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तख्तापलट के एक साल बाद अनिश्चित है म्यांमार का भविष्य

Renuka Sahu
1 Feb 2022 1:01 AM GMT
तख्तापलट के एक साल बाद अनिश्चित है म्यांमार का भविष्य
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फाइल फोटो 

एक साल पहले म्यांमार के सैनिक जनरलों ने शासन पर कब्जा कर लिया. म्यांमार में सेना और सैनिक तख्तापलट के विरोधी आमने सामने हैं.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। एक साल पहले म्यांमार के सैनिक जनरलों ने शासन पर कब्जा कर लिया. म्यांमार में सेना और सैनिक तख्तापलट के विरोधी आमने सामने हैं. राष्ट्रव्यापी प्रदर्शनों ने देश पर उनका नियंत्रण नहीं होने दिया है. इरावदी की त्रासदी जारी है.म्यांमार में 1 फरवरी 2021 को तख्तापलट के बाद से हजारों लोग मारे गए हैं. उनमें प्रदर्शनकारियों के अलावा प्रतिरोध संघर्षकर्ता, सरकारी अधिकारी, सैनिक और नागरिक शामिल हैं. हालांकि, विश्वसनीय आंकड़े बामुश्किल उपलब्ध हैं. सैन्य शासन का विरोध करने वाले मानवाधिकार संगठन "असिस्टेंस एसोसिएशन फॉर पॉलिटिकल प्रिजनर्स (बर्मा)" के अनुसार, तख्तापलट के सिलसिले में 1463 "नायकों" की जान गई (13.01.2022 तक). गैर सरकारी संगठन "द आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट" (एसीएलईडी) ने पिछले साल समाचार पत्रों के लेखों, गैर-सरकारी संगठनों और सोशल मीडिया की रिपोर्टों के आधार पर 11,000 से अधिक मौतें दर्ज कीं. विश्व बैंक के अनुसार, देश के आर्थिक उत्पादन में 2021 में 18 प्रतिशत की गिरावट आई है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, लगभग साढ़े तीन लाख लोग देश के अंदर ही विस्थापित हो गए. अधिक से अधिक पत्रकारों को मारा जा रहा है, कैद किया जा रहा है या वे देश छोड़ कर जा रहे हैं.

