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ज्ञान के अरण्य में पगडंडियों का निर्माण किया, ताकि हम अपने पथ से कभी विचलित न हों।
आज हम पर्यावरण की समस्या पर विचार करते हैं, तो हिंदी के सुपरिचित कवि पंकज चतुर्वेदी की एक कविता की ये पंक्तियां बरबस याद आती है-
चाहतें ! कितनी छोटी है उनकी
वे चूस लेना चाहते हैं-
पेड़ों से हरापन
पहाड़ों से दृढ़ता
नदियों से प्रवाह
इनके बिना, कैसी
लगेगी दुनिया
दरअसल ये चंद सवाल हैं, उस व्यवस्था और विकास के उस मॉडल से, जो प्रकृति को एक संसाधन समझते हैं और प्रकृति से वह सब कुछ छीन लेना चाहते हैं जो उसका अपना है, जिन पर सबका हक है। जो आज प्रकृति की इस अनमोल विरासत को सिर्फ अपनी ही तिजोरियों में कैद करने की तीन-तिकड़म में लगे हैं।
यह सिलसिला तो यूरोप में आधुनिक औघोगिक विकास के मॉडल के साथ ही अस्तित्व में आया। मानव जगत की सुख-समृद्धि, विलासिता-एशोआराम के लिए ही तो प्रकृति को एक संसाधन मानकर शोषण के वे तमाम उपाय किए गए जिससे दुनिया के हिस्से में समृद्धि के टापू बनते गए। वहीं दूसरी ओर दुनिया हिस्से कंगाली-बदहाली, भुखमरी-विस्थापन-पलायन-अकाल मौतों से तबाह होते गए।
इन घटनाओं की बड़ी वजह दुनिया के समृद्ध देशों देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब-बेरहम, स्वकेन्द्रित उपभोग- शोषण तो हैं ही। गरीब देशों के आमजन के लिए जरूरी संसाधनों तक पहुंच, आज भी इतना आसान नहीं हैं।
नतीजतन हर साल अकाल से होने वाली मौतों में निरंतर इजाफा हो रहा है। पृथ्वी पर मानव जीवन की मौलिक जरूरतों -जल, वायु अन्न का संकट भी बढ़ रहा हैं और स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों में लगातार वृद्धि हो रही हैं। हाल में स्वास्थ्य के मामले में दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका "द लांसेट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल" में बताया गया
सन् 2019 में वैश्विक स्तर पर हुई 90 लाख मौतों के लिए प्रदूषण जिम्मेदार है। सन् 2000 के बाद वायु प्रदूषण से मरने वालों की संख्या में 55 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हर तरह के प्रदूषण से होने वाली मौतों में दुनिया के दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों- चीन और भारत का स्थान शीर्ष पर हैं। प्रदूषण की वजह से इस दौरान भारत में 24 लाख और चीन में 22 लाख लोगों की मौतें हुई है। सवाल है कि वायु प्रदूषण के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं?
