आज बाजार का सब से बड़ा लक्ष्य हमारे युवा हैं.व्यापारियों एवं विज्ञापन निर्माण कर्ताओं को पता है कि युवा वर्ग ही उनके झांसे में आसानी से आ सकता है क्योंकि यह वह वर्ग है जो बहुत ही अकेला, दिशाहीन और चकाचोंध की तरफ जल्दी आकर्षित हो जाने वाला है. इनदिनों फिल्में भी रोमांस, फेंटेसी,मारधाड़ और वाहियात डायलोग से भरपूर बनायी जाने लगीं है, जो युवाओं को और ज्यादा भटकाव की ओर अग्रसर कर रही हैं जब से हालीवुड ने भारत का रूख किया है स्थिति और भी चिंताजनक हो गर्इ हैं। बे सिर पैर की एक्शन फिल्मे एनाकोंडा, डै्रकूला, वेम्प जैसी ना जाने कितनी फिल्मे बच्चो के दिमाग में फितूर भर रही हैं। वहीं रामलीला, दबंग, गुंडे, तेवर आदि हिंसा प्रधान फिल्मे युवाओ की दिशा बदल रही हैं। आज का युवा खुद को सलमान खान, शाहरूख खान, अजय देवगन, अर्जुन कपूर, शाहिद कपूर, अक्षय कुमार की तरह समझता हैं और उन्ही की तरह एक्शन भी करता है। यह तमाम फिल्मे संघर्षशीलता का पाठ पढाने की बजाये यह कह रही हैं कि पैसे के बल पर सब कुछ हासिल किया जा सकता है, छल, कपट, घात प्रतिघात, धूर्तता, ठगी, छीना झपटी, कोर्इ अवगुण नही हैं. इस पीढी पर फिल्मी ग्लैमर, कृत्रिमता, अश्लील साइट्स खुल्लम खुल्ला बाजार में उपलब्ध किताबें, व इन्टरनेट और मोबार्इल पर कामशास्त्र की जानकारी हमारे किशोरों को बिगाडने में कही हद तक जिम्मेदार हैं। इस ओर किशोरों का बढता रूझान ऐसा आकर्षण पैदा कर रहा हैं जैसे भूखे को चंदा रोटी की तरह नजर आता है।
गुजरे कुछ वर्षों मे हमारे घरो की तस्वीर भी तेजी से बदली हैं. पिता को बच्चो से बात करने की, उनके पास बैठने और पढार्इ के बारे में पूछने की फुरसत नहीं। माँ भी किट्टी पार्टियों, शापिंग घरेलू कामो में उलझी हैं। आज के टीचर को शिक्षा और छात्र से कोर्इ मतलब नही उसे तो बस अपने ट्यूशन से मतलब है। फिक्र है बडे बडे बैंच बनाने की, एक-एक पारी में पचास पचास बच्चो को ट्यूशन देने की। शिक्षा ने आज व्यापार का रूप ले लिया हैं। दादा दादी ज्यादातर घरों में हैं नही। बच्चा अकेलेपन, सन्नाटे, घुटन और उपेक्षा के बीच बडा होता है। बच्चे को ना तो अपने मिलते हैं और ना ही अपनापन। लेकिन उम्र तो अपना फर्ज निभाती हैं, बडे होते बच्चो को जब प्यार और किसी के साथ, सहारे की जरूरत पडती हैं तब उस के पास मा बाप चाचा चाची दादा दादी या भार्इ बहन नही होते। होता है अकेलापन पागल कर देने वाली तनहाई या फिर उस के साथ उल्टी सीधी हरकते करने वाले घरेलू नौकर।और ऐसे में यह बच्चे इन्टरनेट सोशल साइट्स के जरिये एक काल्पनिक संसार में विचरण करके भावनात्मक संबल खोजते हैं. उन्हें वहां भावनात्मक संबल तो नहीं मिलता अपितु वह भटकाव की एक फिसलन भरी दुनिया में अवश्य पहुँच जाते हैं.
