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जानें क्या है 'डेलाइट सेविंग टाइम' और इन देशों में क्यों बदलते हैं साल में दो बार घड़ियों का समय

Gulabi
2 Nov 2020 12:19 PM GMT
जानें क्या है डेलाइट सेविंग टाइम और इन देशों में क्यों बदलते हैं साल में दो बार घड़ियों का समय
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दुनिया के कई देशों में ऐसा होता है कि साल में दो बार घड़ी में टाइम की सेटिंग बदल दी जाती है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। दुनिया के कई देशों में ऐसा होता है कि साल में दो बार घड़ी में टाइम की सेटिंग (Time Setting) बदल दी जाती है. यानी समय करीब एक घंटे आगे और पीछे हो जाता है. इस प्रैक्टिस को डेलाइट सेविंग टाइम सिस्टम के तौर पर समझा जाता है. आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि अमेरिका में इस बदलाव से अब भारत से न्यूयॉर्क की दूरी वर्तमान साढ़े नौ घंटे से बढ़कर साढ़े दस घंटे की नज़र आएगी क्योंकि अब न्यूयॉर्क की घड़ी ग्रीनविच मीनटाइम (GMT) के अनुसार होगी.

नहीं, यह कोई पहेली नहीं है. चलिए इसे आसानी से समझते हैं. साल के 8 महीनों के लिए अमेरिका और कई अन्य देशों में घड़ी एक घंटे आगे चलती है और बाकी 4 महीने वापस एक घंटे पीछे कर दी जाती है. यानी मार्च के दूसरे रविवार को अमेरिका में घड़ियों को एक घंटा आगे कर दिया जाता है और नवंबर के पहले रविवार को वापस एक घंटा पीछे. ऐसा क्यों होता है, इसका क्या फायदा है और इस सिस्टम पर क्या बहस है? सब कुछ दिलचस्प भी है और जनरल नॉलेज भी.

इस सिस्टम का कारण?

पुराने समय में माना जाता था कि इस प्रैक्टिस से दिन की रोशनी के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल के चलते किसानों को अतिरिक्त कार्य समय मिल जाता था. लेकिन, समय के साथ यह धारणा बदली है. DST सिस्टम को अब बिजली की खपत कम करने के मकसद से अपनाया जाता है. यानी समर के मौसम में घड़ी को एक घंटा पीछे करने से दिन की रोशनी के ज़्यादा इस्तेमाल के लिए मानसिक तौर पर एक घंटा ज़्यादा मिलने का कॉंसेप्ट है.

किन देशों में है ये सिस्टम?

दुनिया के करीब 70 देश इस सिस्टम को अपनाते हैं. भारत और अधिकांश मुस्लिम देशों में यह प्रैक्टिस नहीं अपनाई जाती. यूरोपीय यूनियन में शामिल देशों में यह सिस्टम है. अमेरिका के राज्य इस सिस्टम को मानने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य नहीं हैं. अपनी मर्ज़ी से इस सिस्टम को अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं. जैसे फ्लोरिडा व कैलिफोर्निया में DST अपनाया जाता है, लेकिन एरिज़ॉना में नहीं.

क्या कोई देश चाहता है इससे छुटकारा?

पिछले साल मार्च में, यूरोपीय यूनियन के देशों ने DST की प्रणाली खत्म किए जाने की तरफ कदम बढ़ाए और इसके लिए वोटिंग के बाद बहुमत के आधार पर यह सिस्टम खत्म किया जाएगा. 2021 में ये देश 'समर' या 'विंटर' में से एक को चुना जाएगा. जो परमानेंट समर टाइम चुनेंगे, वो देश अपनी घड़ी को आखिरी बार मार्च 2021 में बदलेंगे और विंटर टाइम चुनने वाले देश इस साल अक्टूबर में आखिरी बार घड़ी बदल चुके.

अमेरिका में भी, इस सिस्टम को लेकर काफी बहस रही है और कुछ राज्य इससे मुक्त रहे हैं. आइए, अब इस बहस को समझें.

क्या DST से वाकई कोई फायदा है?

इस प्रैक्टिस को इसलिए अपनाया गया था ताकि एनर्जी की खपत कुछ कम हो, लेकिन अलग अलग स्टडीज़ इस बारे में अलग अलग आंकड़े दे चुकी हैं इसलिए बहस चलती रही है. उदाहरण के लिए 2008 में अमेरिकी एनर्जी विभाग ने कहा कि इस प्रैक्टिस के चलते करीब 0.5 फीसदी बिजली की बचत हुई. लेकिन आर्थिक रिसर्च के नेशनल ब्यूरो ने उसी साल एक स्टडी में कहा कि DST के चलते बिजली की डिमांड बढ़ी.

इस स्टडी में माना गया कि भले ही खपत कुछ कम हुई, लेकिन बिजली की मांग भी साथ ही बढ़ी इसलिए खपत होने से कोई खास फायदा नहीं हुआ. कुछ और स्टडीज़ में माना गया कि DST लोकेशन के हिसाब से कारगर हो सकता है. एक स्टडी में नॉर्वे और स्वीडन में बिजली की खपत में कमी दिखी तो दूसरी में इंडियाना में बिजली की मांग बढ़ना देखा गया.

आखिर शुरू कैसे हुआ था ये सिस्टम?

ये जो मार्च और नवंबर में घड़ी में टाइम बदलने का मौजूदा सिस्टम है, अमेरिका में उसकी शुरूआत 2007 में हुई थी, लेकिन डेलाइट सेविंग का कॉंसेप्ट काफी पुराना है. हालांकि इसकी शुरूआत के सही वक्त पर कोई आम राय नहीं है, लेकिन माना जाता है कि बेंजामिन फ्रेंकलिन ने 1784 में इसका पहली बार उल्लेख अपने एक पत्र में किया था. ब्रिटेन और जर्मनी जैसे कई देशों में पहले विश्व युद्ध के समय DST सिस्टम अपनाया गया.

दूसरी तरफ, अमेरिका में इस सिस्टम को 1966 से पहले अपनाए जाने के सबूत नहीं हैं. 2007 से पहले तक अमेरिका में DST के तहत अप्रैल के पहले रविवार और अक्टूबर के आखिरी रविवार को घड़ी में टाइम को एक घंटे आगे और पीछे किया जाता रहा था.

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