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COVID-19: उम्र के हिसाब से हो रहा है कोरोना वायरस का असर, वैज्ञानिकों ने बताई ये बात

Gulabi
20 Aug 2021 3:03 PM GMT
COVID-19: उम्र के हिसाब से हो रहा है कोरोना वायरस का असर, वैज्ञानिकों ने बताई ये बात
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वैज्ञानिकों ने बताई ये बात

कोरोनावायरस की गंभीरता उम्र के हिसाब से होती है. एक नई स्टडी में खुलासा हुआ है कि कम उम्र के लोगों खासतौर से बच्चों को कोरोना के गंभीर लक्षण कम दिखते हैं. बड़े-बुजुर्ग लोगों को कोरोना के गंभीर संक्रमण से जूझना पड़ता है. वैज्ञानिकों के लिए मुसीबत ये है कि वो इसके असली वजह और अंतर को नहीं खोज पा रहे हैं. हालांकि, वैज्ञानिक यह पता कर पाए हैं कि किस एंजाइम की वजह से बढ़ती उम्र वालों को कोरोना के गंभीर लक्षणों का सामना करना पड़ता है.

साइंस एडवांसेस जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एंजियोटेनसिन-कन्वर्टिंग एंजाइम 2 (ACE2) के प्रोटीन और mRNA मिलकर सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोनावायरस 2 (SARS-CoV-2) को रिसीव करते हैं. ये बढ़ती उम्र के साथ बढ़ते जाते हैं. इंसानों में ACE2 उच्च श्रेणी का हेटरोजेनेटी दिखाता है. इसके बाद कोरोना से संक्रमित कोशिकाओं में एंडोप्लासमिक रेटिकुलम स्ट्रेस महसूस होता है जिसकी वजह से इम्यूनिटी कमजोर होने लगती है. कोरोना अपना संक्रमण फैलाना शुरु कर देता है.
जबकि, युवा लोगों के फेफड़ों में मौजूद एपिथेलियल कोशिकाएं (Epithelial Cells) ऐसी प्रक्रिया होने से रोकती है. जिसकी वजह से कम उम्र के लोगों खासतौर से बच्चों में कोरोना वायरस के गंभीर संक्रमण कम देखने को मिलते हैं. आपको बता दें कि कोरोनावायरस की वजह से 15.10 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हुए. 30 लाख से ज्यादा लोगों की मौत पूरी दुनिया में हुई है. (
पूरी दुनिया में कोरोना वायरस का सबसे कम असर बच्चों पर देखने को मिला है. हालांकि, नवजात बच्चों को ज्यादा समय तक ICU में रखने की नौबत आई है. लेकिन बड़े बच्चों को इतनी दिक्कत नहीं हुई है. वैज्ञानिक हैरान इस बात से हैं कि वयस्क लोगों के शरीर में इम्यूनिटी बढ़ने के बजाय कम कैसे हो रही है. कैसे ACE2 प्रोटीन और mRNA बच्चों में कोविड संक्रमण को रोकने में कामयाब हो रहे हैं, जबकि बड़े-बुजुर्गों में यही इसे गंभीर बनाने की प्रक्रिया में शामिल हैं.
वैज्ञानिकों ने बताया है कि बड़े-बुजुर्गों में कोरोना संक्रमण से ठीक होने के बाद भी लंबे समय या फिर उम्र भर तक कई लक्षण देखने को मिल सकते हैं. क्योंकि ACE2 फेफड़ों के टिश्यू के बाहरी परत पर जमा होता है. यह अलग-अलग प्रकार की कोशिकाओं में कोरोना वायरस के जुड़ने की प्रक्रिया को अंजाम देता है. वैज्ञानिकों ने यह भी जानने की कोशिश की है कि शरीर में किस तरह की कोशिकाएं कोरोना वायरस से ज्यादा संक्रमित होती हैं.
अलग-अलग कोशिकाओं पर ACE2 कोरोना के संक्रमण को अलग-अलग तीव्रता के साथ पेश करता है. जिसकी वजह से जिस अंग की कोशिका पर ज्यादा गंभीरता दिखती है, उस अंग से संबंधित बीमारियां बढ़ जाती हैं. शरीर में वायरस का आना कोविड-19 के पैथोजेनेसिस यानी बीमारी के फैलने की प्रक्रिया का सिर्फ शुरुआती हिस्सा है. इसके बाद जो प्रक्रियाएं शरीर में होती हैं, वो इतनी जटिल होती है कि अलग-अलग कोशिकाओं पर पड़ने वाले असर पर पूरी की पूरी किताब लिखी जा सकती है.
इस पूरी प्रक्रिया के दौरान कई कोशिकाएं खुदकुशी कर लेती हैं. वैज्ञानिक भाषा में इसे एपॉपटोसिस (Apoptosis) कहते हैं. यानी किसी घुसपैठिए को शरीर में फैलने से रोकने के लिए जरूरी है कि कुछ कोशिकाएं खुद को खत्म कर लें. यह प्रक्रिया बड़े-बुजुर्गों की तुलना में बच्चों में ज्यादा देखने को मिलती है. हालांकि वैज्ञानिक यह पता नहीं कर पा रहे हैं कि यह प्रक्रिया बच्चों में इतनी ज्यादा क्यों हैं।
इस स्टडी में पता चला कि चूहों और इंसानों के फेफड़ों में बढ़ती उम्र के साथ एक खास तरह का जीन एक्सप्रेशन चाहिए होता है. जिसमें एपिथेलियल और एंडोथेलियल कोशिकाएं महत्वपूर्ण योगदान देती हैं. ACE 2 वैस्कुलर होमियोस्टेसिस यानी फेफड़ों की समस्थिति को बनाए रखने में मदद करता है. लेकिन उम्र जब बढ़ने लगती है तब ACE2 में अंतर आने लगता है. जिनसे यह बात स्पष्ट होती है कि बढ़ती उम्र के साथ कोरोना की गंभीरता के बढ़ने का खतरा रहता है.
न्यूयॉर्क सिटी हेल्थ और सीडीसी के आंकड़ों के अनुसार जितने भी लोग अस्पतालों में भर्ती हुई उनमें से ज्यादातर अधिक उम्र के लोग थे. खासतौर से बुजुर्ग. जबकि, बच्चों में कोरोना संबंधी गंभीरता कम देखने को मिली. लेकिन नवजात बच्चों के लिए ये काफी खतरनाक साबित हुआ. इनकी मृत्यु दर बड़े बच्चों की तुलना में ज्यादा थी.
वहीं, 65 और उससे ऊपर की उम्र के लोग अस्पतालों में ज्यादा भर्ती हुए. इसी उम्र समूह के लोगों की मौत भी ज्यादा हुई है. क्योंकि इनके साथ कोशिकाओं की खुदकुशी के केस कम हो रहे थे. इस काम में ACE2 मदद कर रहा था. यानी यह कोरोना की गंभीरता बढ़ा रहा था. जबकि बच्चों में यह उतना प्रभावी नहीं था.
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