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एक लेखक और नागरिक के रूप में वह हमारे गणतंत्र के महान मूल्यों का प्रतीक हैं। वह गांधी के जीवन और मृत्यु की गवाह हैं, और उन्होंने जो कुछ भी किया है, वह सीधे उनके उदाहरण से प्रेरिेत है।
एक फरवरी, 1948 को एक बीस वर्षीय भारतीय महिला ने अपने एक जीवित अभिभावक को चिट्ठी लिखी। यह युवा महिला दिल्ली में थी और हाल ही में अमेरिका के वेलस्ले कॉलेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर लौटी थी; उसकी मां तब सोवियत संघ में भारत की राजदूत के रूप में मास्को में पदस्थ थीं। तीस जनवरी की शाम गांधी की हत्या की खबर सुनकर वह बीस वर्षीय युवती तुरंत ही बिड़ला हाउस पहुंच गई। वहां उसने देखा कि बापू का शरीर खून से लथपथ है। उसने अपनी मां को लिखा, 'फिर भी हम उम्मीद रख रहे थे। हमें लगा कोई चमत्कार उन्हें बचा लेगा। उनकी वजह से ऐसा सोचा ही जा सकता है कि कोई चमत्कार हो सकता है।'
गांधी की हत्या के दो दिन बाद अपनी मां को इस युवा महिला ने लिखा, 'यह भूला नहीं जा सकता कि बापू को गोली मारी गई। हत्यारे को पकड़ लिया गया, लेकिन इसके पीछे और भी लोग होंगे। यह कैसा पागलपन है, जिसने देश को जकड़ लिया है और अब बापू के जाने के बाद क्या उम्मीद की जाए?'
उसने पत्र लिखते हुए खुद को संभाला और उसका दुख और गुस्सा संकल्प में बदल गया। उसने अपनी मां को बताया, 'बापू यह पसंद नहीं करते कि हम उनके लिए शोक मनाएं। वह महसूस करते कि उनकी देह की उपस्थिति या अनुपस्थिति का बहुत कम महत्व है। इसके बजाय हमें इस पर महत्व देना चाहिए कि उन्होंने कैसा जीवन जिया और उन्होंने क्या कहा। वह हमारे साथ इतने लंबे समय तक रहे हैं, कि वह हमें कभी नहीं छोड़ सकते।' चिट्ठी का समापन उसने काफी विचारोत्तेजक ढंग से कियाः संभवतः भगवान चाहता है कि हम बड़े हों और विचार करें कि यह देशव्यापी पागलपन हमें कहां ले जाएगा। हमें राह दिखाने के लिए बापू तो मौजूद नहीं हैं, हमें खुद से अपनी आत्मा तलाशनी होगी, अपनी प्रार्थनाएं खुद करनी होंगी और अपने फैसले खुद लेने होंगे।
आधुनिक भारतीय साहित्य और आधुनिक भारतीय इतिहास के विद्यार्थी समझ ही गए होंगे कि चिट्ठी लिखने वाली युवा महिला और उसे प्राप्त करने वाली महिला कौन थीं। ये थीं, नयनतारा सहगल (पहले पंडित थीं) जो कि आगे चलकर जानी-मानी उपन्यासकार बनीं; और विजयलक्ष्मी पंडित (पूर्व में नेहरू थीं), जो कि भारतीय राष्ट्रवादी थीं, राज के दौरान उन्होंने काफी वक्त जेलों में बिताया था और स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्होंने मास्को, वाशिंगटन और लंदन जैसी जगहों में देश का प्रतिनिधित्व किया था।
मैं देहरादून में बड़ा हुआ हूं, जिसे विजयलक्ष्मी पंडित ने सार्वजनिक सेवा से मुक्त होने के बाद अपना घर बना लिया था। मैंने उन्हें वहां कभी नहीं देखा। मैंने मार्च, 1977 के पहले हफ्ते में दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई एक राजनीतिक सभा में उन्हें पहली बार सुना। उस समय आपातकाल हटाया ही गया था और श्रीमती पंडित वहां नवगठित जनता पार्टी के पक्ष में समर्थन व्यक्त करने आई थीं। इस तरह उन्होंने अपनी भतीजी और निवर्तमान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति अपनी पारिवारिक वफादारी की तुलना में संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को तरजीह दी थी।
मेरे अभिभावकों ने 1984 में देहरादून छोड़ दिया। इसके आठ साल बाद मैं भारत में पेट्रोकेमिकल्स उद्योग की स्थापना में अहम भूमिका निभाने वाले टेक्नोक्रेट लवराज कुमार के साथ एक निजी यात्रा पर दिल्ली से देहरादून गया। रूड़की में हम पोलारिस नामक एक होटल में कॉफी पीने के लिए रुके। उस कैफे में मेरी नजर साठ बरस से कुछ अधिक उम्र की एक खूबसूरत महिला पर पड़ी। यह नयनतारा सहगल थीं। लवराज उन्हें तब से जानते थे जब वे दोनों मुंबई में रहते थे और उन्होंने उनसे मेरा परिचय कराया। बाद में श्रीमती सहगल देहरादून में रहने लगीं और दिल्ली जाते हुए वह रास्ते में इस कैफे में हमारी ही तरह रुकी थीं।
