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निजीकरण का लंबा अनुभव: सरकारी कंपनियां बेचने से किसका फायदा

Neha Dani
25 Oct 2021 3:46 AM GMT
निजीकरण का लंबा अनुभव: सरकारी कंपनियां बेचने से किसका फायदा
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जो लोग पहले सरकारी कंपनियों में काम कर रहे थे, उन्हें इस प्रक्रिया में हारा माना जाएगा.

भारत में सरकारी कंपनियों के निजीकरण का मुद्दा विवादों के घेरे में रहता है. जानिए, जर्मनी का इस बारे में अनुभव कैसा रहा है. उसके पास निजीकरण का लंबा अनुभव है.पलट कर देखे तो जर्मनी के पास छह दशक से भी ज्यादा पुराना सरकारी कंपनियों के निजीकरण का अनुभव है. साल 1960 में ही फॉक्सवागन जैसी बड़ी कंपनी को या वेबा जैसी माइनिंग और बिजली कंपनी को आंशिक तौर पर प्राइवेट शेयरधारकों के हाथों में सौंप दिया गया था. वुपरटाल विश्वविद्यालय के डेटलफ जाक का मानना है कि केंद्र सरकार की प्राथमिकता सुस्त सरकारी कंपनियों को और प्रभावी बनाना नहीं थी. जर्मनी और यूरोप में प्राइवेटाइजेशन के इतिहास पर साल 2019 में किताब लिख चुके यह राजनीति विज्ञानी विस्तार से बताते हैं, "1960 के दशक में चली यह प्राइवेटाइजेशन की लहर मुख्यत: इस विचार पर आधारित थी कि सभी तरह की सरकारी कंपनियों की कुछ हिस्सेदारी आम जनता को बेची जाए" यह विचार जर्मन जनता की रुचि स्टॉक मार्केट में और बढ़ाने से जुड़ा था. माना जा रहा था कि नए शेयरहोल्डर हर तरह के लोग होंगे और वे सामाजिक बाजार अर्थव्यवस्था में और भाग लेंगे. टेलीकॉम और डॉयचे पोस्ट की सीख डॉयचे टेलीकॉम के 1996 में शेयर मार्किट में जाने के 30 साल बाद भी सरकारी कंपनी के शेयर को 'जनता के शेयर' के तौर पर ही मार्केट किया जाता है. उस समय टेलीकॉम के प्रमुख रहे रॉन सोमर बताते ने यह वादा भी किया था कि ये शेयर किसी पूरक पेंशन जितने ही सुरक्षित होंगे. लेकिन 2010 में टेक्नोलॉजी बुलबुले के फूटने के बाद ऐसे वादे पूरी तरह से गायब हो गए. जाक ने लिखा है, "इस प्रक्रिया में नागरिकों को भौतिक समृद्धि की हर श्रेणी में भाग लेने का मौका देने के लिए राज्य की संपत्तियां बेचने का विचार भी शामिल था" उस समय स्टॉक मार्केट में आए नए लोगों को टेलीकॉम के शेयर खरीदने के लिए तेजी से सुझाव दिए गए.

इस दौरान उन्हें यह नहीं बताया गया कि एक ही शेयर पर पर्याप्त पूंजी लगा देना पर्याप्त नहीं होता जबकि यह तथ्य कि निवेशक को अलग-अलग तरह की इंडस्ट्री और देशों की कई अलग-अलग सिक्योरिटीज पर निर्भर रहना चाहिए, इसे अक्सर ही उस समय के स्टॉक मार्केट के बुखार में दबा दिया गया. इसका नतीजा नुकसान, निराशा और हजारों-लाखों नए निवेशकों के खोए विश्वास के रूप में दिखा. इसके उलट डॉयचे पोस्ट के प्राइवेट निवेशकों के लिए स्थितियां बेहतर रहीं. यह कंपनी जिसे नवंबर, 2000 की शुरुआत में ही आंशिक तौर पर प्राइवेटाइज कर दिया गया था, लंबे समय से अपनी अमेरिकी सब्सिडियरी डीएचएल के साथ बढ़िया मुनाफा बनाती आ रही है. यहां पर कंपनी को ऑनलाइन शॉपिंग के चलते अमेजन और दूसरी ऑनलाइन विक्रेताओं के पार्सल डिलीवर करके फायदा हुआ है. एक और ट्रेंड जो कि पिछले 20 सालों से दिख रहा है, वह यह है कि सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन के दौरान शेयर खरीदने के लिए लगातार संस्थागत निवेशक आगे आ रहे हैं. जाक जोर देते हैं, "आज प्राइवेटाइजेशन मुख्यत: इस विचार के साथ आगे बढ़ रहा है कि सरकारी कंपनियों को और कुशल बनाना है. निवेशक पूजी बाजार से हैं. यह बिल्कुल अलग तर्क है" कुछ जीते और कुछ हारे जाक लिखते हैं, "कुल मिलाकर जर्मनी में सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन के अनुभव बहुत अलग रहे हैं. खासकर जब बात विजेताओं और पराजितों की आती है. हारने वालों में सबसे मुख्य बात यह रही कि पिछले 20-30 सालों में कई कर्मचारी प्राइवेटाइजेशन के गलत पाले में रहे. जो लोग पहले सरकारी कंपनियों में काम कर रहे थे, उन्हें इस प्रक्रिया में हारा माना जाएगा.


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