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निपटना तालिबान के लिए मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है. अफगानिस्तान (Afghanistan) में राशन की भारी कमी है, लेकिन अस्त्र शस्त्र और हथगोले वहां भारी मात्रा में मौजूद हैं.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क :- तालिबान सरकार (Taliban Government) के सामने गंभीर चुनौतियां हैं जिनसे निपटना तालिबान के लिए मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है. अफगानिस्तान (Afghanistan) में राशन की भारी कमी है, लेकिन अस्त्र शस्त्र और हथगोले वहां भारी मात्रा में मौजूद हैं. ऐसे में तालिबान के लिए स्थाई सरकार देना तो दूर एक देश की शक्ल में एकजुट रहना नामुमकिन मालूम पड़ता है. वहां मौजूद अंतर्विरोध बगावत की शक्ल लेकर तबाही मचा सकता है. तालिबान में कंधार ग्रुप और पूर्वी अफगानिस्तान ग्रुप प्रमुख, दो ग्रुप हैं. जिनके बीच वर्चस्व की लड़ाई कभी भी हो सकती है. कांधार ग्रुप तालिबान का कोर ग्रुप है और इसके ज्यादातर सदस्य मदरसे से तालीम लेकर बाहर निकले हैं.
तालिबान का दूसरा ग्रुप हक्कानी नेटवर्क और हेकमतयार लड़ाकों से पटा पड़ा है जो आतंकवादी गतिविधियों के लिए जाने जाते रहे हैं. हक्कानी और हेकमतयार ग्रुप प्रमुख तौर पर खतरनाक उग्रवादी समूह हैं जो तालिबान में चरमपंथी गतिविधियों की वजह से ज्यादा प्रभाव रखते हैं. इन दोनों के बीच की लड़ाई पहले भी सामने आ चुकी है और सरकार में शामिल दोनों ग्रुप एक दूसरे से वर्चस्व की लड़ाई नहीं लड़ेंगे इसकी संभावना नहीं के बराबर दिखाई पड़ती है.
पंजशीर और वॉरलॉर्डस की बगावत तालिबान के लिए बड़ा खतरा
अता मोहम्मद और अब्दुल रशीद दोस्तम जैसे वॉर लॉर्ड ने तालिबान सरकार का हिस्सा बनने से साफ इन्कार कर दिया है. इन दोनों वॉरलॉर्ड ने अभी तक अपने इरादे ज़ाहिर नहीं किए हैं. लेकिन इनकी ताकत को सिरे से खारिज करना अफगानिस्तान में किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं रहने वाला है. इतना ही नहीं अब्दुल गनी अलीपूर, अब्दुल रसूल सायफ, अब्दुल मलिक पहलवान, पाचा खान और अकबर कासमी जैसे वॉर लॉड्स की अपनी सेना है जो अपने-अपने इलाके में तालिबान का विरोध करने का मन बना चुके हैं. इन सभी वॉर लॉड्स के पास आतंकी सेनाएं इतनी ज्यादा हैं कि ये इकट्ठे होकर तालिबानी सेना के छक्के छुड़ा सकते हैं.
तालिबान पंजशीर में फतह का दावा कर रहा है, लेकिन पंजशीर का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि वहां की सेनाएं कभी भी तख्ता पलट कर सकती हैं. अहमद शाह मसूद गुरिल्ला वॉर के लिए जाने जाते रहे हैं और इसी के दम पर वो तालिबान को साल 1995 में खदेड़ चुके हैं. ऐसे में पंजशीर में अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद के नेतृत्व में वापस आक्रमण कर तालिबान को खदेड़ दे इसकी संभावना पूरी है.
