पाबंदियों की कृषि नीति
By: divyahimachal: प्रधानमंत्री मोदी गरीब, किसान, महिला और युवा को ही ‘जातियां’ मानते हैं। हाल के विधानसभा चुनावों में उन्होंने यह खूब प्रचार किया और ‘जातीय गणना’ की सियासत को खारिज किया। वैसे भी किसान और खेती प्रधानमंत्री की प्राथमिकताओं में रहे हैं। हालांकि सवाल भी कई उठते रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय मंत्री …
By: divyahimachal:
प्रधानमंत्री मोदी गरीब, किसान, महिला और युवा को ही ‘जातियां’ मानते हैं। हाल के विधानसभा चुनावों में उन्होंने यह खूब प्रचार किया और ‘जातीय गणना’ की सियासत को खारिज किया। वैसे भी किसान और खेती प्रधानमंत्री की प्राथमिकताओं में रहे हैं। हालांकि सवाल भी कई उठते रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को ‘राष्ट्रीय बॉयोफ्यूल नीति’ का श्रेय भी दिया जा सकता है, लेकिन सरकार ने गेहूं, चावल, चीनी और प्याज के निर्यात पर जैसी पाबंदियां थोप रखी हैं और एथनॉल उत्पादन के भी सख्त दिशा-निर्देश जारी किए हैं, उनसे कृषि-व्यापार से जुड़ा प्रत्येक शख्स, किसान और कारोबारी, चीनी मिलें आदि परेशान हैं।
एक तरफ पेट्रोल आदि में 11.8 फीसदी तक एथनॉल के मिश्रण का अभियान जारी है, तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने चीनी मिलों को निर्देश दिए हैं कि गन्ने के रस या सिरप से एथनॉल का उत्पादन न किया जाए। यह कृषि-व्यापार से जुड़े वर्ग के लिए ‘नीतिगत आघात’ है। मोदी सरकार का दोगलापन भी सामने आया है कि कमोबेश एथनॉल वाला आदेश सरकार के ही सुधारवादी इरादों और नीतिगत प्रयासों के विपरीत है। बल्कि उन्हें खंडित करता है। कुछ अनाजों पर पाबंदी थोपी गई है, क्योंकि भारत के लिए अपनी खाद्य-सुरक्षा के लक्ष्य पहले जरूरी हैं। देश में गेहूं, चावल, चीनी का संकट नहीं होना चाहिए। यही प्याज पर भी लागू होना चाहिए, जब अचानक प्याज महंगा हो जाता है। ऐसा क्यों होता है?
किसानों को अपनी राष्ट्रीय मंडियों में अपनी फसल का उचित भाव नहीं मिलता, तो कई किसान-समूह अपनी फसल निर्यात करना चाहते हैं, लेकिन सरकार ने पाबंदियां थोप रखी हैं। हालांकि सरकार के ऐसे भी निर्देश हैं कि दालों के सीमित भंडार होने चाहिए, लेकिन महंगाई के दौर में जमाखोरों की चांदी होने लगती है और सरकार उन पर कोई कार्रवाई करती हुई भी नहीं दीखती। निर्यात पर पाबंदी और उत्पादक उतनी ही मात्रा में उत्पादन करें, जितना भंडारण करने की अनुमति है। दरअसल यह उन खेती कानूनों के खिलाफ है, जो सितंबर, 2020 में संसद ने पारित किए थे, लेकिन नवम्बर, 2021 को जिन्हें रद्द करना पड़ा था।
एथनॉल के ही संदर्भ में लें, तो गन्ने के रस से एथनॉल पैदा करने के लिए मिल मालिकों ने नई डिस्टिलरियां स्थापित करने में काफी धन का निवेश किया था। गन्ना मिल और किसान आपस में पूरक हैं। अब सरकारी नीति के मद्देनजर व्यापारियों को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। चीनी के राजस्व का भी बलिदान देना पड़ेगा। सरकार के मूल आदेश में संशोधन किया गया है कि मिलों को अब एथनॉल बनाने की अनुमति, गन्ने के सीमित रस अथवा ‘बी-हैवी’ गुड़ तक ही, दी जा सकती है। वे 17 लाख टन से ज्यादा गन्ना या गुड़ का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। यह शर्त चीनी मिलों की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ सकती है।
एथनॉल ईंधन के लिए कम गन्ने या चीनी के इस्तेमाल के मायने हैं कि आम उपभोक्ता के लिए खाद्य के तौर पर चीनी उपलब्ध रहे। सवाल है कि क्या भारत में चीनी का उत्पादन भी कम हुआ है और आम आदमी के लिए उसके संकट के भी आसार हैं? चीनी के निर्यात पर भी मई माह से पाबंदी है। अनुमान है कि चीनी का इस साल का उत्पादन 30 मिलियन टन से भी कम हो सकता है। बहरहाल, सवाल यह है कि सरकार या तो एथनॉल उत्पादन के पक्ष में है अथवा इसे एक सीमा तक ही जारी रखना चाहती है, यह असमंजस भारत सरकार को स्पष्ट करना चाहिए।