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राहत की आस : पेट्रोल-डीजल जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं

Neha Dani
9 Nov 2021 1:51 AM GMT
राहत की आस : पेट्रोल-डीजल जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं
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जिसे जीएसटी कहा जाता है, में लेकर आएं, ताकि मूल्यों में हो रही अत्यधिक बढ़ोतरी से राहत मिल सके।

इस बार की दिवाली कुछ खुशनुमा रही, क्योंकि सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में थोड़ी कमी करके आम जनता को एक तोहफा दिया! यह तोहफा एक आम भारतीय के लिए बहुत खास है, क्योंकि पिछले कुछ समय से वह लगातार भ्रम पालकर चल रहा था कि पेट्रोल व डीजल इतने महंगे नहीं हो सकते हैं, फिर भी पेट्रोल व डीजल तो महंगाई में इतिहास बना ही गए। अतः उत्पाद शुल्क में कटौती को तोहफे के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। आम आदमी के मन में एक कसक अब भी है कि पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस के दाम इतने क्यों बढ़ रहे हैं?

इस मूल्यवृद्धि के पीछे के कुछ कारणों को आम आदमी समझता है, जैसे कि भारत कच्चा तेल आयात करता है तथा देशी बाजार में इसके खुदरा मूल्य का आधार इसकी वैश्विक लागत है। वह यह भी समझता है कि केंद्र व राज्य सरकार के पास पेट्रोल व डीजल ऐसी वस्तुएं हैं, जिनके माध्यम से अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए जरूरी राजस्व का संग्रहण होता है। वैश्विक लागत तो नहीं बढ़ रही है, पर घरेलू बाजार में प्रतिदिन पेट्रोल व डीजल के दाम बढ़ रहे हैं।
वह इसलिए भी व्यथित है कि वह कोरोना की आर्थिक चोट से उबरा नहीं है, जबकि लगातार बढ़ती महंगाई उसे पुनः आर्थिक संकटों में डाल रही है। पिछले कुछ समय से केंद्र व राज्य के बीच पेट्रोल व डीजल पर कर की दरों के संबंध में सामंजस्य न होने के कारण आम आदमी अपने आप को कहीं का भी नहीं पा रहा है। वह स्वयं को असहाय व शोषित महसूस करता है, जब सभी आर्थिक सर्वेक्षण एवं मीडिया के प्लेटफार्म महंगाई में वृद्धि का कारण पेट्रोल व डीजल के अत्यधिक मूल्यों को पाते हैं।
विवश होकर केंद्र सरकार अपने द्वारा लिए जाने वाले कर, उत्पाद शुल्क में कमी करती है, परंतु भारतीय लोकतंत्र की अजीब विडंबना है कि राज्य सरकारें अपने द्वारा लगाए जाने वाले कर, वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) को कम करने को तैयार नहीं हैं तथा तर्क करती हैं कि केंद्र को और उत्पाद शुल्क में कमी करनी चाहिए। भारत जैसे विकासशील मुल्क में पेट्रोल व डीजल पर इतना अधिक कर क्यों है? यह प्रश्न बिल्कुल वाजिब है।
इस पर अधिक से अधिक चर्चा की आवश्यकता है। जरा देखिये, अगर भारत में प्रति लीटर पेट्रोल का मूल्य 95 रुपये है, तो उसमें से 33 रुपये का कर केंद्र को जा रहा है तथा 22 रुपये राज्य को। हालांकि राज्यों में कर की दरें अलग-अलग हैं। फिर भी क्या यह अत्यधिक नहीं है! दूसरी बात यह भी है कि भारत एक ऐसा मुल्क है, जिसमें आर्थिक असमानता बहुत बड़े स्तर पर है। इसकी शुरुआत उदारीकरण के दौर से हो गई थी, परंतु कोरोना से प्रभावित पिछले कुछ समय में तो यह बहुत बढ़ गई है।
इस बात को विभिन्न आर्थिक व सामाजिक सर्वेक्षणों में पाया जा सकता है। आर्थिक संकट के संदर्भ में यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि पेट्रोल व डीजल के मूल्यों में वृद्धि सभी तरह की महंगाई का एक प्रत्यक्ष कारण होती है। परिवहन लागत जब बढ़ती है, तो उससे सभी तरह की वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है। अब चाहे वह खाद्य पदार्थ, सब्जी व फल हो या बच्चों के स्कूल व कॉलेज आवागमन के लिए उपयोग में आने वाले वाहन का मासिक किराया हो।
पेट्रोल व डीजल के मूल्यों में वृद्धि के आर्थिक मर्म को इस बात से भी समझा जा सकता है कि 135 करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क में करीब 65 करोड़ लोग ही सरकारी, निजी व असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत हैं। बाकी बचे 70 करोड़ से अधिक व्यक्ति किसी भी तरह का रोजगार नहीं करते हैं, जिनमें घरेलू महिलाएं, बच्चे व वृद्ध सम्मिलित हैं। इन 70 करोड़ व्यक्तियों की आर्थिक गुजर-बसर 65 करोड़ लोगों की आर्थिक आय पर निर्भर है।
इसीलिए आय बढ़ने के बावजूद भारत में प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है। ऐस में, आम नागरिक अपेक्षा करता है कि केंद्र व राज्य सरकार राजनीति से ऊपर उठकर आपसी सामंजस्य स्थापित करें तथा पेट्रोल व डीजल को आदर्श कर प्रणाली, जिसे जीएसटी कहा जाता है, में लेकर आएं, ताकि मूल्यों में हो रही अत्यधिक बढ़ोतरी से राहत मिल सके।
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