टाई की नॉट ठीक करते हुए कुंदन आदेश देता जा रहा था—“सोफ़ा का कपड़ा कम पड़ गया है, तुम ख़ुद लाकर दे देना. इनके ज़िम्मे कर दिया तो समझो सब चौपट. दरवाज़े-खिड़कियों का वार्निश आज ज़रूर पूरा हो जाना चाहिए. और देखो, प्लंबर आएगा तो जहां-जहां के नल और पाइप ख़राब हों, सब ठीक करवा लेना.”
रमा पीछे खड़ी सामने के आईने में पड़ते कुंदन के प्रतिबिंब को देख रही थी. उसे लग रहा था नई नौकरी के साथ कुंदन की सारी पर्सनैलिटी ही नहीं, बात करने का लहज़ा तक बदल गया है. कितना आत्मविश्वास आ गया है सारे व्यक्तित्व में? रौब जैसे टपक पड़ता है.
होंठों के कोनों में चुरुट दबाए, जाने से पहले इसने सारे घर का एक चक्कर लगाया. यह भी रोज़ का एक क्रम हो गया था. पीछे के बरामदे में दर्जी सोफ़े के कवर्स सिलाई कर रहा था. कुछ दूर खड़ा मिस्त्री, छोटे-छोटे टिनों में वार्निश तैयार करते लड़के को कुछ आदेश दे रहा था. कुंदन को देखकर उसने सलाम ठोंका. “अब्दुल मियां, काम आज पूरा हो जाना चाहिए, तुम्हारा काम बहुत स्लो चल रहा है.”
“काम भी तो देखिए सरकार! समय चाहे दो दिन का ज़्यादा लग जाए, पर आपको शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगा. मैं साहब काम की क्वालिटी पर...”
“अच्छा...अच्छा...” कुंदन लौट आया. ड्राइंग-रूम के पार्टीशन पर नज़र पड़ते ही कहा—“इन्टीरियर-डेकोरेर्टस वालों के यहां फ़ोन ज़रूर कर देना. यह पार्टीशन बिल्कुल नहीं चलेगा. डिज़ाइन क्या बताया था, बनवा क्या दिया, रबिश.”
कुंदन गाड़ी में बैठा. रमा पोर्टिको की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ी थी. उसे लगा, जाने से पहले एक बार वह फिर सारे आदेशों को दोहराएगा, पर नहीं. गाड़ी स्टार्ट करके, खिड़की से ज़रा-सा हाथ निकालकर हल्के से हिलाते हुए कहा--“अच्छा, बा...बाई,” तो इसे ख़याल आया, यह तो उसकी आदत थी कि गाड़ी में बैठकर चलने से पहले वह नौकर के सामने बताए हुए सारे काम फिर से दोहरा दिया करती थी.
तब कुंदन हंसता हुआ कहता था—“बस भी करो यार, अब कितनी बार दोहराओगी. तुम इतनी बार कहती हो, इसी से वह गड़बड़ा जाता है.”
गाड़ी लाल बजरी की सड़क पर तैरती हुई फाटक से बाहर निकली और दूर होती हुई अदृश्य हो गई.
रमा को लगा जैसे कुंदन उसे पीछे छोड़कर आगे निकल गया है...बहुत आगे. जैसे वह अकेली रह गई है. एक महीने पहले वह भी कुंदन के साथ ही निकला करती थी, कुंदन उसे कॉलेज छोड़ता हुआ ऑफ़िस जाया करता था. पर अकेलेपन की यह अनुभूति तभी तक रहती जब तक वह पोर्टिको में खड़ी रहती. जैसे ही फ्लैट का दरवाज़ा खोलकर वह भीतर घुसती–-लक-दक फ़र्नीचर, शीशों के दरवाजे और खिड़कियों पर झूलते लंबे-लंबे परदे, मिस्त्रियों की खटपट, नए-नए डिस्टेम्पर और वार्निश की हल्की-सी गंध के बीच न जाने कहां डूब जाती.
काम की एक लिस्ट उसके पास होती, जिन्हें उसे पूरा करना होता; काम करते मिस्त्रियों को देखना होता; मार्केट के दो-एक चक्कर लगाने होते...और यह सब करते-करते ही शाम हो जाती! टिंग-टिंग...ट्रिंग-ट्रिंग...
