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कॉप27 को एक दिन के लिए बढ़ाया गया, विकासशील देशों की बड़ी मांग अब भी अनसुनी

Subhi
19 Nov 2022 1:01 AM GMT
कॉप27 को एक दिन के लिए बढ़ाया गया, विकासशील देशों की बड़ी मांग अब भी अनसुनी
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जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों को लेकर जारी गतिरोध के बीच मिस्र में आयोजित कॉप27 शिखर सम्मेलन की अवधि एक दिन के लिए बढ़ा दी गई है। ऐसा कार्बन न्यूनीकरण कार्यक्रम, नुकसान और क्षति और जलवायु से जुड़े वित्तपोषण जैसे प्रमुख मुद्दों पर जारी गतिरोध को खत्म करने के प्रयास के तहत किया गया है।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता की अवधि एक दिन और बढ़ा दी गई है। कॉप27 को शुक्रवार को समाप्त होना था, लेकिन कॉप27 को शुक्रवार को समाप्त होना था, लेकिन यहां जारी वार्ता को उनके तार्किक अंत की ओर ले जाने के लिए इसे एक दिन बढ़ा दिया गया है।

एक ब्लॉग पोस्ट में वार्ता की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि कार्बन न्यूनीकरण कार्यक्रम, अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य, हानि और क्षति, और जलवायु से जुड़े वित्तपोषण के मामले सहित कई मुद्दों पर बातचीत की जा रही है, क्योंकि इन पर एक राय नहीं बनी है। उन्होंने कहा कि सीओपी एक पार्टी संचालित प्रक्रिया है और इसलिए प्रमुख मुद्दों पर सहमति महत्वपूर्ण है।

कार्यक्रम अवधि में एक दिन का यह विस्तार इसे ही हासिल करने की दिशा में एक प्रयास है। प्रमुख मुद्दों पर जारी गतिरोध को तोड़ने के प्रयास में यूरोपीय संघ के मुख्य वार्ताकार फ्रैंस टिम्मरमैन्स ने एक योजना प्रस्तावित की, जिसमें उत्सर्जन में कटौती के साथ हानि और क्षति को जोड़ा गया।

वार्ता की सफलता नुकसान और क्षति यानि जलवायु परिवर्तन-ईंधन वाली आपदाओं के कारण अपूरणीय विनाश के लिए एक कोष बनाए जाने पर टिकी है। इस फंड के बदले में यूरोपीय संघ का प्रस्ताव देशों को 2025 से पहले तक उत्सर्जन के चरम पर पहुंचने और न सिर्फ कोयला बल्कि सभी जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से घटाने के लिए कहता है। फंड के ब्योरे पर अगले साल काम किया जाएगा।

इस प्रस्ताव का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि चीन जैसे बड़े विकासशील देशों को इस कोष में योगदान देने की आवश्यकता होगी, क्योंकि इस कोष का आधार व्यापक होगा। इससे पहले दिन में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ने समझौते का एक औपचारिक मसौदा प्रकाशित किया था, लेकिन इसमें सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से घटाने के भारत के आह्वान का कोई उल्लेख नहीं किया गया था।

विशेषज्ञों का कहना है कि यह आश्चर्य की बात है कि सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से कम करने का आह्वान, सीओपी का दूसरा सबसे चर्चित मुद्दा रहा, अमेरिका और यूरोपीय संघ सहित अधिकांश विकासशील देशों और कुछ विकसित देशों के इसका करने समर्थन के बावजूद इसे मसौदे में जगह नहीं मिली।

कुछ ने यह भी कहा कि यह भारत के एक बयान की तरह था- जो कोयले के उपयोग पर आलोचना से बचने का एक सामरिक कदम की तरह था, न कि उसका रुख था। मसौदे ने अनुकूलन निधि पुनःपूर्ति और जलवायु वित्तपोषण पर एक नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य जैसे प्रमुख मुद्दों पर बहुत कम प्रगति दिखाई।

यह प्रस्ताव अमीर देशों के लिए '2030 तक शून्य से भी कम कार्बन उत्सर्जन' प्राप्त करने की आवश्यकता और वैश्विक कार्बन बजट की उनकी अनुपातहीन खपत के संदर्भों को भी छोड़ देता है, यह कुछ ऐसा है जिस पर भारत जैसे विकासशील देशों और अन्य गरीब देशों ने मिस्र में शिखर सम्मेलन के दौरान जोर दिया है।

कॉप27 की डील लगभग तय

संयुक्त राष्ट्र की जलवायु एजेंसी ने शुक्रवार को शिखर सम्मेलन के एक मसौदा का प्रारूप तैयार किया। इसे शर्म अल-शेख में कॉप27 शिखर सम्मेलन में शामिल हुए देशों के समक्ष रख कर इस पर सहमति बनाने की उम्मीद जताई जा रही है। इसमें विकासशील देशों की तरफ से उठाए जा रहे उस जरूरी मुद्दे को नहीं रखा गया है, जिसकी मांग जोरों से उठ रही है।