बेहद गंभीर आर्थिक स्थिति से कैसे निपटेगा तालिबान
तालिबान के लिए सरकार चलाने में सबसे बड़ी समस्या आर्थिक तंगी की वजह से होगी. तालिबान के खजाने खाली हैं और चीन के दम पर सरकार चलाने की सोचना किसी भी देश के लिए अव्यवहारिक सोच ही माना जाएगा. इतना ही नहीं देश में आसमान छूती मुद्रास्फीति से निपटना तालिबान सरकार के लिए ऐसी चुनौती है जिससे निकट भविष्य में निपट पाना कहीं से संभव नहीं जान पड़ता है. तालिबान सरकार के लिए राशन की कमी से लेकर दवा और ईंधन की कमी से निपटना भी उतना ही मुश्किल है, जितना तालिबान सरकार से अहिंसा के रास्ते पर सरकार चलाने की उम्मीद करना.
दुनिया के तमाम देशों में अफगानिस्तान के सरकारी बैंकों के एसेट्स फ्रीज किए जा चुके हैं और इस वजह से बाहरी देशों से कोई बड़ी मदद दी जा सकेगी इसकी संभावना ना के बराबर हो चुकी है. ज़ाहिर है एक तरफ जहां बंदूक और गोलों से लोगों की जानें जा रही हैं, वहीं दवा की कमी की वजह से भी लोगों की मौतें वहां हो रही हैं. इसलिए देश में अराजकता बढ़ेगी और तालिबान सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरेंगे इसकी प्रबल संभावना है. मिडिल इस्ट के कुछ देश तालिबान की मदद करने आगे आए हैं. लेकिन उनकी थोड़ी बहुत मदद के दम पर तालिबान लोगों का भरोसा जीत पाएगा इसकी संभावना नहीं के बराबर है. यही वजह है तालिबान जैसे क्रूर शासक के खिलाफ भी अफगानिस्तान के कई हिस्सों में लोग सड़कों पर उतरने लगे हैं, क्योंकि उन्हें उनके भविष्य का भयावह स्वरूप अभी से ही दिखाई पड़ने लगा है.
आतंकी छवि की वजह से दुनिया का समर्थन मिलना नामुमकिन
तालिबान पर आतंकी सगठन होने की मुहर पहले से लगी हुई है. इतना ही नहीं तालिबान हक्कानी नेटवर्क के अलावा अल-कायदा का कट्टर हिमायती है ये भी दुनिया से छिपा नहीं है. मानवाधिकारों के हनन के साथ विरोधियों की सरेआम हत्या करना उनकी फितरत है. तालिबान जिन शरिया कानून के जरिए सरकार चलाने का दम भर रहे हैं उसके नाम से सभ्य समाज की रूहें कांप उठती हैं.
वर्तमान तालिबान सरकार अपनी छवि सुधारने का दम भर रहा है. लेकिन 70 फीसदी तालिबान कैबिनेट में सदस्य घोषित आतंकवादी हैं. इसलिए इस सरकार पर दुनिया का भरोसा होना असंभव है. ज़ाहिर है तालिबान सरकार में आतंकी शामिल हैं इसलिए इस सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मदद मयस्सर हो पाएगी ऐसा कहीं से भी संभव नहीं दिखाई पड़ता है.
तालिबान पाकिस्तान के टेरर नेटवर्क का हिस्सा है और अलकायदा यहां फिर से पनाह लेकर आतंकी गतिविधियों को मजबूत करेगा, इसकी चिंता अमेरिका को भी सताने लगी है. विदेशी एजेंसी द्वारा कराए गए सर्वे में भी ये बात सामने आ चुकी है कि पाकिस्तान के 60 फीसदी से ज्यादा लोग अफगानिस्तान में तालिबान के आने से नाखुश हैं. ऐसे में पाकिस्तान सरकार भी खुलकर तालिबान की मदद आने वाले समय में कर पाएगी इस पर भी दुनिया की नजरें टिकी रहेंगी.
एक्सर्प- पिछले पांच दशकों में खूनी खेल का गवाह रहा अफगानिस्तान एक बार फिर तालिबान के हाथों में है, जहां 70 फीसदी मंत्री यूएन द्वारा घोषित आतंकी हैं. ऐसे में तालिबान के हाथों देश का भविष्य आतंक से अलग शांति का होगा इसकी गुंजाइश नहीं के बराबर है.
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