फ़ोन उठाकर उसने नंबर बोला, “कौन, मिसेज़ बर्मन? कहिए-कहिए, क्या ख़बर है?”
मिसेज़ बर्मन शिकायत कर रही थीं, “कॉलेज छोड़े महीना होने आया, एक बार सूरत तक नहीं दिखाई. आउट ऑफ़साइट...”
“अरे नहीं-नहीं,” रमा ने बात बीच में ही काट दी. उसने थोड़ा-सा झुककर कोहनी मेज़ पर टिका ली. उलटे हाथ में पैंसिल लेकर वह फ़ोन का संदेशा लेने के लिए जो पैड रखा था, उस पर यों ही आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने लगी.
“आज लंच के समय आओ न, साथ बैठकर खाएंगे. तुम्हारे चले जाने से हमारा डिपार्टमेंट तो सूना ही हो गया. लंच के समय तो तुम्हें बहुत ही मिस करते हैं. और एक तुम हो कि जाने के बाद ख़बर तक नहीं ली...”.
“क्या बताऊं, इस नए घर को ठीक कराने के चक्कर में इतनी व्यस्त रही कि उधर आ ही नहीं सकी. अच्छा यह बताइए सुधा, मालती, जयंती सब कैसी हैं?”
“कहा न, आज आ जाओ. सबसे मिल भी लेना, खाना भी साथ खाएंगे.”
“आज?” और एक क्षण को मन के भीतरी-स्तर पर आज के सारे कामों की लिस्ट तैर-सी गई--“आज तो संभव नहीं होगा मिसेज़ बर्मन!” क्षमायाचना के-से स्वर में वह बोली, “बस एक सप्ताह और ठहर जाइए, फिर अपने इस नए घर की पार्टी दूंगी...देखिए अपनी रमा का कमाल...देखेंगी तो समझेंगी कि एक महीने तक क्या करती रही.” फिर और दो-चार इधर-उधर की बातें और हल्की-फुल्की-सी मज़ाकें हुईं और रमा ने फ़ोन रख दिया.
फ़ोन रखने के बाद नए सिरे से इस बात का बोध हुआ कि कॉलेज छोड़े उसे अट्ठाइस दिन हो गए. जाना तो दूर, उसे कभी ख़याल भी नहीं आया वहां का. आश्चर्य के साथ-साथ उसे थोड़ी-सी ग्लानि भी हुई; वह क्यों नहीं गई, कैसे रह सकी बिना गए? आज बर्मन का फ़ोन नहीं आता तो पता नहीं और भी कितने दिनों तक उसे उधर का ख़याल ही नहीं आता. क्या सचमुच वह बड़े अफ़सर की बीवी बन गई है? उसे मज़ाक में कसा हुआ जयंती का रिमार्क याद आया.
एकाएक मन हुआ कि अभी चल पड़े. एक बार सबसे मिल ही आए. मना करने के बाद पहुंचकर वह सबको प्लेजेंट सरप्राइज़ देगी. उसने रसोई में जाकर दस-बारह आलू के परांठे और चाट तैयार करने को कहा. ये दोनों चीजें वहां सबको बहुत पसंद थीं. सारे डिपार्टमेंट में वह और मिसेज़ बर्मन ही विवाहित थीं...बाकी सब कॉलेज हॉस्टल में रहती थीं और अच्छी-अच्छी चीज़ें खाने की उनकी फ़र्माइशें बनी ही रहती थीं.
उसे अपनी फ़ेयरवैल पार्टी की याद आई. साढ़े दस साल की सर्विस थी. प्रिंसिपल ने अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ फूलों के बड़े-से गुलदस्तों के बीच पार्कर पेन का एक सैट रखकर दिया था--“मिसेज़ चोपड़ा, आप इसी पेन से अपनी थीसिस पूरी करिए. जब भी वापस काम करने का मन हो, बिना किसी संकोच के चली आइये, यहां आपका हमेशा ही स्वागत है.” उसके डिपार्टमेंट की सभी लेक्चरर्स गाड़ी तक छोड़ने आई थीं--“भई रमाजी, कॉलेज भले ही छोड़ दीजिए, पर लंच के समय खाना लेकर ज़रूर आ जाया करिए” तो उसकी नम आंखों में भी हंसी चमक उठी थी. तब उसे कुंदन की बात याद हो आई थी – “तुम वहां पढ़ाने जाती हो या खाने! फ़ोन पर भी जब तुम लोगों की बातें होती हैं तो खाना ही डिस्कस होता है.” उसने केवल उन लोगों से ही नहीं कहा था, बल्कि मन में भी सोचा था कि लंच के समय वह कॉलेज चली ही जाया करेगी. आख़िर उसे भी तो अपने को कॉलेज से एकदम काट लेने में काफ़ी कष्ट होगा...इस तरह धीरे-धीरे तो फिर भी...