यह मुद्दा है नुकसान और क्षति से जुड़ा हुआ। इसके तहत जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले आंधी-तूफानों के लिए प्रभावित देशों को हर्जाना देने का प्रावधान बनाने के लिए कहा गया है। इसके बजाय प्रारूप में रस्मी तौर पर सिर्फ यह कहा गया है कि इस मुद्दे पर एकमत होने की कोशिश जारी है।

इस प्रारूप के जरिए विकासशील देश पहली बार औपचारिक रूप से इस मुद्दे को शिखर सम्मेलन के एजेंडे में शामिल कराने में तो सफल रहे लेकिन इस पर आगे क्या होगा इसे लेकर बातचीत में प्रगति बहुत कम हुई है। बता दें कि नुकसान और क्षति के मसले पर विकसित और विकासशील देशों के बीच लंबे वक्त से खींचतान चल रही है।

गुरुवार की देर शाम, यूरोपीय संघ ने गतिरोध को हल करने के उद्देश्य से एक प्रस्ताव रखा। यह अंतिम वार्ताओं की तीव्रता को दर्शाता है। इसमें ग्लासगो में पिछले साल हुए कॉप26 की डील और वैश्विक तापमान में वृद्धि को सीमित करने पर पेरिस 2015 समझौते के प्रमुख बिंदुओं की पुष्टि की गई है।

इसमें कहा गया है कि प्रस्ताव वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और पूर्व-औद्योगिक स्तरों से ऊपर 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़त तक सीमित करने की कोशिश वाले पेरिस समझौते की पुष्टि करता है।

बारबाडोस ने आपदा में फंडिंग पर खरी-खरी सुनाई

कॉप27 में विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन की वजह से उन पर पड़ रही दोहरी मार की तरफ ध्यान दिलाया। विकासशील देशों के नेताओं ने बार-बार कहा है कि उनसे यह उम्मीद करना उचित नहीं है कि वे गर्म होती दुनिया में विनाशकारी मौसम की घटनाओं की वजह से होने वाले नुकसान को झेलते रहें। उनसे उम्मीद की जाती है कि वो पहले इस नुकसान की भरपाई करें और साथ ही स्वच्छ उद्योग में निवेश करें।

जबकि उन्हें अमीर देशों की तुलना में अधिक ब्याज दरों पर कर्ज भी लेना पड़ता है। इसके बीच आपदा के दौरान फंडिंग को लेकर मोर्चा बारबडोस ने संभाला। बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिया मोटली ने विकास योजना ऋण का एक क्रांतिकारी खाका पेश किया। यह जलवायु क्षति से बढ़ते कर्ज से जूझ रहे विकासशील देशों को भी आवाज देगा।

मोटली ने सख्त लहजे में कहा कि हम वे हैं जिनके खून, पसीने और आंसुओं ने औद्योगिक क्रांति को वित्तपोषित किया। इसी औद्योगिक क्रांति से पैदा हुई ग्रीन हाउस गैसों के परिणाम को भुगतने के लिए अब हमें दोहरे खतरे का सामना करना पड़ रहा है।

विकासशील देशों में ऋण बढ़ रहा है, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छ ऊर्जा के लिए धन की बर्बादी हो रही है। मोटली ने जो योजना बनाई है उसके जरिए कैरेबियाई, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के देशों के लिए वार्मिंग के खिलाफ बचाव के लिए धन प्राप्त करना और आपदा आने पर ऋण भुगतान बंद करना आसान बना देगा।

क्या है मोटली की फंडिंग का फंडा

इस योजना में खास ऋण खंडों की मांग की गई है। ये खंड किसी देश में प्राकृतिक आपदा या महामारी की चपेट में आने पर भुगतान को निलंबित करने की अनुमति देता है। इस राहत के मिलते ही सरकारों को राहत और पुनर्निर्माण पर फोकस करने का मौका मिलेगा और उनके पास लाखों डॉलर भी उपलब्ध होंगे। बारबाडोस इस तरह की योजनाओं में अग्रणी रहा है।

पिछले महीने उसने अपना पहला सॉवरेन बॉन्ड जारी किया था, जिसमें लेनदारों को पूर्व-निर्धारित प्राकृतिक आपदा आने पर भुगतान के लिए दो साल का अतिरिक्त वक्त मिलता है। इससे वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं पर भी अपनी शर्तें बदलने का दबाव पड़ा है। वर्ल्ड बैंक संयुक्त राज्य अमेरिका और जर्मनी जैसे अमीर देशों की शक्ति संस्थानों द्वारा निर्मित है।


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