल' बनाने का प्रस्ताव रखा है। यह बुलबुला ब्राजील के आकार का होगा। इसका नाम 'इन्फ्लेटेबल बबल' (हवा में तैरने वाला बुलबुला)होगा।
इसे तरल सिलिकान से बनाया जाएगा और सूरज व पृथ्वी के बीच अंतरिक्ष में स्थापित किया जाएगा। सूरज से आने वाले खतरनाक विकिरण इस बुलबुले से टकरा कर परावर्तित हो जाएंगे और धरती तक नहीं पहुंच पाएंगे। अगर यह प्रयोग कामयाब हो गया, जैसा कि वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं, तो धरती के लिए यह एक बड़ा सुरक्षा कवच साबित होगा। हालांकि सूरज से आने वाले विकिरणों को इस बुलबुले के जरिए भी पूरी तरह से रोक पाना संभव नहीं होगा, पर इसे कम जरूर किया जा सकेगा।
अंतरिक्ष बुलबुला शोध परियोजना वैज्ञानिक जेम्स अर्ली के विचारों पर आधारित है जिन्होंने सबसे पहले अंतरिक्ष में एक विक्षेपी वस्तु तैनात करने का सुझाव दिया था। फिर खगोलविद रोजर एंजेल ने बबल-बेड़े का प्रस्ताव रखा। हालांकि जियो-इंजीनियरिंग एक विज्ञान कथा से कम नहीं लगती, लेकिन इसका इस्तेमाल वास्तविक दुनिया में सफलतापूर्वक हो रहा है।
वैसे तो धरती का चुंबकीय क्षेत्र ही हमें सूरज से आने वाले विकिरणों से बचाता है, लेकिन सूरज पर उठने वाले तूफानों का असर धरती पर काफी पड़ता है। सूरज पर अनवरत उठते रहने वाले सौर तूफानों से गरम लपटें धरती के बाहरी वायुमंडल को गरम कर रही हैं। इसका असर उपग्रहों पर पड़ रहा है। सामान्य तौर पर सौर तूफान दस से बीस लाख मील प्रति घंटे की रफ्तार से चलते हैं।
इसका असर अंतरिक्ष में दूर-दूर तक होता है। इन्हीं सौर लपटों के आवेशित कण अंतरिक्ष से होते हुए बेहद तेज गति से धरती की ओर आते हैं। जब ये धरती के चुंबकीय क्षेत्र से टकराते हैं तो प्रकाश के रूप में ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं। इससे धरती का वायुमंडल गर्म हो जाता है और इसका सीधा असर जीपीएस, नेविगेशन, मोबाइल फोन और टीवी सिग्नलों पर पड़ता है। विद्युत लाइनों में करंट तेज हो जाने से ट्रांसफार्मर भी जल जाते हैं।
सौर तूफान का असर पहली बार सन 1859 में देखा गया था। इस शक्तिशाली भू-चुंबकीय तूफान ने यूरोप और अमेरिका में टेलिग्राफ नेटवर्क तबाह कर दिया था। इसके अलावा कम तीव्रता का एक सौर तूफान 1989 में भी आया था। माना जा रहा है कि पिछले तूफानों के मुकाबले अब भविष्य के सौर तूफानों की तीव्रता ज्यादा भयावह होगी जो अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहे उपग्रहों को प्रभावित करेंगे और हमारी संचार व्यवस्था व जीपीएस प्रणाली को ठप कर सकते हैं।
आसमान से सूरज तो आग उगल ही रहा है, पराबैंगनी किरणें भी अब एक खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका स्तर औसत से तीन गुना और बढ़ गया है जो मनुष्य के लिए खतरनाक साबित होगा। ऐसे में कड़ी धूप में बाहर निकलने वालों की आंखों में जलन, मोतियाबिंद, त्वचा का कैंसर और अन्य बीमारियां होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। पिछले कुछ महीनों से सूर्य पर काफी हलचल भरी गतिविधियां देखने को मिल रही हैं। पिछले दिनों सूरज पर मौजूद एक धब्बे में भयानक विस्फोट की तस्वीरें सामने आर्इं।
इस विस्फोट को पृथ्वी के लिए खतरे के रूप में देखा जा रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस विस्फोट से निकलने वाले विकिरण धरती पर भू-चुंबकीय तूफान का कारण बन सकते हैं। इससे इलेक्ट्रानिक उपकरणों के खराब होने का खतरा और बढ़ जाता है। भू-चुंबकीय तूफान एक प्रकार का सौर तूफान है जो पूरे सौरमंडल को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह धरती के चुंबकीय क्षेत्र पर असर करने वाली आपदा है। इस साल की शुरुआत में एलन मस्क की स्पेस कंपनी के चालीस उ पग्रह भू-चुंबकीय तूफान के शिकार हो गए थे। अंतरिक्ष मौसम के बारे में शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि 2020 से ही सौर-तूफान चक्र की शुरुआत हो चुकी है। आने वाले दिनों में पृथ्वी पर ऐसे ही कई सौर तूफान देखने को मिलेंगे।
सौर तूफान के दौरान सूरज की सतह से 'ऊर्जा का गुब्बारा' फूटता है। इससे पृथ्वी पर विद्युत आवेश और चुंबकीय क्षेत्र की खेप आती रहती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सूरज पर लंबे समय तक ऐसी स्थिति देखने को नहीं मिली थी, लेकिन अब चक्र एक बार फिर शुरू हो चुका है। पृथ्वी पर ऐसे सौर तूफान की वजह से पावर ग्रिड और संचार व्यवस्था पर तो असर पड़ता ही है, प्राणियों के लिए भी यह खतरनाक है। इस तरह के सौर तूफान इंसानों पर घातक प्रभाव डालते हैं।
सौर तूफान को लेकर वैज्ञानिकों की खोज भी सीमित रही है। पहले इसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता था। लेकिन हाल के वर्षों में कई देश अंतरिक्ष मौसम के बारे में ज्यादा गंभीर हुए हैं। भारतीय वैज्ञानिक भी इस दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि सूरज से आने वाले विकिरणों को इस अंतरिक्ष बुलबुले की तकनीक से पूरी तरह तो नहीं रोका जा सकता, लेकिन कम जरूर किया जा सकता है। ऐसा भी नहीं कि यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के मौजूदा प्रयासों का विकल्प होगा। हां, यह बात जरूर है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए जो भी मौजूदा उपाए किए जा रहे हैं, उनमें यह सबसे ज्यादा कारगर होगा।
अंतरिक्ष में इस बुलबुले का परीक्षण भी किया जा चुका है और आने वाले दिनों में इनका इस्तेमाल भी शुरू कर दिया जाएगा। यदि हम धरती पर टकराने से पहले ही 1.8 प्रतिशत सौर विकिरण को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं तो बढ़ते वैश्विक तापमान की समस्या से काफी हद तक निजात पा सकेंगे। इस अंतरिक्ष बुलबुले की खूबी यह है कि अगर इसमें कोई खराबी आ जाए तो इसे बदला भी जा सकता है। ऐसी संभावना है कि अंतरिक्ष में जहां जेम्स वेब टेलीस्कोप स्थित है, वहां इस अंतरिक्ष बुलबुले को रखा जाएगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि सूरज से आने वाले विकिरणों को परावर्तित करने के लिए यही सबसे सही जगह होगी। जो भी हो, वैज्ञानिकों का यह कदम सराहनीय है क्योंकि धरती बचाओ की मुहिम अंतरिक्ष से भी होनी चाहिए।
सोर्स-jansatta