तो क्या कुंदन ने ठीक ही कहा था? कॉलेज छोड़ने का निर्णय लेकर वह चुपचाप रो रही थी और कुंदन उसे समझा रहा था—“मैं कह रहा हूँ, तुम्हें क़तई अकेलापन नहीं लगेगा, तुम ज़रा भी कमी महसूस नहीं करोगी; रादर यू विल फ़ील रिलीव्ड. कितना स्ट्रेन है तुम पर आजकल!”
कुंदन को एकाएक विदेशी कंपनी में इतनी बड़ी नौकरी मिल जाएगी, इसकी आशा औरों को चाहे रही भी हो, कुंदन को बिल्कुल नहीं थी. डॉ. फ़िशर से पिछले आठ साल से उसके संबंध थे, विशुद्ध व्यावसायिक संबंध. उनकी प्रशंसा और सद्व्यवहार को भी वह व्यावसायिक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं मानता था पर...
दर-बारह दिन तक केवल जश्न ही मनाया था रमा और कुंदन ने. पैसे की उसे इतनी लालसा नहीं थी, पर मारवाड़ी कन्सर्न का काम उसके टेम्परामेंट के बिल्कुल अनुकूल नहीं था. रमा इस नए माहौल से नितांत अपरिचित नहीं थी--क्लब, डांस, डिनर, कॉक्टेल यह सब वह बचपन से देखती आई थी, पर बस देखती ही आई थी, उसमें अपने को कभी घुला नहीं पाई थी.
डॉ. फ़िशर ने कुंदन को नौकरी ही नहीं दी थी, धीरे-धीरे वे उसकी सारी ज़िदगी का पैटर्न भी तय कर रहे थे. उसे दो-तीन क्लबों का मेम्बर बनना पड़ा. आए दिन दूसरी कम्पनियों के बड़े-बड़े अफ़सरों को एंटरटेन करना पड़ता. विदेशियों को हिंदुस्तानी खाना खिलाने के बहाने उसे घर में भी बड़ी-बड़ी पार्टियां करनी पड़तीं. और तीन महीने पहले उसे कंपनी की ओर से यह फ्लैट मिल गया. उसने सोचा, वह अपने इस नए घर को निहायत ही ओरिऐंटल ढंग से सजाएगा, विदेशियों के लिए तो यही नवीनता होगी.
पर घर के लिए नया फ़र्नीचर बनवाने, चुन-चुनकर चीजें खरीदने के लिए दोनों में किसी के पास भी समय नहीं था. कुंदन चाहता था यह काम रमा को करना चाहिए; उसकी रुचि बहुत अच्छी थी, यों भी यह काम उसी का था...फिर उसकी सुरुचि और सुघड़ता के तो हल्ले भी थे मित्रों के बीच में. पर रमा के पास समय ही नहीं रहता. सबेरे उठकर वह बंटी को तैयार करके स्कूल भेजती. फिर खुद तैयार होती. तैयार होते-होते ही वह नौकर को आदेश देती जाती, सारे दिन का काम समझाती; नाश्ता करते-करते वह अपना लेक्चर तैयार करती, तैयार तो क्या करती बस सूंघ-भर लेती. फिर नौ बजे कुंदन के साथ ही निकल जाती. तीन के क़रीब वह लौटती...थोड़ा आराम करती और फिर शाम की तैयारी. बाहर नहीं जाना होता था तो घर में किसी को आना रहता था.
रात ग्यारह-साढ़े-ग्यारह पर वह सोती तो थककर चूर हो जाती. कुंदन को उस समय हल्की-सी खुमारी चढ़ी रहती, कहता-“डोंट बी सिली. पार्टी में कैसे थक जाती हो, गाड़ी में बैठकर जाती हो...खाना-पीना, हंसी-मज़ाक, इनमें भी कहीं थका जाता है? गाड़ी में बिठाकर ले आता हूं.”
