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अर्थशास्त्री ने की दावा...कोरोना ने उड़ाया यूरोप में सामाजिक सुरक्षा और अर्थव्यवस्था की धज्जियां

Kunti Dhruw
7 Dec 2020 1:52 PM GMT
अर्थशास्त्री ने की दावा...कोरोना ने उड़ाया यूरोप में सामाजिक सुरक्षा और अर्थव्यवस्था की धज्जियां
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यूरोप के सामाजिक सुरक्षा के तंत्र को बोलचाल की भाषा में गोल्ड स्टैंडर्ड कहा जाता था।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क : यूरोप के सामाजिक सुरक्षा के तंत्र को बोलचाल की भाषा में गोल्ड स्टैंडर्ड कहा जाता था। यानी ऐसी व्यवस्था जिसमें कोई दोष नहीं है। लेकिन कोरोना महामारी ने उसकी खामियों को खोल कर सामने ला दिया है। सरकारों की तरफ से दिए गए तमाम सहायता पैकेजों के बावजूद आज हाल यह है कि विभिन्न देशों में लोगों का जीवनस्तर तेजी से गिर रहा है।

सबसे बुरी मार उन लोगों पर पड़ी है, जिनकी आमदनी पहले से ही कम थी या जिनके पास पक्की नौकरी नहीं थी। नौजवान, महिलाएं और अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों पर भी इसकी जोरदार चोट पड़ी है।
टीवी चैनल सीएनएन बिजनेस से बातचीत करते हुए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री माइकल स्पेन्स ने कहा कि यूरोप के कुछ देशों में सामाजिक सुरक्षा के इंतजाम अमेरिका से बेहतर रहे हैं। लेकिन महामारी का झटका इतना जोरदार है कि वे व्यवस्थाएं भी हिल गई हैं।
स्पेन्स ने कहा कि वे व्यवस्थाएं शायद यह सोच कर नहीं बनाई गई थीं कि अभी अचानक अर्थव्यवस्था में 25 फीसदी तक की सिकुड़न आ जाएगी। स्पेन्स ने ध्यान दिलाया कि 2008 की मंदी के समय यूरोप की सरकारों ने अपने कारोबारियों की प्रभावी मदद की थी, जिससे ज्यादा लोगों की नौकरी नहीं गई थी।
बीते अक्टूबर में यूरोपियन यूनियन (ईयू) में पिछले साल की तुलना में 21 लाख 80 हजार अधिक बेरोजगार लोग थे। बेरोजगारी की दर 7.6 फीसदी तक पहुंच चुकी थी। ब्रिटेन में ये दर सितंबर में 4.8 फीसदी थी, जो साल भर पहले से 0.9 फीसदी ज्यादा थी। मार्च से अक्टूबर के बीच यहां सात लाख 82 हजार लोगों की नौकरी गई थी।
ब्रिटिश थिंक टैंक रिजोल्यूशन फाउंडेशन के मुख्य अर्थशास्त्री माइक ब्रुवर ने सीएनएन बिजनेस को बताया कि लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था अचानक ठहर गई। सोशल सिक्योरिटी के सिस्टम इससे पैदा हुए हालत का सामाना करने में नाकाम रहे। ब्रुवर ने कहा कि ब्रिटेन की कल्याणकारी व्यवस्था बहुत उदार नहीं थी। यह इस पर निर्भर करती थी कि श्रमिकों की नौकरी एक जगह जाएगी, तो दूसरी जगह मिल जाएगी।
लेकिन महामारी के कारण श्रम बाजार ही बंद हो गया। इससे वह आधार ही ढह गया, जिस पर ब्रिटिश कल्याणकारी व्यवस्था टिकी थी। ब्रुवर ने कहा कि अस्थायी कर्मचारियों और सेल्फ एम्प्लॉयड लोगों के लिए सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं थे। कुछ देशों में इनके लिए सरकारों ने सहायता के आपात उपाय किए, लेकिन वे काफी नहीं साबित हुए हैँ।
बार-बार लगे लॉकडाउन का सबसे बुरा असर होटल, रिटेल, पर्यटन आदि उद्योगों पर पड़ा है। इनमें ज्यादातर लोगों की अस्थायी नौकरियां थीं। कम आमदनी वाले आव्रजक कामगार भी ज्यादातर ऐसे ही उद्योगों में काम करते थे। आज उन सबकी हालत बहुत बुरी है। ऐसे लोगों की बचत अब खत्म होने को है। दूसरी तरफ उच्च आय वाले घरों की संपत्ति बढ़ी है। इसका कारण यह कि वर्क फ्रॉम होम के कारण उनकी आमदनी नहीं घटी, जबकि घर पर ही रहने के कारण उनका खर्च घटा है।
पुर्तगाल, ग्रीस, स्पेन, साइप्रस आदि जैसे देश पर्यटन पर काफी निर्भर रहे हैं। उन्हें ज्यादा मुसीबत झेलनी पड़ रही है। महिलाओं, नौजवानों और आव्रजकों कर्मियों को इस सेक्टर में ही ज्यादातर आरंभिक नौकरी मिलती है। इसलिए इन तबकों पर ढही अर्थव्यवस्था की ज्यादा मार पड़ी है। यह बात संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट में भी कही गई है।
यूरोस्टैट नाम की संस्था के मुताबिक स्पेन में बीते अक्टूबर में युवा बेरोजगारी 41.6 फीसदी थी, जो साल भर पहले से 9 फीसदी ज्यादा थी। ग्रीस में 39.3 और इटली में 31.4 फीसदी नौजवानों के लिए कोई रोजगार नहीं था। अर्थशास्त्री ब्रुवर के मुताबिक लंबे समय तक चलने वाली बेरोजगारी का असर भविष्य की रोजगार की संभावनाओं पर भी पड़ता है। आज के नौजवानों को जो बेरोजगारी का जख्म लगा है, उसका असर शायद उनके बूढ़ा होने तक उनके मन पर रहेगा।
महामारी ने गैर-बराबरी की समस्या को भी गंभीर बना दिया है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की तरफ से तैयार किए गए एक मॉडल के मुताबिक दो महीनों के लॉकडाउन और छह महीनों तक सीमित प्रतिबंधों के कारण गरीबों के वेतन की ह्रास दर 16.2 फीसदी रही है। इससे गैर-बराबरी बढ़ी है।
साइप्रस में यह दर 22.4 फीसदी रही और वहां आर्थिक गैर-बराबरी में सबसे ज्यादा इजाफा दर्ज किया गया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की पूर्व वरिष्ठ अर्थशास्त्री लेसली मेनिसन के मुताबिक साइप्रस में आय, धन, रोजगार अवसर आदि के मामलों में गैर-बराबरी अत्यधिक सीमा तक बढ़ गई है। साइप्रस में हाल ज्यादा बुरा है, लेकिन बाकी यूरोपीय देशों का हाल भी इसी तरह बदतर हुआ है।
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