विश्व
तालिबान को आतंकवादी सूची से हटाने पर रुस कर रहा गंभीरता से विचार
Sanjna Verma
28 May 2024 4:12 PM GMT
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विश्व : रूस तालिबान को आतंकवादी सूची से हटाने और अफगानिस्तान में उसकी सरकार को मान्यता देने पर गंभीरता से विचार कर रहा है.रूस के विदेश और न्याय मंत्रालय ने तालिबान को देश की आधिकारिक आतंकवादी सूची से हटाने का समर्थन किया है. सरकारी समाचार एजेंसी टैस (TASS) की खबर है कि इस बारे में इन दोनों मंत्रालयों ने एक संयुक्त प्रस्ताव तैयार किया है जिसे राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को सौंपा गया है.
एक वरिष्ठ कूटनीतिज्ञ जामिर काबुलोव ने टैस को बताया कि रूस अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता देने के काफी करीब है. तालिबान ने अगस्त 2021 में काबुल पर हमला कर वहां की लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को अपदस्थ कर दिया था और देश की सत्ता हथिया ली थी. उस सरकार को किसी देश ने मान्यता नहीं दी है.पश्चिमी देशों का कहना है कि तालिबान की सरकार ने मानवाधिकारों, खास तौर पर महिलाओं के अधिकारोंपर कड़ी पाबंदियां लगाई हैं और जब तक वे नहीं हटाई जातीं, तब तक सरकार को मान्यता नहीं दी जा सकती.
गंभीर है रूस
अफगानिस्तान के पड़ोसियों का रुख इससे थोड़ा अलग है. चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान के अलावा भारत ने भी तालिबान सरकार से संपर्क और संवाद बढ़ाया है. चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान में तो अफगानिस्तान के दूतावास भी सक्रिय हो गए हैं और वहां राजदूतों ने कामकाज संभाल लिया है.तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद से ही रूस उसके साथ बातचीत करता रहा है. उसने अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों से आग्रह भी किया था कि अफगानिस्तान की जब्त की गई संपत्तियों को जारी कर दिया जाए.2019 में तालिबान के प्रतिनिधियों को रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने मॉस्को में बैठक में भी आमंत्रित किया था जबकि वे आतंकवादी सूची में शामिल एक संगठन के प्रतिनिधि थे. लावरोव और पुतिन दोनों ही ऐसे संकेत दे चुके हैं कि तालिबान को आतंकवादी सूची से हटाया जा सकता है.
पड़ोसियों से नजदीकियां
तालिबान भी पड़ोसियों के साथ संबंधसुधारने की नीति पर चल रहा है. उसने हाल ही में ‘अफगानिस्तान क्षेत्रीय सहयोग पहल' नाम से एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन की योजना बनाई, जिसमें 11 देशों ने सहभागिता का आमंत्रण भी स्वीकार कर लिया. इसमें कई दक्षिण एशियाई देशों जैसे भारत और चीन के अलावा रूस और ईरान जैसे देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था.चीन ने अफगानिस्तान के साथ नजदीकियां तेजी से बढ़ाई हैं. वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इसी साल तालिबान के देश में राजदूत नियुक्त किए गए मौलवी असदुल्ला बिलाल करीमी से मुलाकात की थी और उन्हें शासनाधिकारी के रूप में स्वीकार किया था. तब चीन ने कहा था कि कूटनीतिक स्वीकृति का यह अर्थ नहीं कि बीजिंग अफगानिस्तान के मौजूदा शासन को आधिकारिक रूप से मान्यता प्रदान करता है.
ईरान भी कई वर्षों से काबुल के साथ नजदीकियां बढ़ा रहा है. तेहरान ने तालिबान के काबुल की सत्ता पर काबिज होने के कुछ महीनों बाद अक्टूबर 2021 में अपने राजनयिक हसन काजमी कोमी को अफगानिस्तान में विशेष दूत नियुक्त किया था. मान्यता ना देने के बावजूद ईरान सरकार ने संकेत दिए कि तालिबान के साथ संबंध समूचे क्षेत्र के लिए लाभकारी हैं. राजनीतिक स्थिरता पर जोर देते हुए भारत का दृष्टिकोण भी कुछ ऐसा ही है.पिछली बार तालिबान 1996 से 2001 के बीच अफगानिस्तान में सरकार पर काबिज रहा था. तब भी वे अपने लिए अंतरराष्ट्रीय मान्यता चाह रहा था.
भारत का रुख
भारत ने पिछले एक साल में ऐसे कई कदम उठाए हैं, जिनसे संकेत मिलता है कि भारत सरकार तालिबान के साथ संवाद और संपर्क बढ़ाने पर काम कर रही है. जून 2022 में भारत के वरिष्ठ राजनयिक जेपी सिंह काबुल के दौरे पर गए थे और वहां उन्होंने तालिबान के कार्यकारी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से मुलाकात की थी.भारत ने हाल ही में ईरान के साथ चाबहार बंदरगाह समझौताकिया है, जिसमें अफगानिस्तान एक अहम कड़ी है क्योंकि वह व्यापार मार्ग का हिस्सा होगा. जेपी सिंह के काबुल दौरे पर भी इस बारे में चर्चा हुई थी. तालिबान के विदेश मंत्रालय की ओर से तब जारी एक बयान में कहा गया था कि चाबहार बंदरगाह समेत कई मुद्दों पर जेपी सिंह और मुत्ताकी के बीच चर्चा हुई.इटली, जापान, नॉर्वे और तुर्की समेत 38 देशों में तालिबान के राजनयिक दूतावासों में काम कर रहे हैं. हालांकि इनमें से किसी भी देश ने तालिबान की सरकार को मान्यता नहीं दी है.
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