रमा तब केवल सूनी-सूनी आंखों से उसे देखती रहती. मन की भीतरी परतों पर हिस्ट्री के वे टॉपिक्स तैरते रहते जो उसे कल पढ़ाने होते, और जिन्हें वह ज़बरन ही दिमाग़ से बाहर ठेलने का प्रयास करती. कुंदन उसे बताता रहता कि डॉ. फ़िशर उससे कितने ख़ुश हैं, कितना इम्प्रेस कर रखा है उसने; एकाएक ही उसे अपना भविष्य बहुत उज्ज्वल दिखाई देने लगा है. पता नहीं थकान के कारण या किसी और वज़ह से वह उतना उत्साह नहीं दिखा पाती तो कुंदन बिगड़ पड़ता—“क्या बात है, देखता हूं तुम्हें कोई दिलचस्पी ही नहीं है मेरे राइज़ में...यू सीम टू बी...”
“क्या बेकार की बातें करते हो, मुझे नींद आ रही है.”
कभी कुंदन फ़ोन पर कह देता कि ठीक सात बजे तैयार होकर रहना और आकर देखता कि वह तैयार हो रही है तो बिगड़ पड़ता--“रमा, तुम्हें टाइम की सेंस कब आएगी...” कभी घर पर खाना होता और कोई कसर रह जाती तो रात में बड़े संभलकर कहता—“मैं यह नहीं कहता कि तुम खाना बनाओ...तीन-तीन नौकर तुम्हारे पास हैं, पर ज़रा-सा देखभर लिया करो.” ऐसे मौक़ों पर रमा कुछ नहीं कहती.
उस दिन कॉलेज में रमा को एक पेपर पढ़ना था. उसने ख़ुद ही ऑफ़र किया था. सोचा था, इसी बहाने एक टॉपिक तैयार हो जाएगा, पर बिल्कुल भी तैयार नहीं कर पाई. रात में लेटी तो रोना आ गया.
“मुझसे यह सब निभता नहीं.” लौटकर बिना कपड़े बदले ही कटे पेड़ की तरह पलंग पर गिरकर उसने कहा.
“क्या नहीं निभता?”
“यह रवैया मेरे बस का नहीं है. कितनी गिल्ट फ़ील करती हूं. बिना तैयारी किए पढ़ाना, लगता है लड़कियों को चीट कर रही हूं. दो घंटे का समय भी मुझे अपने लिए नहीं मिलता.”
कुंदन सोच रहा था कि रात में रमा के साथ वह एक-एक कमरे को अरेंज करने की योजना बनाएगा. कलर-स्कीम के लिए उसने जेन्सन-निकलसन वालों से बात की थी. रमा की बात सुनी तो चुप रह गया.
“बंटी की रिपोर्ट देखी? हमेशा फर्स्ट आया करता था, इस बार सेविंथ आया हैं.”
बगल में लेटकर, रमा को अपनी ओर खींचते हुए कुंदन ने बहुत प्यार-भरे लहज़े में कहा—“तो तुम उसे पढ़ाया करो!”
“कब पढ़ाया करूं, तुम्हीं बताओ? शाम को पांच से सात बजे का जो समय मिलता है, उसमें वह खेलने जाता है.”
“तो तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं?” बालों में हाथ फेरते हुए कुंदन ने बहुत ही मुलायम स्वर में पूछा.
“कल मुझे पेपर पढ़ना है. पंद्रह दिन पहले टॉपिक मिला था. एक लाइन भी नहीं लिखी है...अब कोई झूठा बहाना ही तो बनाना पड़ेगा.”
कुंदन की उंगलियां बालों पर से उतरकर गालों पर फिसलने लगीं.
“दस साल पूरे हुए...छ-आठ महीने में अपनी थीसिस सबमिट कर देती तो मेरा सिलेक्शन-ग्रेड में आना निश्चित ही था, पर ऐसी हालत रही तो...”
और रमा रो पड़ी.
दूर कहीं कुंदन के कानों में डॉ. फ़िशर के शब्द गूंज रहे थे--जनवरी में जर्मनी से डाइरेक्टर आनेवाले हैं, हमें यहां का सारा काम दिखाना होगा. एक नया प्लांट बिठाने की भी योजना है, उसके लिए कुछ रिस्पॉन्सिबल लोगों की ज़रूरत होगी...सम स्मार्ट यंग मैन! बिज़नेस में सोशल कॉन्टेक्ट्स पे करते हैं. यू विल हैव टु बी वैरी सोशल.”
