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जापान में लैंगिक समानता के लिए लाई गई एक बहुचर्चित नीति फेल हो गई है।
जापान में लैंगिक समानता के लिए लाई गई एक बहुचर्चित नीति फेल हो गई है। इस नीति के तहत विवाहित जोड़ों को अलग-अलग सरनेम (उपनाम) रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना था। लेकिन इस बारे में वैधानिक प्रावधान करने के लिए लाया गया बिल संसद में पास नहीं हो सका। इस बारे में शुक्रवार को जापानी संसद में गरमागर्म बहस हुई। लेकिन सांसदों के बीच सहमति नहीं बन सकी।
इस नीति में यह लक्ष्य भी तय किया गया था कि 2020 के आखिर तक तमाम प्रबंधकीय पदों में से 30 फीसदी स्थान महिलाओं के पास हो। जापान उन विकसित देशों में है, जो लैंगिक समानता के मामले में आज भी पिछड़ा हुआ है। सितंबर में प्रधानमंत्री बनने के बाद योशिहिडे सुगा ने लैंगिक समानता को अपना लक्ष्य घोषित किया था। पिछले महीने उन्होंने एलान किया था कि विवाहित जोड़ों को अलग- अलग सरनेम रखने का कानूनी विकल्प देने के लिए वे ठोस कदम उठाएंगे।
शुक्रवार को प्रधानमंत्री सुगा न लैंगिक समानता के बारे में हुई एक बैठक संबोधित किया। उसमें उन्होंने सरनेम संबंधी विकल्प के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की। उन्होंने सिर्फ यह कहा कि हम ऐसा समाज बनाने का लक्ष्य रखते हैं, जहां हम नेतृत्वकारी पदों पर लैंगिक भेदभाव ना रहे। साथ ही उन्होंने महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को पूरी तरह खत्म करने का अपना संकल्प दोहराया।
जापान की नागरिक संहिता के मुताबिक विवाहित जोड़ों के लिए समान सरनेम रखना अनिवार्य है। सरकार ने लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करने के लिए जो नीति पेश की थी, उसमें अलग- अलग सरनेम की इजाजत देने की बात शामिल थी। प्रस्तावित नीति में कहा गया था कि मौजूदा व्यवस्था से महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी में मुश्किलें पेश आती हैँ। लेकिन कंजरवेटिव सांसदों ने नए प्रस्ताव का जोरदार विरोध किया।
जापान के सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में ये फैसला दिया था कि सरनेम के बारे में मौजूदा सिविल कोड संवैधानिक है। कोर्ट ने कहा था कि जापान का सिविल कोड पुरुषों और महिलाओं को समान मानता है। लेकिन एक परिवार के लोग एक ही सरनेम का इस्तेमाल करें, यह जापानी समाज की स्थापित परंपरा का हिस्सा है। सरकारी नीति में भी इस बात पर पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत बताई गई थी कि पति और पत्नी के अलग- अलग सरनेम से परिवार की एकता और बच्चों के ऊपर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। इसलिए इसमें सिर्फ उन दंपत्तियों को विकल्प देने की बात कही गई थी, जो अलग- अलग सरनेम रखना चाहें।
इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री सुगा की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी में भी मतभेद देखा गया। पार्टी अपने कंजरवेटिव और प्रगतिशील सदस्यों के बीच बंटी नजर आई। एलडीपी की नेता और लैंगिक समानता विभाग की मंत्री सीको हाशिमोतो अलग-अलग सरनेम का विकल्प देने का जोरदार समर्थन कर रही हैं। लेकिन पार्टी के कई नेता इसके बिल्कुल खिलाफ हैं।
गौरतलब है कि महिलाओं से भेदभाव खत्म करने के लिए बनी संयुक्त राष्ट्र की समिति ने दुनिया भर की सरकारों से विवाह के बाद महिलाओं को अपना पैतृक सरनेम रखने का विकल्प देने की मांग की हुई है। लेकिन जापान में हाल के सर्वेक्षणों से जाहिर हुआ कि वहां के ज्यादातर लोग एक सरनेम की परंपरा कायम रखने के पक्ष में हैं।
जापान में प्रबंधकीय पदों पर आज भी महिलाओं की मौजूदगी सिर्फ 14.8 प्रतिशत है। अब सरकार की नई नीति में 2025 तक इसे 30 फीसदी तक ले जाने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही यह लक्ष्य भी रखाय गया है कि 2025 तक देश की संसद और स्थानीय निकायों मं महिलाओं की नुमाइंगी 35 प्रतिशत हो।
टोक्यो स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड कंपनियों में कार्यकारी अधिकारियों के पदों पर 2022 तक 20 फीसदी महिलाओं को पहुंचाने का लक्ष्य भी सरकार ने घोषित किया है। नई नीति में सरकार ने महिलाओं को बिना प्रेसक्रिप्शन के आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों को खरीदने की सुविधा देने की अपनी मंशा भी जताई है।
साल 2019 में वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की तरफ से जारी लैंगिक भेदभाव रैंकिंग में विकसित देशों के बीच जापान सबसे निचले पायदान पर आया था। 153 देशों की इस सूची में उसका स्थान 121वां था। लेकिन सामाजिक पिछड़ेपन की इस सूरत से जापान के राजनेता ज्यादा परेशान नहीं हैं। उन्होंने फिलहाल अपनी रूढ़िवादी परंपरा को जारी रखने का फैसला किया है।
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