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आखिर क्या होते हैं काइपर घेरे? जानिए इसके कुछ खास पिंडों की जानकरी

Gulabi
8 Sep 2021 4:52 PM GMT
आखिर क्या होते हैं काइपर घेरे? जानिए इसके कुछ खास पिंडों की जानकरी
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हमारा सौरमंडल भी रहस्यों से कम भरपूर नहीं है

हमारा सौरमंडल (Solar System) भी रहस्यों से कम भरपूर नहीं है. हाल के कुछ सालों में हमारे वैज्ञानिकों के पास उन्नत उपकरण और तकनीक से हमारे अंतरिक्ष ज्ञान में बड़ी वृद्धि हुई है. सौरमंडल में काइपर घेरा (Kuiper Belt) अब भी सबसे रहस्मयी इलाका है. वैसे तो यह केवल क्षुद्रग्रह पट्टी जैसी डिस्क है. लेकिन सौरमंडल के बाहरी हिस्से में स्थित यह घेरा नेप्च्यून (Neptune) ग्रह की कक्षा से भी बहुत दूर है. काइपर घेरे की सूर्य से दूरी पृथ्वी-सूर्य के बीच की दूरी के 50 गुना है. जबकि वह नेप्च्यून से यह वह उस दूरी के 50 गुना दूर है. इस घेरे के कई पिंड वैज्ञानिकों के लिए बहुत दिलचस्प हैं.

जहां क्षुद्रग्रह बहुत सारे चट्टान और धातु से बने होते है, काइपर घेरे के पिंड (KBO) बर्फों (Ices) से बने पिंड होते जिनमें जमी हुई मीथेन, अमोनिया और पानी होता है. माना जाता है कि यह शुरुआती सौरमंडल (Solar System) के अवशेषों से बना है. काइपर घेरा तीन बौने ग्रहों प्लूटो, हाउमेया और मेकमेक का घर माना गया है. इसके अलावा सौरमंडल के कई चंद्रमा भी इसी काइपर घेरे से आए बताए जाते हैं. इसमें नेप्चूयन के ट्रिटोनक, शनि के फीबी शामिल हैं.
काइपर घेरे (Kuiper Belt)) को नाम डच खगोलविद जीरार्ड काइपर के नाम पर दिया गया है जबकि मजेदार बात यह है कि काइपर ने इसे अस्तित्व का पूर्वानुमान नहीं लगाया था. साल 1992 में प्लूटो (Pluto) और चेरोन नाम के बौने ग्रह की खोज के बात एल्बियोन नाम का पिंड खोजा गया जिसके बाद से KBO नाम के पिंडों की खोज की झड़ी लग गई. तब से KBO की संख्या हजारों में पहुंच चुकी है. माना जाता है कि करीब एक लाख KBO ऐसे हैं जिनका व्यास 100 किमी होगा.
KBO भी सूर्य का चक्कर लगाने वाले पिंड हैं, लेकिन उनकी कक्षा सौरमंडल (Solar system) के ग्रहों से कुछ अलग है. इन्हें शास्त्रीय KBO (Classical KBO) कक्षा कहा जाता है जो नेप्च्यून से निश्चित दूरी के भीतर चक्कर लगाते हैं. इन्हीं में एक समूह ठंडे शास्त्रीय KBO (cold classical KBO) या CCKBO कहा जाता है. इनकी कक्षा का ग्रहों की कक्षा के झुकाव कोण बहुत ही कम होता है जो करी 6 डिग्री से कम होता है.
खगोलविदों को लगता है कि CCKBO उसी जगह बनते हैं लेकिन वे नेप्च्यून (Neptune) से बिखेरे गए अपनी कक्षा में पिंडों से नहीं बनते हैं. वे किसी अन्य प्रक्रिया से भी नहीं बनते हैं. उनका यह इतिहास के झुकाव कोणों से पता चलता है. CCKBO आमतौर पर लाल रंग के होते हैं. उनमें से तीस प्रतिशत अपने युग्म जोड़े (Binary) से बहुत अलग हो चुके होते हैं. हाल ही में एक बहुत कम पाया जाने वाला CCKBO समूह दिखाई दिया है जो धुंधले रंग का है और इसके सभी पिंड जोड़े में हैं.
हाल ही में शोधकर्ताओं की टीम ने 98 KBO के ऑप्टिकल कलर मापन (optical color measurements) किया जिससे CCKBO की संख्या 87 से 113 तक पहुंच गई. CCKBO रंगों के बड़ी संख्या में नमूनों के कारण शोधकर्ता रंगों और युग्मता (Binarity) में भी संबंध का पता लगा सके थे. वैज्ञानिक मानते हैं कि CCKBO बाहर निकलकर बचे हुए पिंड हैं जो दूसरे शास्त्रीय KBO के साथ मिल गए, जब नेप्च्यून अपनी कक्षा में आया था. सिम्यूलेशन्स के जरिए शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि शास्त्रीय क्षेत्र में बने ज्यादातर पिंड एक युग्म की तरह बने और साथ ही रहे.
शोधकर्ताओं का मानना है कि ये पिंड युग्म (Binary) के तौर पर साथ तब भी रहे जब ये दूर रहे और इसी वजह से वे कमजोर भी थे. सिम्यूलेशन इस धारणा को मजबूत करते है कि नीले रंग वाले बचे हुए पिंड बाहर धकेले गए थे. खगोलविदों की दलील है कि इन नीलें पिंडों का और ज्यादा अध्ययन यह जानने में मदद कर सकता है कि सौरमंडल (Solar System) के शुरुआती समय में नेप्च्यून (Neptune) ने अपने विस्थापन के लिए कौन सा रास्ता अपनाया था.
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