कुंदन को इन बातों में हमेशा अपने लिए कुछ संकेत, कुछ आश्वासन मिलते. “लकीली योर वाइफ़...”
“तुम मुझे छोड़ जाया करो. कोई ज़रूरी है कि मैं हर दिन तुम्हारे साथ ही जाया करूं?”
कुंदन कुछ देर उसे यों ही सहलाता रहा, फिर एकाएक उसे बांहों में भरता-सा बोला – “तुम्हें छोड़कर आज तक मैं कहीं गया हूं, जा सकता हूं? ऑफ़िस के अलावा हमेशा हम साथ जाते हैं. तुम तो जानती हो कि तुम्हारे बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता.”
रमा खुद इस बात को जानती है. उनका विवाहित जीवन दोस्तों के बीच ईर्ष्या और प्रशंसा का विषय रहा है. समझ नहीं पाई क्या कहे! वह जब तक सो नहीं गई, कुंदन उसे प्यार से थपथपाता रहा था.
“मेम साहब, परांठे अभी बनेंगे?”
“...ऐं?” चौंकते हुए रमा ने पूछा. फिर बोली—“नहीं-नहीं, साढ़े बारह बजे बनाना है, एक बजे हम कॉलेज जाएंगे आज. इतने एक चक्कर बाज़ार का लगा आऊं और सोफ़े का कपड़ा लाकर दे दूं.” उसने एक बार भीतर जाकर मिस्त्रियों को याद दिला दिया कि आज पॉलिश हर हालत में ख़त्म कर देनी है.
फिर अपनी डायरी देखी--बाज़ार से और क्या-क्या सामान लाना है. कपड़े बदलने अंदर गई तो देखा नौकर ने रैक से सारी किताबें निकाल रखी थीं और पोंछकर जमा रहा था.
इनमें से एक किताब भी उसने नहीं पढ़ी है, कुछ पर तो अभी तक अपना नाम भी नहीं लिखा है. कुंदन ने भी जोश में आकर एक दिन में इतनी ढेर-सी किताबें ख़रीदकर सामने रख दी थीं.
बात शुरू दूसरे स्तर पर हुई थी. कुंदन ऑफ़िस से लौटा ही था कि बिना किसी प्रसंग के रमा ने कहा--“मैं कॉलेज छोड़ दूंगी. इस तरह काम करने से तो नहीं करना ज़्यादा अच्छा है.” स्वर में न कहीं तल्खी थी न शिकायत, बड़े सहज स्वर में उसने कहा था.
कुंदन देखता रहा. यही वाक्य था जिसे उसने अनेक बार अनेक तरह से मन-ही-मन में दोहराया था, पर कहने का मौक़ा नहीं मिला था. अब तो उसे यह और भी ज़रूरी लग रहा था, क्योंकि जनवरी तक उसे अपना सारा घर डेकोरेट करना था...ओरिएंटल स्टाइल पर. फिर भी उसने पूछा—“क्या बात हो गई?”
“कुछ नहीं.”
कुंदन को इस समय और बात खींचना अच्छा नहीं लगा. चाय का प्याला हाथ में लिए ही लॉन में निकल गया. कैक्टस की जितनी वैराइटी ला सकता था, लाकर फाटक के दोनों ओर बड़ी ख़ूबसूरत रॉकरीज़ बनाई थीं. पर लॉन से वह अभी भी संतुष्ट नहीं था. चाहता था लॉन पर्शियन कार्पेट में बदल जाए.
रात में फिर वही प्रसंग चला. कुंदन उससे बचना भी चाहता था और जानना भी चाहता था कि रमा ने सचमुच ही यह निर्णय ले लिया है या कि केवल कुंदन पर अपना आक्रोश प्रकट कर रही है. पर रमा ने केवल इतना ही कहा—“अब निभता नहीं, कल इस्तीफ़ा दे दूंगी.”
स्वर के भीगेपन ने कुंदन को भी कहीं से छुआ ज़रूर फिर भी सारी बात को एक हल्के मज़ाक में बदलने के लहज़े से उसने कहा, “छोड़ो भी यार, वैसे भी क्या रखा है एंशिएंट हिस्ट्री पढ़ाने में! चोल वंश, चेदि वंश के बारे में न भी जानेंगे तो कौन-सी जिंदगी हराम हो जाएगी!”
