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'चीन-पाकिस्तान' और अब्दुल्ला खानदान का इतिहास दान का गहरा रिश्ता

Neha Dani
22 Oct 2020 6:02 AM GMT
चीन-पाकिस्तान और अब्दुल्ला खानदान का इतिहास दान का गहरा रिश्ता
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फारूक अब्दुल्ला द्वारा जम्मू कश्मीर में पुराने दिन लौटाने के लिए चीन से सहायता लेने के बयान पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

फारूक अब्दुल्ला द्वारा जम्मू कश्मीर में पुराने दिन लौटाने के लिए चीन से सहायता लेने के बयान पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। चीन से उनके चीन-पाकिस्तान' और अब्दुल्ला खानदान का इतिहास दान का गहरा रिश्ता रहा है। वह तो भारत सरकार की उदारता रही है कि हर बार अब्दुल्ला परिवार की मंशा साफ न होने के बावजूद उन्हें सत्ता सुख लेने दिया। इन दिनों फारूक के लिए आंसू बहाने वाले कुछ बड़े नेता और मीडिया के दिग्गज पिछले छह दशकों के शेख अब्दुल्ला परिवार के प्रामाणिक रिकॉर्ड को या तो याद नहीं रखना चाहते हैं या अनजान हैं, जो भारत, चीन और पाकिस्तान सरकारों की फाइलों में दर्ज है। जनवरी, 1965 में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री ने चीन के विदेश मंत्री को दिए रात्रि भोज के मौके पर घोषणा की थी कि 'जल्द ही कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए शेख अब्दुल्ला और चीन के प्रधानमंत्री चाउ इन लाइ के बीच मुलाकात होगी। चीन शेख साहब को निमंत्रित करेगा।' पाकिस्तान तब शेख को कश्मीर की निर्वासित सरकार का मुखिया मान रहा था। इस एलान पर दो महीने बाद अमल हो गया। 31 मार्च, 1965 को शेख अब्दुल्ला और चाउ इन लाइ की लंबी गुप्त वाली बैठक अल्जीयर्स में हुई।

इस बैठक के बाद चीन ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि वह कश्मीर के भारत से अलग होने के स्वनिर्णय का पूरा समर्थन करेगा। शेख ने भी इस समर्थन का स्वागत करते हुए शुक्रिया अदा किया। इधर भारत में उदार, लेकिन राष्ट्रहित के दृढ़ निश्चयी प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री सहित सरकार, संसद और संपूर्ण देश विचलित और क्रोधित हुआ। शास्त्रीजी ने संसद में विश्वास दिलाया कि इस अपराध के लिए शेख अब्दुल्ला पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी। सरकार ने तत्काल उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया और फिर आठ मई को भारत में प्रवेश करते ही उन्हें हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया। पाकिस्तान ने इससे तिलमिलाकर न केवल सरकारी स्तर पर इसका विरोध किया, बल्कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शिकायत भी दर्ज की।

दूसरी तरफ उसने कश्मीर पर सैन्य हमले की तैयारी शुरू कर दी। वैसे भी उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति सैन्य तानाशाह जनरल अयूब खान थे। चीन की छत्रछाया में अयूब खान ने मोर्चे पर सैनिक हमले शुरू किए, जो अगले महीनों में खुले युद्ध में तब्दील हो गया। सवाल यह है कि क्या इस बार भी फारूक अब्दुल्ला कश्मीर को भारत से अलग करने के षड्यंत्र की तैयारी कर चुके हैं? नेहरू, शास्त्री, इंदिरा गांधी के शासन काल में ऐसी कोशिशों और शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के कई दौर चले। बाद में केंद्र सरकारों ने संविधान के दायरे में और शपथ के साथ शेख के नवाबजादे फारूक अब्दुल्ला और फिर उमर अब्दुल्ला को कश्मीर में राज करने के अवसर दिए। इसका लाभ कश्मीर की गरीब जनता को तो नहीं मिला, पर अब्दुल्ला परिवार और उनके नजदीकी साथियों को अरबों रुपयों की संपत्ति जुटाने, पाकिस्तान और चीन से रिश्ते रखने, आतंकी संगठनों को पर्दे के पीछे और जरूरत होने पर राज्य सरकार से मदद करने का मौका मिला। वास्तव में अब्दुल्ला परिवार कश्मीर के नाम पर केंद्र सरकारों से सौदेबाजी में लगा रहा है। वे सत्ता में रहने पर लुटाने की पूरी छूट और सत्ता में न रहने पर उनके भ्रष्टाचार और अन्य अपराधों पर कार्रवाई नहीं करने का दबाव बनाते हैं।

