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नेपाल और ब्रिटेन के अलावा ब्रूनेई और सिंगापुर में भी गोरखा रेजीमेंट किसी न किसी रूप में हैं.
फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने कहा था कि अगर कोई यह कहे कि उसे मौत से डर नहीं लगता तो या तो वो गोरखा है या फिर झूठ बोल रहा है. गोरखा, भारतीय सेना के वो बहादुर सैनिक जिनका लोहा दुनिया, प्रथम विश्व युद्ध से मान रही है. शुक्रवार को भारतीय सेना को ऐसे ही नए 64 गोरखा जवान मिले हैं जो अब देश की रक्षा में तैनात होंगे. 42 हफ्ते के कठिन प्रशिक्षण के बाद 64 गोरखा जवान भारतीय सेना का हिस्सा बने हैं.
गिफ्ट की गई खुखरी
उत्तर प्रदेश के वाराणसी कैंट स्थित 39 गोरखा ट्रेनिंग सेंटर (जीटीसी) में 64 गोरखा जवानों को कसम परेड के बाद भारतीय सेना हिस्सा बनाया गया. ट्रेनिंग सेन्टर में कोविड प्रोटोकॉल का पालन कराते हुए आयोजित परेड की सलामी कमांडिंग ऑफिसर ब्रिगेडियर हुकुम सिंह बैंसला (सेना मेडल) ने ली. पासिंग आउट परेड के बाद देश के लिए जान न्योछावर करने की शपथ लेने वाले गोरखा जवानों को नेपाली संस्कृति के अनुसार उनका परंपरागत औजार खुकरी भेंट की गई. जीटीसी में इन गोरख सैनिकों को मानसिक रूप से इस तरह तैयार किया है कि युद्ध के दौरान कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना कर सके.
1915 को हुआ था गठन
ये सैनिक देश की सुरक्षा में दुर्गम और सक्रिय क्षेत्रों में तैनात होंगे. कार्यक्रम में प्रशिक्षण के दौरान उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले रंगरूटों को सम्मानित किया गया. नेपाल और भारत के बीच हुई संधि के अनुसार भारतीय सेना में अलग से गोरखा रेजीमेंट है, जिसमें करीब 40 हजार से अधिक नेपाली नागरिक काम कर रहे हैं. साल 1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान नेपाली युवाओं की भर्ती शुरू हुई थी. गोरखा रेजीमेंट का गठन 24 अप्रैल 1915 को हुआ था. इस रेजीमेंट का इतिहास शानदार है और यह भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की सबसे बहादुर रेजीमेंट में से एक मानी जाती है.
कैसे आया गोरखा रेजीमेंट का ख्याल
गोरखा समुदाय के लोग हिमालय की पहाड़ियों, खासकर नेपाल और उसके आसपास के इलाकों में रहते हैं. लेकिन इन्हें आमतौर पर नेपाली ही माना जाता है. ये लोग बहुत ही बहादुर माने जाते हैं. गोरखा रेजीमेंट के गठन के कहानी बहुत रोचक है. साल 1815 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी का युद्ध नेपाल राजशाही से हुआ था, तब नेपाल को हार मिली थी. लेकिन नेपाल के गोरखा सैनिक बहादुरी से लड़े थे. कहा जाता है कि अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान गोरखाओं की बहादुरी से सर डेविड ऑक्टरलोनी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गोरखाओं के लिए अलग रेजीमेंट बनाने का फैसला किया.
अफगान युद्ध में भी दिखाया दमख
अंग्रेजों से युद्ध के बाद 24 अप्रैल 1815 को रेजिमेंट की नींव पड़ी. बाद में जब 1816 में अंग्रेजों और नेपाल राजशाही के बीच सुगौली संधि हुई तो तय हुआ कि ईस्ट इंडिया कंपनी में एक गोरखा रेजीमेंट बनाई जाएगी, जिसमें गोरखा सैनिक होंगे. तब से लेकर अब तक गोरखा भारतीय फौजों का अनिवार्य हिस्सा बने हुए हैं. उनकी बहादुरी के किस्से लगातार कहे और सुने जाते हैं. गोरखा रेजीमेंट ने शुरू से ही अपनी बहादुरी का परचम लहराया और अंग्रेजों के अहम युद्ध में उन्हें जीत भी दिलाई. इसमें गोरखा सिक्ख युद्ध, एंग्लो-सिक्ख युद्ध और अफगान युद्धों के साथ 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दमन में भी शामिल हुए थे.
कहां-कहां पर है रेजीमेंट
इस रेजीमेंट का कुछ हिस्सा बाद में ब्रिटेन की सेना में भी शामिल हुआ. अब भी ब्रिटिश सेना में गोरखा रेजीमेंट एक अहम अंग है. भारत में कई शहरों में गोरखा रेजीमेंट के सेंटर हैं. इसमें वाराणसी, लखनऊ, हिमाचल प्रदेश में सुबातु, शिलांग के ट्रेनिंग सेंटर मशहूर हैं. गोरखा रेजीमेंट को आमतौर पर पर्वतीय इलाकों में लड़ाई का विशेषज्ञ माना जाता है. गोरखपुर में गोरखा रेजिमेंट की भर्ती का बड़ा केंद्र है. लेकिन भारत, नेपाल और ब्रिटेन के अलावा ब्रूनेई और सिंगापुर में भी गोरखा रेजीमेंट किसी न किसी रूप में हैं.
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