जिन कारणों से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है- उसके लिए प्रकृति नहीं-मनुष्य ही जिम्मेदार और जवाबदेह भी हैं।
प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर
आज दिल्ली जैसे महानगर में पड़ोसी राज्यों के किसानों के पराली जलाने की वजह से दम घुटता है, सांस लेना दूभर हो रहा है। सड़कों पर चलने वाले वाहनों के धुएं से निकलने वाले 'कार्बन मोनोऑक्साइड और औघोगिक फैक्टरियों से निकलने वाले धुंए मनुष्यों के श्वसन प्रणाली को किस खतरनाक तरीके से प्रभावित कर रही हैं, यह वही समझ सकता हैं, जो इसे झेल रहा हैं।
आज सड़कों पर बहुतायत में वाहनों का चलना इस बात की तस्दीक करता हैं कि, गाड़ियां एक खास तबके के लिए जरूरत से ज्यादा 'स्टेटस सिंबल' का प्रतीक बन गई हैं। इस बढ़ते प्रदूषण की वजह से ही अब इलेक्ट्रिक कार और 'ग्रीन हाइड्रोजन' कार का प्रचलन बढ़ रहा है।
बढ़ते प्रदूषण का ही नतीजा है कि गंगाघाटी में 'गॉल ब्लैडर कैंसर' के 80 फीसद मरीज पाएं गए हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के डॉक्टरों ने अपने हालिया एक शोध में पाया हैं कि ' गंगा जल में भारी धातुओं की उपस्थिति और टाइफाइड बुखार 'गॉल ब्लैडर कैंसर' की बड़ी वजह है। यह शोध कार्य ऑन्कोलॉजी विभाग के हेड प्रोफेसर मनोज पांडे, प्रोफेसर वी के शुक्ल और उनके टीम के सदस्यों ने किया हैं। यह टीम तीन सौ मरीजों के 'सैंपल परीक्षण' के बाद इस नतीजे पर पहुंची है।
प्रो मनोज पाण्डेय बताते है कि, औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण भारी धातुओं जैसे निकल, आर्सेनिक कॉपर भारी मात्रा में गंगा जल में मिल जाता है। ये धातु भूगर्भ जल स्रोतों में भी पहुंच जाते हैं, जिनका उपापचय नहीं हो पाता और जीवन भर आदमी के शरीर में मौजूद रहते हैं। गंगा की सहायक नदियों में भी इन धातुओं की उपस्थिति पाई जाती है। इस जल से सिंचित सब्जियों-फलों के माध्यम से भी ये तत्व मानव शरीर में पहुंच जाते हैं।
ये तत्व जीवन भर मानव शरीर में रहते हैं। पटना महाबीर कैंसर अस्पताल के अधीक्षक एल बी सिंह भी बताते है कि
गंगा से सटे शहरों में रोगियों के 'सैम्पल सर्वे ' में इस बात की पुष्टि होती है कि हर एक लाख की आबादी में बीस से पच्चीस मरीज 'ब्लैडर कैंसर' के शिकार हैं। सवाल यह है कि जिस गंगा को हम सदियों से जीवनदायिनी-मोक्षदायिनी मानते आ रहे हैं- वह हमारी मौत का कारण क्यों बन रही है?
जाहिर है कि ये सारे कारण मानव निर्मित हैं। समाधान भी हमें ही ढूढ़ना होगा।
प्रदूषण की इन निरन्तर जटिल हो रही समस्याओं के मूल में प्रकृति के प्रति मानव-व्यवहार और उसकी विभिन्न गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं।
प्रदूषण की इन निरन्तर जटिल हो रही समस्याओं के मूल में प्रकृति के प्रति मानव-व्यवहार और उसकी विभिन्न गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। - फोटो : amar ujala
प्रकृति का नुकसान
प्रदूषण की इन निरन्तर जटिल हो रही समस्याओं के मूल में प्रकृति के प्रति मानव-व्यवहार और उसकी विभिन्न गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। प्रकृति के प्रति हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए? सभ्यता काल से ही हमारे वैदिक ऋषि हमें आगाह करते आ रहे हैं। हमारे दार्शनिक चिंतन के केंद्र में भी मनुष्य ही रहा है। वेद व्यास जी ने महाभारत के शांतिपर्व में हमें बताया है कि-
गुह्यं ब्रम्ह तदिदं ब्रवीमि
नहि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्
महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि, यह रहस्य ज्ञान तुमको बताता हूं, मनुष्य से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है। लेकिन प्रकृति की सम्पूर्ण अनमोल धरोहर केवल मनुष्यों के सुख-सुबिधायें भोगने के लिए नहीं हैं। ऐसा ही ग्रीक दार्शनिक प्लेटो मानते है।
पृथ्वी जगत, भूजगत वनस्पति जगत और अंतरिक्ष जगत में शान्ति की प्रार्थना हमारे वैदिक ऋषियों ने इस लिए किया है ताकि इनमें साम्य बना रहे। इनमें किसी भी तरह की विषम स्थिति वायुमंडल में प्रदूषण का कारण हो सकती हैं। हमारे वैदिक ऋषियों ने कहा हैं-
घौ शान्ति अंतरिक्ष शांति: पृथ्वी शांतिराप:शांतिरोषधः शांति: वनस्पतयः शान्ति:शांति:शांतिरेव शांति: सामा शांतिरेधि।।
यजुर्वेद में हमने आदर के साथ- वनानां पतये नम:। वृक्षराणां पतये नम:।औषधीनां पतये नम:।। कहा है, इसका एक मतलब यह भी है कि, हमारे लिए नदियां-वनस्पतियां, हमारी पर्वत श्रृंखलाएं महज मिट्टी, पत्थर, नदियां जल की धारा और वनों के पेड़ निर्जीव काठ नहीं, पूज्य देवता हैं।
पृथ्वी को जहां अथर्ववेद में "माता भूमि: पुत्रोsहं पृथिव्या:" कहा है, वहीं भारत के उत्तर दिशा में स्थित पर्वतराज हिमालय को देवता तुल्य बताया गया है।
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा,
हिमालयो नाम नागधिराज:।
पूर्वापरौ तोषनिधी वगाहय
स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:।।
(कालिदास, कुमार सम्भव से)
अर्थात् उतर दिशा में हिमालय नाम का जो पर्वतराज है वह देवात्मा है, देवस्वरूप है। वह पूर्व और पश्चिम के समुद्रों के बीच में पृथ्वी के मानदण्ड की तरह व्याप्त है। हमारे ऋषियों ने तीर्थों का महात्म्य कल्पित कर उसे मोक्ष धाम बताया।
प्रकृति की पूजा का चलन
हमारी माताएं अखण्ड सौभाग्यवती होने के लिए बटवृक्ष की पूजा करती है। हमारे भविष्यदर्शी ऋषियों ने हमारे आसपास व्याप्त परिवेश को देवत्व प्रदान किया, जो नदी-पर्वत-वन-अंतरिक्ष और भूलोक के रूप में हमें आच्छादित किए हुए है।
ईशावास्योपनिषद के एक श्लोक में कहा गया है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच् , जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृद्व: कस्वसिद्वनम् ।।
अर्थात् इस जगत् के कण-कण में ईश्वर का वास है। इसलिए इसके प्रत्येक पदार्थ का त्याग पूर्वक उपभोग करना चाहिए। भोग के लिए लालच की दृष्टि से इन प्राकृतिक पदार्थों का उपभोग नहीं करना चाहिए। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हमारी यहीं सीख महात्मा गांधी को यह मानने के लिए विवश करती है कि, अगर सृष्टि के विनाश के बाद भी महज यही एक श्लोक बचा रहे तो भारत के लोग नई सभ्यता का निर्माण कर सकते हैं।
आज जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण असंतुलन की मुख्य वजह यह है कि मनुष्य की जरूरत और लालच के बीच का फर्क मिट गया है। यही हमारी तमाम पर्यावर्णीय समस्याओं का मूल कारण है। प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारी को समझने-समझाने के लिए सन् 1972 से हम 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मानते आ रहे हैं। इस अवसर पर हमें अपने ऋषयों को भी नमन करना चाहिए, जिन्होंने इन विकट परिस्थितियों के प्रति हमें सचेत किया है-
इदं नमः ऋषिभ्य: पूर्वजेभ्य: पूर्वेभ्य: पथिकद्भ्य:।
। ।ऋग्वेद 10.14.15 ।।
पूर्व के अपने उन ऋषयों को प्रणाम, जिन्होंने ज्ञान के अरण्य में पगडंडियों का निर्माण किया, ताकि हम अपने पथ से कभी विचलित न हों।
सोर्स: अमर उजाला
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