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नया शोध: मुर्गे-मुर्गियों के पालतू बनने में करीब 3500 वर्ष लगे, लौह युग के दौरान पूजा होती थी

Neha Dani
13 Jun 2022 9:57 AM GMT
नया शोध: मुर्गे-मुर्गियों के पालतू बनने में करीब 3500 वर्ष लगे, लौह युग के दौरान पूजा होती थी
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यह पहली बार है कि प्रारंभिक समाज में मुर्गियों के महत्व को समझने के लिए रेडियो कार्बन डेटिंग का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया।

मानव जाति के विकास का इतिहास हजारों साल पुराना है। मनुष्यों के सामाजिक ताने-बाने में पालतू पशु-पक्षियों की भूमिका भी हमेशा अहम रही है। समय-समय पर विज्ञानी पशु-पक्षियों के पालतू बनने के इतिहास का अध्ययन करते रहे हैं। इस क्रम में यूनिवर्सिटी आफ एक्सेटर ने नया शोध प्रस्तुत किया है, जिसमें अध्ययन किया गया कि मुर्गे-मुर्गियों के पालतू बनने में करीब 3500 वर्ष लगे। जलवायु, पारिस्थितिकी तंत्र और भौगोलिक स्थितियों में ढलते हुए मुर्गे-मुर्गियां एशिया से बाहर भी फैल गए।

पहले यह था विचार: विशेषज्ञों ने पाया कि चावल की खेती के साथ जुडऩे की प्रक्रिया में मुर्गे दुनिया में सबसे तेजी से फैल गए। पहले इस जीव को विचित्र माना जाता था। कई शताब्दी के बाद इसे भोजन के रूप में अपनाया गया। पूर्व में माना गया कि मुर्गियां करीब 10 हजार वर्ष पहले चीन, दक्षिण पूर्व एशिया या भारत में पाई जाती थीं। वहीं, यूरोप में करीब सात हजार वर्ष पहले मुर्गियां मिलीं।
नए अध्ययन में यह आया सामने: नए अध्ययन ने इसे खारिज किया और बताया कि दक्षिण पूर्व एशिया में सूखे चावल की खेती ने पूरे परिदृष्य को बदल डाला। चावल की खेती ने मुर्गों को पेड़ से नीचे उतरकर खेत में चावल चुगने की कला सिखाई। उस वक्त लाल मुर्गे किसानों के साथ घनिष्ठ होते गए। जंगली मुर्गे अब मनुष्यों के साथ तालमेल बिठाने लगे और घबराने की जगह मनुष्यों के संसर्ग में आने लगे। यहीं से मनुष्यों का लगाव मुर्गे-मुर्गियों से बढ़ा। ईसा से लगभग 1500 वर्ष पूर्व दक्षिण पूर्व एशिया प्रायद्वीप में मुर्गे के पालतू बनने की क्रमिक प्रक्रिया शुरू हुई।
यूरोप में होती थी पूजा: यूरोप में लौह युग के दौरान मुर्गों की पूजा की जाती थी। उन्हें भोजन नहीं माना जाता था। मुर्गे-मुर्गियों की मौत के बाद इन्हें दफनाने की भी प्रथा थी। इसके बाद रोमन साम्राज्य ने मुर्गे और अंडों को भोजन के रूप में अपनाया। उदाहरण स्वरूप ब्रिटेन में तीसरी शताब्दी तक मुर्गों को भोजन नहीं माना जाता था। विशेषज्ञों की अंतरराष्ट्रीय टीम ने करीब 89 देशों में 600 स्थलों से मुर्गे के अवशेषों की जांच की। उन्होंने विभिन्न समाज, संस्कृति में मुर्गों के इतिहास का अध्ययन किया। इनके कंकाल, दफन स्थान और ऐतिहासिक अभिलेखों की जांच की, जहां हड्डियां पाई गईं। मुर्गों की सबसे पुरानी हड्डी थाइलैंड में पाई गई। इसकी तारीख 1650 से 1250 ईसा पूर्व मानी गई। टीम ने पश्चिमी यूरेशिया और उत्तर पश्चिम अफ्रीका में पाए जाने वाले मुर्गों की उम्र जानने के लिए रेडियो कार्बन डेटिंग तकनीक का भी इस्तेमाल किया। परिणाम यह निकला कि करीब 800 ईसा पूर्व तक मुर्गे यूरोप नहीं पहुंचे थे। इसके बाद भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में पहुंचने के बाद मुर्गों को स्काटलैंड, आयरलैंड, स्कैंडीनेविया और आइसलैंड की ठंडी जलवायु में स्थापित होने में करीब एक हजार साल का वक्त लगा।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ: यूनिवर्सिटी आफ एक्सेटर के प्रोफेसर नाओमी साइक्स बताते हैं कि मौजूदा वक्त में हम मुर्गियों को आम भोजन मानते हैं, लेकिन अतीत में मुर्गे-मुर्गियों से हमारा रिश्ता काफी जटिल था। सदियों तक मुर्गियों की पूजा की जाती रही। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ग्रेगर लार्सन कहते हैं कि मुर्गियों पर किया गया यह अध्ययन बताता है कि मुर्गियों के पालतू बनने की लंबी यात्रा और स्थान को लेकर हमारी समझ कितनी गलत थी। सूखे चावल की खेती ने मनुष्यों और मुर्गियों के बीच तालमेल स्थापित किया। समय के साथ व्यापारिक मार्गों से मुर्गे पूरी दुनिया में फैल गए। वहीं, कार्डिफ यूनिवर्सिटी के डाक्टर जूलिया बेस्ट ने बताया कि यह पहली बार है कि प्रारंभिक समाज में मुर्गियों के महत्व को समझने के लिए रेडियो कार्बन डेटिंग का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया।


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