जनता से रिश्ता वेबडेस्क : हम आजादी के अमृत महोत्सव काल से गुजर रहे हैं। यह सिंहावलोकन का काल है कि 1947 में भारत का विभाजन क्यों हुआ था और वह किन कारणों से फलीभूत हुआ था। बात क्या सिर्फ इतनी है कि 'महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने विभाजन करवा दिया'? मुस्लिम लीग और उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना की वजह से पाकिस्तान बन गया? या ब्रिटिश सरकार ने अपने दूरगामी सामरिक हितों को सुनिश्चित करने के लिए भारत को अविभाजित नहीं रहने दिया? याद है कि 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के दौरान भी कुछ जगहों पर हिंदू-मुस्लिम दंगे हो रहे थे।
'हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतिनिधि' मोहम्मद अली जिन्ना के कायद-ए-आजम बनने की यात्रा के मार्ग पर कभी नजर दौड़ाई है? भारत की खातिर अपने प्राणों की बाजी लगाने को तैयार नेहरू, सरदार पटेल, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और अन्य नेताओं का मोहभंग इस बिंदु तक क्यों पहुंच गया कि बंटवारे को मंजूर करने का कोई विकल्प नहीं सूझा? अमृत महोत्सव काल में इन सवालों से रू-ब-रू होने की जरूरत है। इतिहास का सरलीकरण राजनीतिक दृष्टि से लाभदायक भले हो, उससे माकूल सबक न लेने के नतीजतन हम एक घटाटोप भूलभुलैया में भटकते रहने को अभिशप्त बने रहते हैं।
यह राष्ट्रीय अपमान के साठ साल पूरा होने का भी काल है। 1962 में चीन के हमले का दर्द हम कितना महसूस करते हैं? आज भी चीन जब हमारे उन जख्मों को कुरेदता है, हमारी सामूहिक चेतना सुन्न-सी बनी रहती है। चीन के नेता 'राष्ट्रीय अपमान के सौ वर्षों' का बार-बार उल्लेख करते हैं। अफीम युद्ध, ब्रिटेन और फ्रांस के हमलों, जापानी अत्याचारों या जारकालीन रूस के विस्तारवाद को वे कभी नहीं भूलते। चीन का एकसूत्री राष्ट्रीय एजेंडा है: समग्र राष्ट्रीय शक्ति का लगातार विस्तार और सुदृढ़ीकरण। 2049 तक, जब कम्युनिस्ट पार्टी के शासन के सौ वर्ष पूरे हो रहे होंगे, वह अमेरिका को पीछे छोड़ देने के संकल्प पर चल रहा है।
आजादी के सौ वर्ष पूरे होने तक क्या-क्या हासिल कर लेने का हमारा संकल्प है? समग्र राष्ट्रीय शक्ति के विस्तार का हमारा कोई एजेंडा है भी या नहीं? यह राष्ट्रीय लज्जा का विषय है कि सम्राटों से लेकर माओ त्सेतुंग और शी जिनपिंग तक जिन हान नस्लवादियों के हाथ मुस्लिमों के खून से रंगे हुए हैं, जिन्होंने उइगुर मुस्लिम बस्तियों को विशाल यातना गृह में बदल डाला है, वे भारत को लेक्चर देने लगे हैं। हजरत मोहम्मद के निजी जीवन पर तत्कालीन भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा के आपत्तिजनक बयान के बाद करीब तीन दर्जन शहरों में हिंसा पर टिप्पणी करते हुए चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेंबिन ने कहा, 'चीन का विश्वास है कि विभिन्न सभ्यताओं और धर्मानुयायियों को एक-दूसरे के प्रति सम्मान रखते हुए समानता के स्तर पर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में रहना चाहिए।