म्यांमार के विशेषज्ञ डेविड स्कॉट माथिसन ने बर्मी और अंग्रेजी मासिक समाचार पत्र "द इरावदी" के ऑनलाइन संस्करण के साथ एक साक्षात्कार में म्यांमार में हो रहे विकास के बारे में कहा, "मेरी राय में, मौजूदा स्थिति द्वितीय विश्व युद्ध के बाद म्यांमार को मिली आजादी के बाद से सबसे खराब है. असल में, सेना ने अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी है" प्रतिरोध के विविध रूप पिछले दशकों के विपरीत, जब संघर्ष मुख्य रूप से बामार जाति बहुल सेना के जवानों और जातीय अल्पसंख्यकों के बीच हो रहा था, आज बर्मा के हार्टलैंड में भी भयंकर लड़ाई हो रही है, जैसे कि केंद्रीय बर्मी राज्य सागिंग में. लाखों लोगों के राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों के काफी हद तक विफल हो जाने के बाद सशस्त्र प्रतिरोध उत्पन्न हुआ. सेना बड़े पैमाने पर बल के उपयोग के साथ लोगों को सड़कों से दूर करने में कामयाब रही, लेकिन इससे सैन्य जुंटा की अस्वीकृति को और बल मिला. हालांकि कोई गंभीर शोध नहीं हुआ है, फिर भी पर्यवेक्षक इस बात से सहमत हैं कि आबादी का एक बड़ा बहुमत सैनिक सरकार को अस्वीकार करता है. ये बात इससे भी पता चलती है कि सैन्य विशेषज्ञ एंथनी डेविस के अनुसार, देश भर में करीब लगभग 50 जनरक्षा टुकड़ियां बन गई हैं, जो हथियारबंद जातीय समूहों के समर्थन से, सैन्य कर्मियों, पुलिस अधिकारियों, कथित या वास्तविक मुखबिरों और सुरक्षा संस्थानों पर हमले करते हैं, और यहां तक कि सेना के साथ झड़पों में उलझाते हैं. मिलिशिया और नागरिक विरोध आंदोलन के अलावा, जातीय समूह और उनकी सेनाएं देश में सेना के विरोध में तीसरी ताकत बन कर उभरी है. ये लंबे समय से या तो स्वतंत्र या केंद्र सरकार के साथ संघर्ष में रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, उनमें से कुछ सेना के विरोधियों को आश्रय और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, लेकिन अपने इलाकों में कमान अपने हाथों में रखने पर जोर देते हैं. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हालांकि कई हथियारबंद जातीय समूह सेना के दुश्मन हैं, लेकिन वे खुले तौर पर विपक्ष का समर्थन नहीं करते हैं क्योंकि संघर्ष का नतीजा निश्चित नहीं है. तीन परिदृश्य देश में हालात कैसे विकसित होंगे, यह किसी को नहीं पता. तीन परिदृश्यों की कल्पना की जा सकती है: सेना हालात पर काबू पाने में कामयाब होगी, विपक्ष बढ़त हासिल कर लेगा, या गतिरोध जारी रहेगा. इन तीन में से किसी परिदृश्य का मतलब म्यांमार के लिए शांति और विकास का आना नहीं है. यदि सेना ताकतवर हो, और कुछ जातीय अल्पसंख्यक क्षेत्रों के अपवाद के साथ देश के बड़े हिस्सों पर नियंत्रण हासिल कर ले और तख्तापलट के बाद किए गए वादे के अनुसार चुनाव करवा दे, फिर भी आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा सैनिक शासन की गहरी अस्वीकृति बनी रहेगी.
सेना को स्थायी रूप से दमन और निगरानी के कदमों पर भरोसा करना होगा. उसकी स्थिति निकट भविष्य में मजबूत नहीं होगी. ऐसी परिस्थितियों में, आर्थिक और राजनीतिक विकास मुश्किल होगा. यदि राष्ट्रीय एकता सरकार, निर्वाचित संसद और इसकी सशस्त्र शाखा (पीपल्स डिफेंस फोर्सेज, पीडीएफ) कामयाब रहती है, तो पहला खुला सवाल यह होगा कि विजेता सैन्य बलों के सदस्यों के साथ कैसे निपटते हैं. सैनिकों और उनके परिवारों, जो कुल मिलाकर लाखों की तादाद में हैं, को किस तरह मुख्यधारा में शामिल किया जाएगा. अन्यथा, नए मिलिशिया और सशस्त्र समूह उभर सकते हैं जो लगातार देश को अस्थिर करते रहेंगे. देश के विघटन का भी खतरा है. आजादी के बाद से किसी भी समय केंद्र सरकार का पूरे राष्ट्रीय क्षेत्र पर नियंत्रण नहीं रहा है. तख्तापलट के बाद से, प्रांत और जातीय अल्पसंख्यक अपनी स्वायत्तता का और विस्तार करने या स्वतंत्र होने की तैयारी करने में लगे हैं. सेना के पतन और एक नई प्रणाली की स्थापना के बाद संक्रमण की अवधि को कुछ जातीय अल्पसंख्यक अवसर के रूप में देख रहे हैं. कोई बहुत ताकतवर नहीं हालांकि, विशेषज्ञों के अनुसार, म्यांमार में निकट भविष्य में किसी भी सैन्य समाधान की उम्मीद नहीं की जा सकती है. मिलिशिया के पास सैन्य उपकरणों, रणनीति और समन्वय की ही कमी नहीं है, कमांड की भी शुरुआती संरचना है. भूमिगत तौर पर काम करने वाली राष्ट्रीय एकता की सरकार को अभी तक दुनिया की किसी भी सरकार ने मान्यता नहीं दी है, और उसके पास वित्तीय संसाधनों की भी भारी कमी है. इसके अलावा, उसके ठिकाने बर्मी-थाई सीमा क्षेत्र और थाईलैंड में हैं और इसलिए वह जातीय अल्पसंख्यकों और थाईलैंड की सरकार की सद्भावना पर निर्भर है, जो खुद एक सैन्य विद्रोह से सत्ता में आई है। दूसरी ओर सेना इस बात से जूझ रही है कि लगभग पूरा देश उथल-पुथल में है और इसलिए अपनी ताकत को एकजुट नहीं कर सकती.
सैन्य विशेषज्ञ डेविस के अनुसार, सेना का मनोबल पस्त है. आने वाले दिनों में, सेना को न केवल सामान्य जवानों की बल्कि अधिकारियों की भर्ती में भी समस्याएं हो सकती हैं. सैनिक प्रतिष्ठान से अब इतनी नफरत है कि बहुत कम लोग सेना में भर्ती होने के लिए तैयार हैं. दूसरी ओर, विपक्ष द्वारा कब्जावर समझी जाने वाली सेना, ब्रिटेन या जापान की तरह वापस कहीं नहीं जा सकती. इसलिए सैनिक प्रतिष्ठान अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. मानवीय मदद की जरूरत इसलिए सबसे अधिक संभावित परिदृश्य एक स्थायी गतिरोध लगता है. इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप का भी निष्कर्ष यही है कि "निकट भविष्य में न तो सेना और न ही विपक्ष का पलड़ा भारी होगा, और इस संघर्ष के गहराने के गंभीर मानवीय नतीजे होंगे. दूसरे शब्दों में, कोई भी पक्ष नहीं जीतेगा, लेकिन पूरा देश और उसके लोग हारेंगे. डीडब्ल्यू से बात करने वाले यांगून के एक निवासी के अनुसार, जो सुरक्षा कारणों से अपना नाम नहीं बताना चाहते, भयानक युद्ध के बाद अंततः कभी न कभी बातचीत होगी, भले ही इस समय इसकी कल्पना मुमकिन न हो. यदि दोनों पक्ष समझ जाएं कि वे जीत नहीं सकते हैं, जब देश को खूनखराबे और विनाशकारी आर्थिक क्षति का सामना करना पड़े, फिर बातचीत अनिवार्य हो जाएगी. और जबतक ये नहीं होता है, तब तक, देश को मानवीय सहायता की जरूरत होगी. और इसके साथ संयुक्त राष्ट्र, यूरोप और अमेरिका म्यांमार पर सबसे अधिक प्रभाव डाल सकेंगे.
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