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कोरोना महामारी के पिछले दो सालों में शरीर में वायरस का पता लगाने के लिए हमारी नाक का इस्तेमाल किया गया
कोरोना महामारी के पिछले दो सालों में शरीर में वायरस का पता लगाने के लिए हमारी नाक का इस्तेमाल किया गया। जहां हेल्थ वर्कर्स ने नाक में स्वाब स्टिक डालकर सैंपल लिए, वहीं घर पर करने वाले टेस्ट ने भी लोगों को नाक से सैंपल निकालने का महारथी बना दिया। पर अब ओमिक्रॉन के बढ़ते मामलों के बीच वैज्ञानिक कह रहे हैं कि वायरस को डिटेक्ट करने का सबसे अच्छा जरिया नाक नहीं, बल्कि मुंह है।
कोरोना वायरस सबसे पहले मुंह और गले में आता है नजर
यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड के रिसर्चर डॉ. डोनाल्ड मिल्टन कहते हैं कि कोरोना वायरस सबसे पहले मुंह और गले में नजर आता है। इसका मतलब, हम अभी तक जिस कोरोना टेस्ट मेथड का इस्तेमाल कर रहे थे, उसमें कई समस्याएं हैं। कुछ शोधों के अनुसार, नाक की बजाय मुंह के सलाइवा (लार) से वायरस का पता शुरुआती दिनों में ही लगाया जा सकता है।
मुंह से लिया गया कोरोना सैंपल 12 गुना बेहतर
डॉ. मिल्टन और उनकी टीम ने कोरोना टेस्ट के बेहतर मेथड को पहचानने के लिए एक रिसर्च की। इसमें कोरोना मरीजों में लक्षण आने से पहले ही उनकी नाक और मुंह से सैंपल ले लिए गए। रिसर्च के मुताबिक, नाक की तुलना में मुंह में तीन गुना ज्यादा वायरस पाया गया। साथ ही, मुंह से लिए गए सैंपल ने ज्यादा कोरोना पॉजिटिव रिजल्ट्स दिए। ये नाक की तुलना में 12 गुना ज्यादा था।
ओमिक्रॉन संक्रमण को रोकने के लिए सलाइवा टेस्ट जरूरी
डॉ. रॉबी सिक्का कहते हैं कि ओमिक्रॉन की लहर के बीच हमें कोरोना टेस्टिंग को अपडेट करना जरूरी है। ये वैरिएंट शरीर में बहुत तेजी से डुप्लीकेट होता और फैलता है। साथ ही, अधिकतर मामलों में इसके कोई लक्षण नहीं होते और ये जल्दी शरीर से निकल भी जाता है। इसलिए नाक की बजाय मरीजों के सलाइवा को टेस्ट करना जरूरी है। कुछ विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि शायद ओमिक्रॉन मुंह और गले में जल्दी मल्टीप्लाई होता है। हालांकि, फिलहाल इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती।
हाल ही में दक्षिण अफ्रीका में हुई एक रिसर्च में पाया गया था कि डेल्टा वैरिएंट को पहचानने के लिए नाक के सैंपल्स बेहतर होते हैं। एक्सपर्ट्स के अनुसार, ओमिक्रॉन वैरिएंट के केस में सब कुछ उल्टा हो रहा है।
सरकारों के पास हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी
अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) ने हाल ही में कुछ सलाइवा-बेस्ड कोरोना टेस्ट किट्स को मंजूरी दी है। ये स्कूलों में बच्चों की कोरोना जांच करने में काम आ रहे हैं। पर अभी भी दुनिया भर की सरकारों के पास इस टेस्ट के लिए अच्छा इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है।
येल स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की माइक्रोबायोलॉजिस्ट ऐनी वायली कहती हैं कि अभी भी बहुत सी सरकारें और लैब कोरोना टेस्टिंग के पुराने मेथड पर ही अटकी हैं। हमे समय के साथ-साथ टेक्नोलॉजी में बदलाव करना होगा।
सलाइवा मेथड की सीमाएं
कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने अपनी एक रिसर्च में पाया है कि कोरोना इन्फेक्शन होने के कुछ दिनों बाद वायरस नाक में ज्यादा जमा होता है। इसका मतलब, भले ही शुरुआती दिनों में वायरस मुंह में आसानी से डिटेक्ट किया जा सकता है, लेकिन कुछ समय बाद नाक की जांच करना जरूरी है।
डॉ. जोसफ डीरिसी के अनुसार, मुंह का वातावरण कभी भी एक जैसा नहीं रहता। कभी ये सूखा होता है तो कभी गीला। कभी ये ज्यादा एसिडिक होता है तो कभी बेसिक। इससे वायरस की जांच मुश्किल हो सकती है। चूंकि नाक में इस तरह के बदलाव नहीं होते हैं, इसलिए यहां से सैंपल निकालना ज्यादा बेहतर है।
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