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विवेक वाले भारतीय पत्रकार इससे प्रेरणा ले सकते हैं। ऐसा संपादक, जैसा कि गांधी ने खुद कहा है, 'जिसने जहां गलत देखा, उसे निडर होकर उजागर किया'।
वर्ष 1995 में जब बॉम्बे का नाम बदलकर मुंबई करने का फैसला किया गया, तो शहर के भवनों, सड़कों, पार्कों और रेलवे स्टेशनों के नाम बदलने का सिलसिला भी शुरू हो गया। हालांकि नियति ने कुछ दिवंगत विदेशियों को इतिहास के कूड़ेदान में सिमट जाने से रोक दिया। इनमें एनी बेसेंट शामिल थीं, सेंट्रल मुंबई में अब भी एक मुख्य रास्ता जिनके नाम पर कायम है; उनके अलावा बीजी हॉर्निमैन भी थे, जिनका नाम शहर के दक्षिणी हिस्से में पुरानी भव्य इमारतों से घिरे और आकर्षक वृक्षों से लदे पार्क के साथ दर्ज है।
मदन मोहन मालवीय के साथ बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की संस्थापक के रूप में, बाल गंगाधर तिलक के साथ इंडियन होम रूल आंदोलन की संस्थापक के रूप में और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष के रूप में एनी बेसेंट आज भी स्कूली पाठ्यपुस्तकों और सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी का हिस्सा हैं। मुंबई के हॉर्निमैन सर्किल के हॉर्निमैन कम प्रसिद्ध हैं, बावजूद इसके कि उनकी विरासत हमारे समय में संभवतः अधिक प्रासंगिक है।
वर्ष 1913 में उदार भारतीयों के एक समूह ने एक अखबार बॉम्बे क्रॉनिकल की स्थापना की, जिसे उन लोगों ने व्यवस्था समर्थक टाइम्स ऑफ इंडिया के एक राष्ट्रवादी विकल्प के रूप में प्रचारित किया। तब कलकत्ता के द स्टे्टसमैन में असिस्टेंट एडिटर के रूप में काम कर रहे बीजी हॉर्निमैन क्रॉनिकल के पहले संपादक के रूप में बॉम्बे आ गए।
वह नस्लीय सीमा को आसानी से लांघने वाली अपनी प्रतिष्ठा के साथ वहां आए थे। बंगाल के विभाजन को उलटने के लिए लोकप्रिय आंदोलन हो रहा था, तब हॉर्निमैन भी इस आंदोलन से जुड़ गए। शोकाकुल बंगालियों के प्रति सद्भावना जताते हुए वह किसी भारतीय देशभक्त की तरह सफेद धोती और कुर्ता पहने तथा चादर ओढ़े कलकत्ता की सड़कों पर पैदल मार्च में भी शामिल हुए।
बॉम्बे क्रॉनिकल की जिम्मेदारी संभालने के दो साल बाद हॉर्निमैन ने प्रेस एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्थापना की, जो कि कामकाजी पत्रकारों का एक संगठन था। भारत में कार्यरत कामकाजी पत्रकारों की पहली ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष के रूप में हॉर्निमैन ने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए जमकर लड़ाई लड़ी, वायसराय और गवर्नर को याचिकाएं भेजीं, जिनमें सरकार द्वारा प्रेस एक्ट के दुरुपयोग और डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट के उल्लंघन के खिलाफ विरोध जताया गया था।
ब्रिटिश राज अपने राजनीतिक विरोधियों को लॉकअप में डालने के लिए प्रथम विश्व युद्ध को कवच की तरह इस्तेमाल कर रहा था, जिससे हॉर्निमैन यह लिखने को विवश हुए, 'सरकार की व्यवस्था जब ऐसी स्थिति में पहुंच जाए, जहां वह बिना सुनवाई के नजरबंदी करने लगे और बोलने तथा लिखने का दमन करने लगे, तो समझो वह दिवालिया हो चुकी है और उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।'
क्रॉनिकल अंग्रेजी में प्रकाशित होता था और शहर के निचले वर्गों की तरफदारी करता था, जो कि खुद उस भाषा में लिख-पढ़ नहीं सकते थे। जैसा कि इतिहासकार संदीप हजारीसिंह लिखते हैं, हॉर्निमैन के अखबार ने शहर के आधिकारिक समाजशास्त्र को बदल दिया और उसमें कामगारों और शहरी गरीबों को जोड़ दिया। इस अखबार ने कर्मचारियों के विभिन्न समूहों की तकलीफों पर निरंतर जोर दिया, जिनमें मिल मजदूर, रेलवे कर्मचारियों के साथ ही कम वेतन में काम करने वाले सरकारी, म्युनिसपल के कर्मचारी और निजी अधिकारी शामिल थे, जो कि युद्ध के कारण मूल्यवृद्धि और जरूरी चीजों की किल्लत से जूझ रहे थे।
