कृषि कानूनों की समीक्षा के लिए बनाई गई समिति के सदस्य अनिल घनवट का इससे दुखी होना स्वाभाविक है कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक इस समिति की रपट का संज्ञान नहीं लिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को चिट्ठी लिखकर न केवल इस रपट का संज्ञान लिए जाने की मांग की है, बल्कि यह भी अनुरोध किया है कि उसे सार्वजनिक किया जाए। कायदे से सुप्रीम कोर्ट को अपने स्तर पर ही ऐसा करना चाहिए था, क्योंकि खुद उसी ने इस समिति का गठन किया था। कोई नहीं जानता कि तय समय में रपट तैयार कर सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिए जाने के बाद भी उसका संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा है? इस देरी का एक दुष्परिणाम तो यह है कि तीनों कृषि कानून लंबित पड़े हुए हैं और दूसरे, किसान संगठन अपनी सक्रियता बढ़ाते चले जा रहे हैं। उनके साथ ही कई विपक्षी दल भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। वास्तव में इसी कारण किसान संगठनों की गतिविधियां बढ़ती हुई दिख रही हैं। अब तो यह भी साफ है कि उनका आंदोलन पूरी तौर पर राजनीतिक रूप ले चुका है। वे पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए तैयार दिख रहे हैं। इसी कारण वे न केवल नई-नई जगहों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं, बल्कि पुराने धरना स्थलों पर भीड़ बढ़ाकर अपनी ताकत का परिचय दे रहे हैं। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन समस्या यह है कि उनके धरने लोगों को तंग करने का काम कर रहे हैं।