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शोधकर्ताओं ने एक ऐसी तकनीक की विधि विकसित की, इम्यूनोमाडुलेशन में किया जा सकेगा सुधार

Neha Dani
19 Jan 2022 11:15 AM GMT
शोधकर्ताओं ने एक ऐसी तकनीक की विधि विकसित की, इम्यूनोमाडुलेशन में किया जा सकेगा सुधार
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इससे मुंह से लिए जाने के कारण लिवर में दवा की बर्बादी से भी बचा जा सकता है।

डायबिटीज टाइप 1 से पीड़ित मरीजों के लिए यह राहतभरी खबर हो सकती है। नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी तकनीक की विधि विकसित की है, जिससे इम्यूनोमाडुलेशन को ज्यादा प्रभावी कारगर बनाने में मदद मिलेगी। इसमें प्रतिरोधी प्रतिरक्षा को कम करने के लिए सामान्य तौर पर इस्तेमाल होने वाले रैपामाइसिन को री-इंजीनियर करने के लिए नैनोकरिअर्स का प्रयोग किया गया है। यह शोध नेचर नैनोटेक्नोलाजी नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है। शोध टीम का नेतृत्व नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के मैक कोर्मिक स्कूल आफ इंजीनियरिंग एंड माइक्रोबायोलाजी-इम्यूनोलोजी के एसोसिएट प्रोफेसर इवान स्काट ने किया है।

टाइप 1 डायबिटीज में शरीर इंसुलिन बनाना ही बंद कर देता है। यह एक आटोइम्यून डिजीज है। मतलब शरीर की कोशिकाएं इंसुलिन बनाने वाले अग्नाशय की कोशिकाओं पर हमला कर उन्हें खत्म कर देती हैं। ऐसे रोगियों को रोजाना इंसुलिन इंजेक्शन सीरींज या किसी अन्य उपकरण से लेना पड़ता है। इसका कोई उचित व सटीक वैकल्पिक इलाज नहीं होने से ताउम्र कष्ट सहना पड़ता है।
कुछ दशक पूर्व आइलेट ट्रांसप्लांटेशन एक संभावित निदान के रूप में सामने आया था। लेकिन इम्यून सिस्टम द्वारा इसे रिजेक्ट किए जाने के कारण इसकी ज्यादा स्वीकृति नहीं मिली। मौजूदा इम्यूनोसप्रेसिव दवाएं प्रत्यारोपित कोशिकाओं और ऊतकों को पर्याप्त सुरक्षा तो प्रदान नहीं ही करती हैं बल्कि उसके कई दुष्प्रभाव भी होते हैं।
नैनोकरिअर को बनाया नया हथियार : शोधकर्ताओं ने रैपामाइसिन युक्त नैनोकरिअर के इस्तेमाल से एक नए किस्म का इम्यूनोसप्रेसर बनाया है, जो प्रत्यारोपण से जुड़ी विशिष्ट कोशिकाओं को इम्यून रेस्पांस को कम किए बगैर निशाना बनाता है। रैपामाइसिन का इस्तेमाल अन्य प्रकार के इलाज और प्रत्यारोपण में भी किया जाता है, क्योंकि यह पूरे शरीर में कई प्रकार की कोशिकाओं का व्यापक प्रभाव डालता है। इसमें सबसे बड़ी चुनौती इसकी सही डोज तय करने की होती है, क्योंकि इसके विषाक्त प्रभाव भी होते हैं और कम डोज होने पर आइलेट प्रत्यारोपण के मामले में पूरी तरह असरकारी नहीं हो पाता है।
प्रत्यारोपण के बाद इम्यून सेल, जिसे टी सेल भी कहते हैं, नई बाहरी कोशिकाओं को रिजेक्ट कर देता है, इसलिए इसे रोकने के लिए इम्यूनोसप्रेसेंट का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इससे अन्य संक्रमणों से लड़ने की शरीर की क्षमता कमजोर पड़ जाती है। इसी के समाधान की दिशा में शोधकर्ताओं ने ऐसे नैनोकरिअर और दवाओं का मिश्रण तैयार किया, जिसका ज्यादा विशिष्ट प्रभाव हो। ऐसे में सीधे तौर पर टी सेल को माडुलेट करने से बचकर एंटीजन प्रजेंटिंग सेल्स (एपीसी) को लक्षित करने के लिए नैनो पार्टिकल युक्त रैपामाइसिन बनाया। इससे ज्यादा सटीक और नियंत्रित इम्यून गतिविधि किया जा सकता है। इतना ही नहीं, नैनोपार्टिकल्स की वजह से रैपामाइसिन को त्वचा में भी इंजेक्शन से दिया जा सकता है। इससे मुंह से लिए जाने के कारण लिवर में दवा की बर्बादी से भी बचा जा सकता है।

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