रमा चुप!
“इससे तो तुम ख़ूब किताबें पढ़ो, मैग्ज़ीन्स पढ़ो...कुछ छुटपुट क्लासेज़ अटेंड कर लो. बंटी को पढ़ाओ. दुनिया भर के बच्चों को पढ़ाओ और अपना बच्चा निगलेक्ट हो...”
रमा चुप!
कुंदन उस चुप्पी पर खीज आया, फिर भी अपने स्वर को भरसक संयत बनाकर बोला, “तुम्हें शायद लग रहा है कि मेरी वजह से, इस नई नौकरी की वजह से तुम्हें अपना काम छोड़ना पड़ रहा है... पर यह तो सोचो, मुझे ही इस नौकरी में क्या दिलचस्पी है? तुम्हारे लिए, बंटी के लिए...”
“मैंने तो ऐसा नहीं कहा. मैं तो यही सोच रही थी कि आखिर मेरे मन के संतोष के लिए क्या होगा?”
“मेरा संतोष, तुम्हारा संतोष नहीं है, मेरी तरक्की, तुम्हारी तरक्की नहीं है?”
“है क्यों नहीं? मेरा यह मतलब नहीं था. दस साल से काम कर रही थी...छोड़ दूंगी तो मेरा मन कैसे लगेगा?”
“मैं तो सोचता हूं, तुम्हें यह सब सोचने का समय ही नहीं मिलेगा.” और शाम को उसने तीन बंडल किताबें लाकर सामने रख दी थीं.
और सचमुच उसके बाद उसे यह सब सोचने का समय ही कब मिला? आज भी मिसेज़ बर्मन के टेलीफ़ोन ने ही उसे कॉलेज की याद दिलाई, वरना...
सारे दिन गाड़ी में घूम-घूमकर उसने घर का सामान ख़रीदा है. पर्दो के लिए उसने लूम वालों से यह तय किया कि चालीस गज़ कपड़ा बनाकर वह उस डिज़ाइन को नष्ट कर देंगे, जिससे वैसे पर्दे और कहीं देखने को भी न मिलें. डिज़ाइन भी उसने खुद पसंद करके बनवाया था.
राजस्थान की किसी रियासत का बहुत-सा सामान नीलाम हुआ था. कितने दिनों तक वह वहां जा-जाकर बैठी थी--पुरानी पेंटिग्ज़, झाड़-फ़ानूस और भी सजावट की छोटी-मोटी चीज़ें उसने ख़रीदी थीं.
आज दरवाज़ों का पॉलिश समाप्त हो जाएगा तो सारा सामान जमाना है. डाइरेक्टर मुंबई आ गए हैं, अगले सप्ताह तक यहां आ जाएंगे, तब तक वह सब जमा लेगी. ‘इंटीरियर डेकोरेटर्स’ वालों के यहां से एक आदमी बराबर आता रहा है. तभी उसे फ़ोन का ख़याल आया.
लाइन एंगेज्ड थी.
वह बाहर जाने के लिए निकल ही रही थी कि टेलीफ़ोन की घंटी बजी. रमा ने रिसीवर उठाकर अपना नंबर बोला, “ओह, मैं सोच रहा था, तुम कहीं मार्केट के लिए नहीं निकल गई होगी.”
“बस निकल ही रही थी.”
“सुनो डार्लिंग, लंच पर मेरे साथ एक साहब होंगे, यहीं के हैं, बहुत फ़ॉर्मल होने की ज़रूरत नहीं है, बस ज़रा-सा देख लेना. डेकोरेटर को फ़ोन किया?”
“किया था, पर लाइन नहीं मिली, लौटकर फिर करूंगी.”
“ओ.के..” खट!
रसोई में जाकर रमा ने कहा—“थोड़ी सब्ज़ियां उबालकर इन उबले हुए आलुओं में मिला दो. परांठे नहीं बनेंगे, वेजिटेबिल कटलेट बना देना!”
फिर उसने फ्रिज़ खोलकर देखा--सब कुछ था. जब वह कॉलेज जाती थी तो कुंदन का लंच ऑफ़िस जाता था, पर आजकल वह लंच के लिए घर ही आता है.
