विश्व

आज के दिन साल 1931 में भगत सिंह को दी गई थी फांसी, पढ़े वो किस्सा जब मोहम्मद अली जिन्ना ने दिया साथ

jantaserishta.com
23 March 2021 9:41 AM GMT
आज के दिन साल 1931 में भगत सिंह को दी गई थी फांसी, पढ़े वो किस्सा जब मोहम्मद अली जिन्ना ने दिया साथ
x

शहीद-ए-आजम भगत सिंह का जन्म अविभाजित भारत के फैसलाबाद में हुआ था. अब यह पाकिस्तान में है. ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें फांसी लाहौर के सेंट्रल जेल में दी और यह भी अब पाकिस्तान में ही है. भगत सिंह को आज के दिन ही साल 1931 में फांसी दी गई थी. भगत सिंह की मौत गुलाम भारत में ही हुई.

भगत सिंह की फांसी के 16 साल बाद ब्रिटिश हुकूमत से भारत आजाद हुआ. लेकिन यह आजादी भारत के विभाजन के साथ आई. भगत सिंह ने कल्पना भी नहीं की होगी कि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उनकी लड़ाई का अंत हिन्दू और मुसलमान के नाम पर विभाजन के साथ खत्म होगी. भगत सिंह ने बहुत ही कम उम्र, महज 23 साल में बौद्धिकता के उस स्तर को हासिल कर लिया था, जिसे इंसान अपने पूरे जीवन में भी नहीं पाता है. इतनी छोटी उम्र में ही उन्होंने बताया कि वो नास्तिक हैं और इसका जो उन्होंने तर्क दिया वे अकाट्य हैं.
भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ था लेकिन उनके जीवन में धर्म की जगह कहीं नहीं थी. यहां तक कि उनकी असली तस्वीर में कहीं पगड़ी नहीं होने की बात कही जाती है. भगत सिंह की आजादी की लड़ाई का फलक इतना विस्तृत था कि उसमें कोई संकीर्णता नहीं थी.
सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के लोग सवाल पूछ रहे हैं कि भगत सिंह का जन्म पाकिस्तान में हुआ. उन्हें फांसी भी वहीं दी गई. उनकी लड़ाई ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ थी. इसके बावजूद वो पाकिस्तान के हीरो क्यों नहीं हैं? पाकिस्तान के शहराम अजहर बकनेल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं. उन्होंने आज शहीदी दिवस के मौके पर एक वीडियो संदेश डाला है. शहराम कहते हैं, ''भगत सिंह एक ऐसा भारत चाहते थे, जिसमें तमाम मजहब, जुबान और नस्ल के लोग आपसी सौहार्द से रहें. वो किसी की पहचान को मिटाने की हिमायत नहीं करते थे. उनका मानना था कि जब तक इंसान को आर्थिक आजादी नहीं मिल जाती तब तक सियासी आजादी का कोई मतलब नहीं है.''
शहराम कहते हैं, ''सितंबर 1929 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जब जेल में भूख हड़ताल पर थे तो शिमला में सेंट्रल असेंबली की बैठक हुई थी. तब मोहम्मद अली जिन्ना उस सेंट्रल असेंबली में बॉम्बे को रिप्रजेंट कर रहे थे. उस असेंबली में जिन्ना ने भगत सिंह की भरपूर हिमायत की. जिन्ना ने कहा था, 'आपको अच्छी तरह से पता है कि ये अपनी जान देने के लिए भी तैयार हैं. ये कोई मजाक की बात नहीं है. जो व्यक्ति भूख हड़ताल पर जा रहा है, वो अपनी आत्मा की आवाज सुनता है और एक मकसद के लिए जीता है. ऐसा करना हर किसी के बस की बात नहीं है. आप ऐसा करके देखें तब पता चलेगा... वो कोई हत्या या घृणित अपराध का दोषी नहीं है.'' जिन्ना ने कहा था कि भगत सिंह के साथ एक राजनीतिक कैदी के बजाय अपराधी की तरह बर्ताव किया जा रहा है जोकि बिल्कुल गलत है.