ऐसे में आज की युवा पीढी को टूटने से बचाने के लिये सही राह दिखाने के लिये जरूरी है कि हम लोग अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझे और समझे की हमारे बच्चे इतने खूंखार इतने दुस्साहसी क्यो होते जा रहे हैं? जरा जरा सी बात पर जान देने और लेने पर क्यो अमादा हो जाते हैं ? इन की रगो में खून की जगह गरम लावा किसने भर दिया है? इन सवालो के जवाब किसी सेमीनार, पत्र पत्रिकाओ या एनजीओ से हमें नही मिलेंगे। इन सवालो के जबाब हमें बच्चों को पास बैठाकर उन्हे प्यार दुलार और समय देकर हासिल करने होंगे। वास्तव में घर को बच्चे का पहला स्कूल कहा जाता है। आज वो ही घर बच्चो की अपनी कब्रगाह बनते जा रहे हैं। फसल को हवा पानी खाद दिये बिना बढिया उपज की हमारी उम्मीद सरासर गलत है। बच्चो से हमारा व्यवहार हमारे बुढापे पर भी प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। आज पैसा कमाने की भागदौड में जो अपराध हम अपने बच्चो को समय न देकर कर रहे हैं वो हमारे घर परिवार ही नही देश और समाज के लिये बहुत ही घातक सिद्ध हो रहा है।
हमें बच्चों का मनोविज्ञान पढना होगा हमने ही यह सूरत पैदा की है और हमें ही इस समस्या का हल निकालना होगा यह बात सही है कि आज की पीढ़ी धैर्यवान कम है शोर्ट कट इन्हें ज्यादा पसंद आता है ये हर चीज पा लेना चाहते है चाहे वह किसी भी तरह से हो, जायज तरीके से हो या नाजायज तरीके से.इसमें भी उनका दोष कम हम माता पिता और अभिवावकों का ज्यादा है हम अपने आप में इतने मशगूल हो गए कि यह भी खबर न रही कि हमारे अलावा भी कोई है वर्तमान में इन्टरनेट द्वारा हर एक सूचना युवा पीढी को मिनटों में उपलब्ध हो जाती है. इसलिए आज की पीढ़ी पुराने सामाजिक मानदंडो पर हमेशा एक सवालिया निगाह रखती है. मै यह नहीं कहूँगी कि यह बाजारवाद या उपभोक्ता वाद का परिणाम है. बात कुछ और है,दरअसल हम आज भी वही पुराने सडे-गले नियम और कानूनों को अपने युवाओं पर लाद रहे हैं. जो प्राचीनकाल से परम्पराओं और रीति रिवाज के तौर पर अनचाहे विवश हो हम सहते और गधे की तरह ढोते आये हैं. बिना एक सवाल किये बिना उनपर प्रश्न चिन्ह लगाए. और अब वही बोझ हम अपने बच्चों पर लादना चाहते हैं, साथ में यह भी चाहते हैं कि वह भी बिना किसी वाद-प्रतिवाद के हमारा हर हुक्म माने. जबकि आज का युवा विचारवान है वह किसी भी बात को आचरण में लाने से पूर्व उसे तर्क की कसौटी पर घिसता है और तर्कसंगत लगने पर ही व्यवहार में लाता है.
हमने पुराने मूल्यों की जगह तर्क संगत नये मूल्यों का निर्माण नहीं किया. यह हमारी कमी है, हमारी परवरिश की कमी है. युवा पीढ़ी दरअसल संक्रमण के एक नये दौर से गुजर रही है उसने खोया तो बहुत पर पाया कुछ नहीं. मै इस पीढ़ी के युवको को जब दकियानूसी धार्मिक परम्पराओ का पालन करते देखती हूँ तो यह सोचने को विवश हो जाती हूँ कि इनकी तर्क शक्ति कहाँ गई ?उदहारण के तौर पर दहेज़ लेना. यह प्रथा उनके इस विचार को बल देती है कि इस माध्यम से हर वह चीज पी जा सकती है जिसे पाने में साधारण तौर से काफी समय लग सकता है. और इसके लिए उन्हें स्वंय को बिक्री का बैल कहलाने में भी कोई गुरेज नहीं. माँ बाप बोली लगाते है और वह बिकने के लिए बाजार में खडा हो जाता है. इसके लिए भी हम ही जिम्मेदार है हमने इनके अन्दर जमीर पैदा करने की कोशिश नहीं की. संक्षेप में, यही कहना होगा कि हमें स्वयं को भी बदलना होगा और युवाओं के सामने एक नजीर पेश करनी होगी. चाहे इसके लिए कितनी ही कठिनाइयों का सामना क्यूँ ना करना पड़े. तभी आज के युवा का भविष्य संवर सकता है और साथ में देश का भी. क्योंकि युवा ही देश के भविष्य की नींव होता है.
सपना मांगलिक
उपसम्पादिका- आगमन साहित्य पत्रिका