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'रूल ऑफ लॉ' के मुद्दे पर खड़े हुए ईयू, न्यायपालिका को बनाया ढाल

Kunti Dhruw
18 Dec 2020 2:01 PM GMT
रूल ऑफ लॉ के मुद्दे पर खड़े हुए ईयू, न्यायपालिका को बनाया ढाल
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यूरोपियन यूनियन (ईयू) के तहत कानून के शासन (रूल ऑफ लॉ) के मुद्दे पर खड़े हुए

जनता से रिश्ता वेबडेस्क : यूरोपियन यूनियन (ईयू) के तहत कानून के शासन (रूल ऑफ लॉ) के मुद्दे पर खड़े हुए विवाद पर फैसला अब यूरोप की सर्वोच्च अदालत में होगा। इस सवाल को लेकर हंगरी और पोलैंड ने ईयू के अगले साल के बजट को पास होने से रोक रखा था। मुद्दा यह था कि क्या ईयू के पैकेज से धन पाने के लिए कानून के शासन के सिद्धांत पर अमल की शर्त लगाई जानी चाहिए।

लंबी खींचतान के बाद इस सवाल पर बीच का रास्ता निकला। इसके तहत हंगरी और पोलैंड ने बजट पर लगाए अपने वीटो को हटा लिया। इसके पहले ईयू के बाकी सदस्य इस पर राजी हुए कि इस मामले को यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस में ले जाया जाएगा और उसका फैसला सभी पक्षों को मान्य होगा।
यूरोपीय कानून के विशेषज्ञ बरखार्ड हेस ने न्यूज वेबसाइट पोलिटिको.ईयू से कहा- कोर्ट ऑफ जस्टिस ने हमेशा बड़े राजनीतिक और आर्थिक महत्त्व के मुद्दों पर फैसले दिए हैं। लेकिन अतीत में मसले नागरिकों के अधिकार या आंतरिक बाजार की अखंडता से जुड़े थे। अब मुद्दा अलग है। लग्जमबर्ग स्थित इस अदालत में 27 जज हैं, जो सभी इस मसले की सुनवाई करेंगे।
वेबसाइट पोलिटिको.ईयू से बातचीत में नीदरलैंड्स के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज कीस स्टेर्क ने कहा कि अतीत में फैसले देते वक्त आम तौर पर कोर्ट ने तनाव घटाने वाला नजरिया अपनाया है। उसका रुख यह रहा है कि ईयू के एकीकरण से जुड़ी समस्याओं का कानूनी हल निकाला जाए, ताकि वे बड़े राजनीतिक संघर्ष का रूप ना ले सकें। उन्होंने कहा कि लेकिन ये नजरिया अब अपनी हद पर पहुंचने वाला है। इस बार स्थिति काफी भड़क चुकी है।
विश्लेषकों का कहना है कि इस मुद्दे पर ईयू में बुनियादी मतभेद खड़े हो चुके हैं। वर्षों से ईयू के बाकी सदस्य देश हंगरी और पोलैंड पर लोकतांत्रिक मानकों पर पीछे जाने का आरोप लगाते रहे हैँ। दोनों देशों की सरकारों पर आऱोप है कि उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अनदेखी की है और मीडिया की आजादी पर हमले किए हैँ।
इन मुद्दों पर उनसे ईयू की बातचीत अब तक नाकाम रही है। इसीलिए ईयू संविधान के अनुच्छेद सात के तहत दोनों देशों के खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई शुरू की गई। लेकिन ईयू परिषद में जाकर बात ठहर गई, जहां बहुत से देश हंगरी और पोलैंड पर प्रतिबंध लगाने के सवाल पर हिचक गए।
हंगरी और पोलैंड के खिलाफ कानून के शासन के मुद्दे पर ईयू अब लक्जमबर्ग स्थित कोर्ट जा रहा है। लेकिन कानून के राज के सिद्धांत का उल्लंघन करने के आरोप में इन दोनों देशों पर पहले भी वहां कई मुकदमे चल रहे हैं। कई देशों की सरकारें पोलैंड और हंगरी में जारी हुए वारंट पर अपने देश में गिरफ्तारी करने और आरोपी को उन देशों में भेजने पर अब अनिच्छुक है। आयरलैंड, नीदरलैंड्स और जर्मनी की अदालतों ने इस मामले लग्जमबर्ग स्थित न्यायालय से फैसला देने को कहा हुआ है। इस मामले में अगले महीने के आरंभ में फैसला आने की उम्मीद है।
यूरोपीय आयोग ने पोलैंड में न्यायपालिका का अधिकार सीमित करने के लिए बनाए गए नए कानून को लग्जमबर्ग अदालत में चुनौती दी हुई है। आयोग का आरोप है कि नए नियमों से पोलैंड में न्यायपालिका के ऊपर राजनीतिक नियंत्रण कायम कर दिया गया है। बेल्जियम, डेनमार्क, नीदरलैंड्स, फिनलैंड और स्वीडन ने आयोग की याचिका का समर्थन किया है। जानकारों का कहना है कि इस मामले का संबंध न्यायपालिका की स्वतंत्रता से है, जिस पर आने वाले फैसले के बड़े राजनीतिक परिणाम होंगे।
इस मामले पर ऊंचे दांव लगे हुए हैं। यूरोपियन आयोग के अध्यक्ष कोयन लेनेर्ट्स ने बीते जनवरी में पोलैंड को चेतावनी दी थी कि अगर वहां न्यायिक स्वतंत्रता नहीं होगी, तो वह ईयू का सदस्य नहीं रह सकता। अब एक उतना ही बड़ा एक और मामला यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस के सामने पहुंच रहा है। कानून के राज की सुरक्षा की जिम्मेदारी न्यायपालिका की होती है।
पोलैंड और हंगरी के हालिया रिकॉर्ड इस मामले में बेहद खराब हैं। लेकिन आलोचकों का कहना है कि जो फैसला राजनीतिक रूप से लिया जाना चाहिए था, उसे ईयू के नेतृत्व ने कोर्ट के माथे टाल दिया है। यह कानून के राज जैसे बुनियादी सिद्धांत पर उसके लचर रवैये की मिसाल है। यह आरोप भी लगाया गया है कि बजट पास कराने की फौरी जरूरत के कारण ईयू के नेताओं ने कानून के राज के सिद्धांत पर टालमटोल का नजरिया अपना लिया।


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