उपन्यासों के अलावा नयनतारा सहगल ने कुछ महत्वपूर्ण कथेतर किताबें भी लिखीं हैं। इसमें राष्ट्रीय आंदोलन से ताल्लुक रखने वाले उच्च वर्ग के अपने घर से जुड़े संस्मरणों की किताब, प्रिजन ऐंड चॉकलेट केक; अपने दूसरे पति ई.एन. मंगत राय के साथ हुए पत्र व्यवहार से जुड़ी भावुक कर देने वाली किताब; और इंदिरा गांधी की राजनीतिक शैली की पड़ताल करने वाली किताब शामिल है। मैं जिन लोगों को जानता हूं, उनमें से किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में उनमें कहीं अधिक साहस और अनुग्रह है।
गहरा आत्मसम्मान होने के साथ ही वंचितों के प्रति उनमें गहरी करुणा है। हमारी दोस्ती के दौरान नयनतारा सहगल ने मुझे बहुत कुछ दिया। वहीं मैं उन्हें बहुत कम दे सका। मैं उनके लिए उनके शानदार पिता रंजीत सीताराम पंडित से जुड़ी कुछ जानकारियां ही अभिलेखागार से जुटा सका। मसलन, मैंने यह जानकारी जुटाई कि जब अधिकांश कांग्रेसी बी. आर.आंबेडकर के विरोध में थे, तब रंजीत पंडित उनकी प्रशंसा कर रहे थे और यहां तक कि उन्होंने उनसे मिलने की भी कोशिश की।
यह रंजीत पंडित ही थे, जिन्होंने अपने ससुर मोतीलाल नेहरू और अपने साले जवाहर लाल नेहरू को मेरठ षड्यंत्र मामले के कम्युनिस्ट दोषियों के बचाव के लिए धन इकट्ठा करने के लिए राजी किया। इनमें एक बंदी मुजफ्फर अहमद ने पंडित को 'उदार और गहरी संवेदना' वाला व्यक्ति करार दिया। यह चित्रण रंजीत पंडित की बेटी पर भी सटीक बैठता है। 2015 में नयनतारा सहगल ने दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं द्वारा किए जा रहे नफरत फैलाने वाले कृत्यों के विरोध में साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटा दिया था।
उन्होंने टिप्पणी की थी, 'भारत पीछे की ओर जा रहा है। यह सांस्कृतिक विविधता और वाद-विवाद के हमारे महान विचार को खारिज कर रहा है और हिंदुत्व नामक एक आविष्कार तक सिमट कर रह गया है।' उन्होंने रेखांकित किया कि प्रधानमंत्री, जिन्हें ऐसे राजनेता के रूप में जाना जाता है, जिन्हें पता है कि कैसे भाषण दिया जाता है, वह लेखकों की हत्या और मुस्लिमों पर किए गए हमलों पर चुप रहे।
उनके इस विरोध पर भाजपा की ट्रोल सेना ने कुछ अवसरवादी पत्रकारों के साथ मिलकर श्रीमती सहगल पर तीखे हमले किए और कहा कि इंदिरा गांधी की बहन होने और नेहरू की भतीजी होने के कारण उन्हें ऐसी आलोचना का हक नहीं। जबकि सच यह है कि 1970 के दशक में जब इंदिरा गांधी अधिनायकवाद के रास्ते पर चल रही थीं, तब नयनतारा ने न केवल उसकी आलोचना की, बल्कि उन्होंने इसकी कीमत भी चुकाई। मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा कि उनकी इस सोच ने निस्संदेह हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के प्रति उनके मामा की प्रतिबद्धता से आकार लिया, जबकि उनकी वैश्विक दृष्टि में महात्मा गांधी के जीवन और उनकी विरासत का कहीं अधिक प्रभाव रहा।
देहरादून के अपने पिछले प्रवास में मैं नयनतारा सहगल से मिलने उनके घर गया। कुछ बरस पहले वह कैंसर से गंभीर रूप से बीमार हो गई थीं। अब वह उससे ठीक हो चुकी थीं और फिर से लेखन करने लगी थीं और हिंदुत्व कट्टरता से गणतंत्र को मिल रही चुनौतियों पर बोल रही थीं। अपनी दोस्त से विदा लेते हुए अचानक मुझे उनकी सुरक्षा को लेकर भय हुआ। मैंने उनसे कहा, 'तारा, अपना खयाल रखना और अपनी सेहत पर ध्यान देना।' उन्होंने जवाब दिया, 'मेरे पास बीमार होने का भी समय नहीं है। यह समय बीमार होने का नहीं है।'
आने वाली दस मई को नयनतारा सहगल पंचानबे साल की हो जाएंगी। यह उन्हें हैप्पी बर्थ डे कहने का समय नहीं। इसके बजाय मैं उनसे, वह जो हैं, उसके लिए आभार जता रहा हूं। एक लेखक और नागरिक के रूप में वह हमारे गणतंत्र के महान मूल्यों का प्रतीक हैं। वह गांधी के जीवन और मृत्यु की गवाह हैं, और उन्होंने जो कुछ भी किया है, वह सीधे उनके उदाहरण से प्रेरिेत है।
सोर्स: अमर उजाला
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