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सम्पादकीय
उत्तराखंड : चारधाम यात्रा में खच्चरों की भी सुध ली जाए, इन पर निर्भर है हजारों परिवारों की आजीविका
Rounak Dey
1 May 2022 2:04 AM GMT

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जनभागीदारी से इस तरह की सुविधा खच्चरों को भी दी जानी चाहिए।
उत्तराखंड में हजारों परिवारों की आजीविका खच्चरों पर ही निर्भर है। मुख्यतया उनकी जरूरत ऐसे सैकड़ों दुर्गम गांवों में होती है, जहां खच्चर के बगैर जरूरी सामान पहुंचना ही मुश्किल हो जाए। दशकों पहले भारत और चीन के बीच युद्ध की बनती परिस्थितियों में स्थानीय लोगों ने सेना के लिए खच्चरों से रसद आदि ढोने का काम किया था। लेकिन सड़कों के विस्तार के साथ खच्चरों का काम कम होता गया।
अब पांच-छह माह की चारधाम यात्रा या पर्यटन सीजन में खच्चरों से जो कुछ कमाई होती है, उससे ही साल भर लोगों का घर चलता है। असमर्थ तीर्थयात्री व पर्यटक भी जब-तब खच्चरों की सवारी कर लेते हैं। चार धामों में विशेषकर केदारनाथ धाम में यात्रा सीजन के पहले से ही दुकानों, होटलों आदि में खच्चरों से सामान व निर्माण सामग्री पहुंचना शुरू हो जाता है।
औसतन 5,000 स्थानीय खच्चर केदारनाथ व इतने ही बदरीनाथ व हेंमकुंड साहिब में होते हैं। मई के महीने में करीब दो-तीन हजार खच्चर और बाहरी क्षेत्रों से आ जाते हैं। अकेले गोविंट घाट घांघरिया में 3,000 से अधिक घोड़े, खच्चर प्रतिवर्ष चार महीने में अच्छी कमाई कर लेते हैं । स्कूलों की छुट्टी रहने पर परिवार के छात्र भी खच्चरों के साथ हो लेते हैं।
वर्ष 2013 में 16 एवं 17 जून को केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुंड क्षेत्र में अतिवृष्टि व बादल फटने के कारण अनेक खच्चर मंदाकिनी नदी में बह गए थे। खच्चरों के साथ चलने वालों का कहना था कि यदि वे खच्चरों को छोड़कर नहीं भागते, तो उनका भी मरना तय था। जगह-जगह मरे पड़े खच्चरों की तस्वीरें आज भी किसी को विचलित कर सकती हैं।
जनादेश संस्था चमोली के सचिव लक्ष्मण सिंह नेगी के अनुसार, अकेले गोविंदघाट-घांघरिया में 80 से अधिक घोड़े/खच्चर मरे थे। असहाय लोगों के जीविकोपार्जन के साधन समाप्त हो गए थे। इतना ही नहीं, घोड़े/खच्चर चालक एक माह से अधिक समय तक गोविंद घाट क्षेत्र में पुल टूटने के कारण बिना खाद्यान्न व चारा, दाना के फंस गए थे।
तब घोड़े/खच्चर संचालकों व उनके परिजनों को जोशीमठ तहसील में 15 दिनों तक धरना तक देना पड़ा था। जनादेश संगठन द्वारा राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में शिकायत करने के बाद प्रशासन द्वारा गोविंद घाट में फंसे घोड़े/खच्चरों को निकालने और पुल निर्माण का काम किया गया था।