अब जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के संसद के निर्णय के लागू होने के साल भर बाद उसकी वापसी की मांग पूरी नहीं होने का एहसास शायद फारूक और कांग्रेस सहित उनके समर्थक दलों के नेताओं को भी हो गया है। वे अपने काले कारनामों की फाइलों को ठंडे बस्ते में डाल देने, जेल नहीं भेजने की दुहाई दे रहे हैं। तथ्य यह भी है कि कश्मीर को लूटने में कभी उनकी धुर विरोधी रही महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और कांग्रेस पार्टी के नेता भी समय-समय पर कुछ हिस्सा पाते रहे हैं। इसलिए कांग्रेस बाहर से साथ दे रही है। वहीं पीडीपी और छोटे-मोटे दल अपने-अपने स्वार्थों के लिए फारूक के कदमों में बैठ रहे हैं। अब्दुल्ला परिवार को पहली बार एक सख्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वास्ता पड़ा है, जो न तो सौदेबाजी के लिए तैयार हैं और न ही कश्मीर में किए गए भ्रष्टाचार के मामलों को रफा-दफा करने को।

इस समय सबसे गंभीर प्रामाणिक मामला 2002 से 2011 के सत्ता काल का है। इस अवधि में राज्य सरकार ने प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन को करीब 112 करोड़ रुपये का अनुदान दिया। फारूक अब्दुल्ला स्वयं इस संगठन के अध्यक्ष भी थे। सारी चालाकियों के बावजूद इसमें से 43 करोड़ रुपयों की गड़बड़ी के आरोप सामने आने पर 2015 में सीबीआई ने मामला दर्ज किया। इसे राजनीतिक इसलिए नहीं माना जा सकता, क्योंकि जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के आदेश पर यह कार्रवाई हो रही है। जुलाई 2019 में प्रवर्तन निदेशालय ने भी प्रमाणों के साथ कई लोगों से पूछताछ की। दूसरी तरफ राष्ट्रपति शासन के दौरान कुछ वरिष्ठतम अधिकारियों को ऐसी जानकारी मिली कि फारूक और उनके करीबी जम्मू कश्मीर बैंक से लगभग तीन

सौ करोड़ रुपये नकद भी निकालते रहे। उसकी भी विस्तृत जांच चल रही है।

भ्रष्टाचार के मामले में यदि लालू यादव या ओमप्रकाश चौटाला जेल जा सकते हैं, तो जम्मू कश्मीर या सीमावर्ती पूर्वोत्तर राज्य के नेताओं को क्या अदालतें अपराध सिद्ध होने पर भी माफ कर देंगी या माफ कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि चीन या पाकिस्तान उन पर कार्रवाई से नाराज हो जाएंगे? इसलिए मुद्दा कश्मीर के विकास का होना चाहिए। लगभग सत्तर साल से राज कर रहे एक परिवार को लूटने का अधिकार जारी रखना बेहतर है या कश्मीर को आतंकवाद से मुक्ति दिलाते हुए असली जन प्रतिनिधियों की सरकार बनवाना? जम्मू कश्मीर के युवा शांति के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पर्यटन विकास की योजनाओं पर अमल चाहते हैं। फारूक और महबूबा या उनके समर्थक भारत विरोधी संगठनों की सारी धमकियों के बावजूद कश्मीर में कोई आग नहीं लग पाए हैं। दोनों महीनों तक घरों में नजरबंद रहकर हाल में साथ बैठने निकलने लगे हैं। इसलिए उन्हें न्यायालयों और जनता के फैसलों का इंतजार करना चाहिए। चीन और पाकिस्तान से हमलों का इंतजार करना उनके लिए आत्मघाती होगा। पाक-चीन से निपटने के लिए हमारी सेना सक्षम है, इसलिए दुश्मनों को भी हजार बार सोचना पड़ेगा।


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