दरअसल, भगत सिंह भूख हड़ताल की वजह से अदालत में पेश नहीं हो पा रहे थे. इसीलिए ब्रिटिश हुकूमत ने सेंट्रल लेजिसलेटिव एसेंबली में एक बिल पेश किया था जिसमें आरोपी की गैर-मौजूदगी में भी मामले की सुनवाई करने की इजाजत मांगी गई थी. सितंबर 1929 में इसी बिल के विरोध में जिन्ना ने मजबूती से आवाज उठाई. उन्होंने कहा था कि ऐसा करके इंसाफ का मजाक बनाया जा रहा है.
मदन मोहन मालवीय ने भी जिन्ना का साथ दिया था और एसेंबली सत्र खत्म होने के बावजूद स्पीकर से 15 मिनट का और वक्त मांगा. हालांकि, मालवीय की अपील को अनसुना कर दिया गया. अगले दिन जब बैठक शुरू हुई तो जिन्ना ने फिर से भगत सिंह के ट्रायल की कानूनी वैधता को लेकर सवाल खड़े किए. जिन्ना की जोरदार बहस के बाद एसेंबली ने बिल को खारिज कर दिया था. हालांकि, इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. ब्रिटिश हुकूमत ने अध्यादेश के जरिए इस संशोधन को शामिल कर लिया था.
पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर ने भी ट्वीट कर कहा है, ''हमें भगत सिंह को जरूर याद करना चाहिए जिन्हें ब्रिटिश राज में 23 मार्च, 1931 को लाहौर में फांसी दे दी गई थी. मोहम्मद अली जिन्ना ने भगत सिंह का खुलेआम बचाव किया था क्योंकि जिन्ना भी भगत सिंह की तरह महान स्वतंत्रता सेनानी थे."
पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना भगत सिंह की तारीफ कर रहे थे लेकिन आज के पाकिस्तान में भगत सिंह इतने गुमनाम कैसे हो गए? कई लोगों का मानना है कि अगर भगत सिंह का जन्म मुसलमान परिवार में हुआ होता तो पाकिस्तान के सबसे बड़े हीरो होते. कई लोग ये भी कहते हैं कि उनका मार्क्सवादी होना भी पाकिस्तान की सत्ता के लिए मुफीद नहीं बैठा.''
पाकिस्तान की सरकार ने भगत सिंह की विरासत को कभी वो सम्मान नहीं दिया, जो दिया जाना चाहिए था. पाकिस्तान में कुछ एक्टिविस्टों की लगातार कोशिश के बाद, लाहौर जिला प्रशासन ने साल 2019 में जाकर शादमान चौक का नाम बदलकर भगत सिंह चौक किया और उन्हें एक क्रांतिकारी के तौर पर मान्यता दी. ये वही चौक है जहां पर ब्रिटिश हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी थी. ये जगह उस वक्त लाहौर सेंट्रल जेल की जमीन थी. इस चौक पर भगत सिंह की मूर्ति लगवाने की भी मांग लंबे समय से की जाती रही है लेकिन इसे लेकर भी सरकार ने कुछ नहीं किया.
भारत की आजादी की लड़ाई में पाकिस्तान का बनना निहित है. ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई किसी एक मजहब की लड़ाई नहीं थी. लेकिन 1947 में धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान बना तो आजादी की साझी विरासत को भी धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा. भगत सिंह ही क्यों, महात्मा गांधी भी पाकिस्तान के हुक्मरानों के लिए कोई आदरणीय नहीं हैं. यहां तक कि बापू पाकिस्तान बनने के बाद भी उसके लिए नेहरू से 55 करोड़ के मुआवजे के लिए लड़ गए थे. इसके लिए गांधी को देश के भीतर ही कितना कुछ सुनना पड़ा था. इसके बाद गांधी को दक्षिणपंथियों ने पाकिस्तान परस्त तक कहा था.
Next Story