उसके बाद दो साल तक कोविड महामारी के कारण खच्चर संचालक चारधाम यात्रा से ज्यादा कुछ कमा नहीं पाए। इस बार इस सप्ताह से शुरू होने वाली चारधाम यात्रा को लेकर इन्हें बड़ी उम्मीदें हैं। अब तक एक लाख से ज्यादा यात्री अग्रिम बुकिंग करवा चुके हैं। तीर्थयात्रियों की पहली पसंद केदारनाथ धाम है। परिवहन व्यवसायियों के पास भी ऑनलाइन बुकिंग हो रही है। ऐसे में क्या खच्चरों के लिए सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं ऑनलाइन बुकिंग की पहल नहीं कर सकती हैं। श्रध्दालुओं को कोई दिक्कत न हो, इसकी सरकारी व निजी स्तर की तैयारियों में भी इसे शामिल किया जा सकता है।
इस यात्रा सीजन में खच्चर कमजोर व बीमार न रहें, यह सुनिश्चित करना जरूरी है। इसमें पशुधन सहायकों की बेहतर उपलब्धता मददगार हो सकती है। यात्रा मार्ग में खच्चरों के लिए पानी, चारा, आराम, मल-मूत्र त्याग की स्वच्छतापूर्ण व्यवस्था आवश्यक है। रूद्रप्रयाग के एक पूर्व जिलाधीश ने तो एक बार खच्चर वालों को थैले भी दिए थे, ताकि वे राह में लीद के बिखराव को रोक सकें। खच्चरों को नशा करवाने की आदत से बचने व सही माप की नाल ठुकवाने के लिए खच्चर संचालकों को जागरूक करना जरूरी है।
खच्चर करीब-करीब वे सभी काम कर सकते हैं, जो गधे या घोड़े करते हैं।
जंगलों से बाहर हजारों साल ईसा पूर्व से ही मनुष्य घोड़ी और गधे के बीच संसर्ग से खच्चरों का प्रजनन करवा कर उन्हें पालतू बनाकर काम लेता रहा है। ऐसा सबसे पहले तुर्की में हुआ था। मिस्रवासी पालतू पशु के तौर पर ऊंटों से ज्यादा खच्चरों को अपनाते थे। इन्हें घोड़ों और गधों से ज्यादा मूल्यवान माना जाता था। घोड़ों के मुकाबले खच्चर ज्यादा समय तक सेवा दे सकते हैं, क्योंकि खुराक कम होने के बावजूद इनकी प्रतिरोधी क्षमता बेहतर होती है।
ये अच्छी तरह से धूप-बरसात सह सकते हैं। खच्चरों का औसत वजन 370 से 460 किलो के बीच होता है। वे अपने वजन का 20 से 30 प्रतिशत तक वजन लेकर 26 किलोमीटर तक चल भी सकते हैं। अमेरिका में इनसे हल भी जुतवाया जाता था। फौजों के लिए भी ये पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत उपयोगी होते हैं।
खच्चर का व्यवसाय इसलिए भी खर्चीला पड़ जाता है, क्योंकि खच्चरों में अन्य पालतू पशुओं की तरह प्रजनन क्षमता नहीं होती है। इन्हें खरीदना पड़ता है। उत्तराखंड में भी इन्हें बेचने वाले व्यापारी बाहर से यात्रा सीजन में आते हैं। कोविड काल में ऐसे व्यापारियों के न आने से आपस में ही खरीद-बिक्री हुई थी। अब खच्चरों की कीमत एक लाख रुपये तक पहुंचने के कारण भी सामान्य आर्थिक हालत वाले परिवार इन्हें किराये पर लेकर चलाते हैं।
अच्छी आर्थिक स्थिति वाले या व्यवसायी अपने पास खच्चरों की दो-तीन जोड़ियां रख इनमें से कुछ को दूसरों से किराये पर चलवाते हैं। खच्चरों का उपयोग खनन कार्यों में भी होता है। सितंबर, 2020 में मध्य प्रदेश से एक खबर आई थी कि पर्यटकों को घुमाने वाले हाथियों को अवकाश, मनपसंद भोजन दिया जाएगा और सुगंधित तेलों से उनकी मालिश करवाई जाएगी। जनभागीदारी से इस तरह की सुविधा खच्चरों को भी दी जानी चाहिए।
सोर्स: अमर उजाला
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