अपने संपादकीयों में हॉर्निमैन ने ब्रिटिश दुकानदारों और व्यापारियों पर तीखे हमले किए, जिनकी भारतीयों के कल्याण में कोई रुचि नहीं थी, बल्कि वे इस देश में मुनाफा कमाने के लिए आए थे और जितनी जल्दी हो सके पर्याप्त धन कमाकर क्लैफम (लंदन) और डंडी (स्कॉटलैंड) में आराम से रहने के लिए लौट रहे थे। उन्होंने 1918 में खेड़ा में किसानों के संघर्ष का समर्थन भी किया और गिरमिटिया मजदूरों की घिनौनी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई।
1919 के अप्रैल के पहले हफ्ते में हॉर्निमैन रोलेट एक्ट के विरुद्ध महात्मा गांधी के नेतृत्व में बॉम्बे में हुए प्रदर्शन में शामिल हुए थे। उसी महीने बाद में उनके अखबार ने जलियांवाला बाग के नरसंहार और पंजाब के दमन से संबंधित रोंगटे खड़े कर देने वाली रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसने बॉम्बे सरकार को नाराज कर दिया और उसने हॉर्निमेन को एक जहाज में बिठाकर इंग्लैंड निर्वासित कर दिया। इस पर गांधी ने बयान जारी कर कहा, हॉर्निमैन एक बहादुर और उदार अंग्रेज हैं। उन्होंने हमें स्वतंत्रता का मंत्र दिया है, उन्होंने जहां कहीं भी गलत हुआ उसे निर्भीकता के साथ उजागर किया।
हॉर्निमैन के बॉम्बे लौटने के सारे प्रयास नाकाम हो गए, तब वह एक जहाज में सवार हुए और जनवरी, 1926 में भारत के दक्षिणी तट में पहुंच गए। यहां पहुंचने पर उन्हें रहने की इजाजत मिली और फिर उन्होंने भारतीयों के स्वामित्व वाले अनेक अखबारों का संपादन किया जिनमें बॉम्बे क्रॉनिकल, थोड़े समय तक चला अखबार इंडियन नेशनल हेराल्ड और अंत में बॉम्बे सेंटिनल जो कि क्रॉनिकल द्वारा प्रकाशित शाम का अखबार था।
सितंबर, 1932 में बॉम्बे में विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए हॉर्निमैन ने कहा, एक आदर्श अखबार वह होगा, जो कि विज्ञापनों या किसी अन्य रूप में हर तरह के व्यावसायिक हितों से पूरी तरह अलग हो। पश्चिम के मीडिया में व्यावसायिक प्रविशिष्टियां तेजी से महत्वपूर्ण होती जा रही हैं, नतीजतन 'दैनिक अखबार विज्ञापनदाताओं पर निर्भर हो गए हैं।' उन्हें उम्मीद थी कि भारत में कभी ऐसी स्थिति नहीं होगी।
हॉर्निमैन ने विद्यार्थियों से कहा, मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति को पत्रकारिता को कॅरिअर बनाने के लिए नहीं कहूंगा जो आरामदायक जीवन जीने को लेकर उत्सुक है। दूसरी ओर वह ऐसे व्यक्ति को जिसके जीवन के आदर्श हैं, 'खासतौर से भारत के ऐसे युवा जो देशहित में सेवा करना चाहते हैं', पत्रकारिता में आने की वकालत करते हैं, 'क्योंकि सार्वजनिक प्रेस के माध्यम से ही देश के हितों की रक्षा की गई थी और राष्ट्रीय उद्देश्य उस लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था, जो भारत चाहता था।'
जिस देश को उन्होंने अपना बनाया था, उसे ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिए हॉर्निमैन लंबे समय तक जीवित रहे। जब अक्तूबर, 1948 में बॉम्बे में उनकी मृत्यु हुई, तो कलकत्ता, मद्रास, नई दिल्ली और लखनऊ के समाचार पत्रों में उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। बॉम्बे सेंटिनल ने हॉर्निमैन को याद करते हुए लिखा, 'वंचितों के हितों के लिए लड़ने वाले महान शख्स मुश्किल से मिलते हैं। जायज तकलीफ के साथ कोई भी चाहे वह कितना ही महत्वहीन क्यों न हो, वह धैर्यपूर्वक उसकी बात सुनते थे।
न सिर्फ यह, यदि वह सहमत होते कि तकलीफ वाजिब है, तो वह मदद के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे, यह जानते हुए भी कि उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जा सकता है या और तरह का उत्पीड़न हो सकता है। यहीं एक संपादक के रूप में हॉर्निमैन की अनूठी महानता निहित थी। परिणाम उनके लिए मायने नहीं रखते थे, क्योंकि वह जनहित में न्यायोचित कारण के समर्थन में जोखिम उठाने के लिए तैयार थे।'
ये शब्द आज भी उत्तेजित कर देते हैं और इन्हें पढ़ना सम्मान से भर देता है। जब समाचार पत्र और टेलीविजन चैनल नियमित रूप से सरकार का पक्ष लेते हैं, जब सरकार बिना मुकदमे के नजरबंदी का सहारा लेती है, झूठ फैलाती है, और सांप्रदायिक कट्टरता को बढ़ावा देती है, तो रीढ़ और विवेक वाले भारतीय पत्रकार इससे प्रेरणा ले सकते हैं। ऐसा संपादक, जैसा कि गांधी ने खुद कहा है, 'जिसने जहां गलत देखा, उसे निडर होकर उजागर किया'।
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