पहली तारीख़! लंच के लिए कुंदन आया. जब भी वह घर आता, एक बार सारे घर का चक्कर लगाता. इस नई साज-सज्जा को हर एंगिल्स से देखता...और उसके चेहरे पर एक संतोषमय, गर्वयुक्त उल्लास चमकने लगता. कभी-कभी इसी उल्लास में रमा को बांह में भरता हुआ कहता—“यू आर रीयली वंडरफुल!” यों खुले में चूमने की मर्यादा वह तोड़ नहीं पाया था, उसी से केवल उसे दबाकर छोड़ देता.
पूरा चक्कर लगाकर बोला-“आई थिंक एवरीथिंग इज़ इन ट्यून! क्यों?”
कलफ़ लगा नैपकिन फड़फड़ाता हुआ उसकी गोद में फैल गया.
“अब कोई आए, मुझे चिंता नहीं. पांच तारीख़ को डाइरेक्टर आ रहे हैं--मैं इस बार एक बड़ी पार्टी घर पर ही करूंगा.”
रमा खाती भी जा रही थी और उसकी प्लेट का ध्यान भी रख रही थी. जो चीज़ ख़त्म हो जाती, रख देती.
“बस यार, वो रोब पटकना है कि डाइरेक्टर की नज़रों में जम जाऊं...एक बार ये लोग इम्प्रेस हो जाएं तो रास्ता साफ़ है. डॉ. फ़िशर तो जब भी कोई मौक़ा आएगा, मेरे फेवर में ही राय देंगे.”
रमा कुंदन के बच्चों-जैसे पुलकमय आवेश पर मंद-मंद मुस्कराती रही. “मेम साहब, आपका फ़ोन है.” “किसका है? बोलो बाद में करें. मेम साहब इस समय लंच ले रही हैं.”
कुंदन इस समय रमा को वह सारी बातें सुनाना चाहता था, जो आज उसके और फ़िशर के बीच हुई थीं. कितने स्पष्ट थे सारे संकेत! फिर भी वह अपने अनुमानों का रमा से समर्थन करा लेना चाहता था.
“कॉलेज से मिसेज़ बर्मन का है.” बैरा लौटने लगा.
अरे ठहरो! और रमा एकदम उठ खड़ी हुई.
बातें शुरू हुईं तो वह भूल ही गई कि कुंदन खाने की मेज़ पर बैठा है और वह खाना बीच में ही छोड़कर आई है.
“अरे डार्लिंग, आओ न! तुम औरतों का भी बस एक बार चरखा चल जाए तो ख़त्म ही नहीं होता.”
रमा लौट ही रही थी—“चरखा क्या, कोई इतने अपनेपन से बुलाए तो मैं ठीक से बात भी न करूं! यह भी कोई बात हुई भला?”
“अच्छा-अच्छा, अब अपना खाना ख़त्म करो.” “तुम्हारा हो गया तो तुम उठो न!” “नो...नो...यह कैसे हो सकता है भला?”
खाने के बाद कॉफ़ी लेकर, ईज़ी चेयर पर आराम करते हुए कुंदन ने सिगरेट सुलगा ली और गोल-गोल छल्लों के रूप में धुआं उगलता रहा. फिर रोज़ की तरह पांच मिनट के लिए आंख मूंद लीं. रमा अख़बार पलटने लगी.
“अब चलें.” झटके से कुंदन उठ खड़ा हुआ.
कोट उठाया तो तनख़्वाह की याद आई. भीतर की जेब से नोट के दो बंडल निकाले -एक बड़ा, दूसरा छोटा.
“अरे, यह क्या, तनख़्वाह ले आए? आज क्या पहली तारीख़ हो गई?” रमा को आजकल तारीख़ और दिनों का कुछ ख़याल ही नहीं रहता.
“ये आया, बैरा और ख़ानसामा के हैं. अस्सी, अस्सी और सौ!” छोटा बंडल बढ़ाते हुए कुंदन ने कहा. रमा ने बंडल ले लिया. “और यह तुम्हारा है.” फिर ज़रा-सा झुककर बोला.
“अब जो मुनासिब समझो, इस गुलाम को पान-सिगरेट के लिए दे देना.” और हंस पड़ा. रमा भी मुस्करा दी.
“बा....बाई...” और लाल बजरी की सड़क पर तैरती हुई कुंदन की कार रमा को वहीं छोड़कर आगे चली गई.