अहंकार और दुराग्रह का त्याग आवश्यक है; अपनी सभ्यता को समझते हुए दूसरी सभ्यताओं से अंतर को समझना भी आवश्यक है। डायलॉग और सद्भावनापूर्ण सहअस्तित्व भी जरूरी है। हमें विश्वास है कि संदर्भित घटना से उपजी स्थिति से निपट लिया जाएगा।' यह उल्लेख प्रासंगिक है कि पहली बार चीन ने भारत की बुनियादी व्यवस्था और पूरे तंत्र पर इतना अपमानजनक सवालिया निशान लगाया है। नूपुर शर्मा की टिप्पणी के कई दिनों बाद कानपुर में हिंसा भड़क उठी। फिर प्रयागराज और अन्य शहरों में विध्वंस की लपटें उठने लगीं। निष्पक्ष और भरोसेमंद जांच के बाद ही मालूम हो पाएगा कि स्वाभाविक प्रतिक्रिया को व्यक्त करने के लिए कई दिन तैयारी की गई या किसी साजिश पर अमल में वक्त लग गया।
नोट करने की बात यह है कि राज्य सत्ता की प्रतीक, पुलिस पर हमले हुए; कहीं सांप्रदायिक हिंसा नहीं होने पाई। अगर किसी वर्ग में, उसकी आबादी 15 प्रतिशत हो या दो प्रतिशत, परायेपन का भाव हो, तो राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर समाधान कैसे निकालेंगे? यदि संविधान की शपथ लेने वाला कोई व्यक्ति कहे, 'हमारा ही अन्न खाकर हमारी ही कालीन कुतर रहे मोटे चूहे', तो समझ लेना चाहिए कि सभ्य, लोकतांत्रिक-सांविधानिक व्यवस्था की मूलभूत शर्त, समान राष्ट्रीयता और समान नागरिकता के प्रति हिकारत बहुत गहराई तक जा चुकी है।
कानून तोड़ने वालों के प्रति राज्य सत्ता के प्राणरक्षक अवयव यदि कहीं कठोर और कहीं नरम व्यवहार करने लगें, तो अंततोगत्वा कानून-व्यवस्था पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव अनिवार्य हो जाता है। हमने बात शुरू की थी आजादी के अमृत महोत्सव काल और चीन से बहुत पिछड़ जाने की आशंका से। हम आखिर कहां और किधर जाना चाहते हैं? नफरत के परनाले बहते रहें और हम सुंदर, सुखद, खुशहाल राष्ट्र के निर्माण की दिशा में छलांगें भी मार लें, यह तो समाज विज्ञान के नियमों के विपरीत है। दिमाग क्या गैंग्रीन ग्रस्त होने लगे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख, मोहन भागवत को भी नहीं सुनना चाहते?
सितंबर, 2018 में नई दिल्ली में आयोजित तीन दिन की व्याख्यान माला में भागवत ने कहा था, 'जिस दिन हम कहेंगे कि मुस्लिम नहीं चाहिए, उस दिन हिंदुत्व भी नहीं रहेगा, जिस दिन कहेंगे कि यहां केवल वेद चलेंगे, दूसरे ग्रंथ नहीं चलेंगे, उसी दिन हिंदुत्व का भाव खत्म हो जाएगा।' आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर की चर्चित और विवादास्पद पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स के बारे में भागवत ने कहा, 'गुरु जी के सामने जैसी परिस्थिति थी, वैसा विचार हुआ। लेकिन संघ बंद संगठन नहीं है। ऐसा नहीं है कि जो उन्होंने बोल दिया, वही लेकर चलें। हम अपनी सोच में परिवर्तन करते हैं।'
संविधान पर भी भागवत ने अपने पूर्ववर्ती सरसंघचालक केएस सुदर्शन से बुनियादी तौर पर भिन्न विचार रखे। सुदर्शन बिल्कुल नए संविधान के पक्षधर थे। भागवत ने कहा, 'संघ संविधान की प्रस्तावना के एक-एक शब्द से न सिर्फ सहमत है, बल्कि पूरी श्रद्धा से उसका पालन भी करता है।' इसी जून के पहले सप्ताह में भागवत ने कहा, 'हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग क्या देखना।' तब फिर घृणा का प्रचार रुक क्यों नहीं रहा? भागवत की एक महत्वपूर्ण व्याख्यान माला के तीन साल दस महीने बाद भी एक वर्ग की शब्दावली क्यों नहीं बदल रही? 1947 और उसके पहले की घटनाओं के निर्मम पुनर्पाठ से बचते रहने के परिणामों पर सोचने का वक्त है।
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