अमेरिका की यह पुरानी आदत रही है कि वह न तो अपनी जमीन पर कोई युद्ध लड़ना चाहता है और न ही अकेले कोई युद्ध लड़ना चाहता है इसलिए आज यूक्रेन रूस के हमले का सामना कर रहा है और ताइवान पर चीन के हमले का खतरा मंडरा रहा है.
वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बावजूद अमेरिका, रूस के कद, असर और सामरिक क्षमता के कारण दशकों तक दुनिया पर उस तरह से राज नहीं कर पाया जैसे वह करना चाहता था लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान रूस के लगातार कमजोर होते जाने की वजह से अमेरिका के असर में लगातार वृद्धि तो हुई लेकिन अब चीन की आक्रामक रणनीति ने उसे परेशान कर रखा है. दशकों तक पाक को बढ़ावा देकर हिंदुस्तान को परेशान करने वाला, पाक को सेना हथियार और साजो-सामान की सहायता देकर हिंदुस्तान पर कई युद्ध थोपने वाला और कश्मीर परेशानी को उलझाने वाला अमेरिका अब यह चाहता है कि हिंदुस्तान चीन के विरूद्ध लड़ाई में खुलकर उसका साथ दे. इसके लिए अमेरिका अब हिंदुस्तान को अपने सेना गठबंधन नाटो में शामिल करना चाहता है, नाटो प्लस राष्ट्र के तौर पर.
दरअसल, अमेरिका के नेतृत्व वाले उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन- 31 राष्ट्रों का एक सेना गठबंधन है जिसे नाटो के नाम से जाना जाता है. नाटो का मूल मंत्र इसमें शामिल राष्ट्रों की बाहरी आक्रमणों से हर तरह से रक्षा करना है अर्थात यदि इस संगठन में शामिल किसी राष्ट्र पर कोई अन्य राष्ट्र हमला करते हैं तो नाटो के सभी राष्ट्र मिलकर उसके साथ खड़े होकर उत्तर देते हैं. यही वजह है कि रूस के हमले का सामना कर रहा यूक्रेन भी नाटो का सदस्य बनना चाहता था और आज भी बनना चाहता है. नाटो में मुख्य रूप से अमेरिका और कुछ यूरोपीय राष्ट्र शामिल हैं. वहीं, इसके साथ ही अमेरिका ने एक नाटो प्लस की प्रबंध भी कर रखी है, जिसमें अमेरिका के सहयोगी माने जाने वाले पांच और सदस्य देश- ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड और इजरायल शामिल हैं. अब अमेरिका हिंदुस्तान को इस बड़े समूह- नाटो प्लस का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित कर रहा है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी पर बनी अमेरिकी कांग्रेस पार्टी की एक सेलेक्ट कमिटी की हाल में ही जारी हुई रिपोर्ट में बोला गया है कि हिंदुस्तान को शामिल करने के लिए नाटो प्लस प्रबंध को मजबूत करना चाहिए. अमेरिका चाहता है कि हिंदुस्तान पश्चिमी राष्ट्रों की सेना शक्ति वाले गठबंधन नाटो प्लस का हिस्सा बने. हाल ही में अमेरिकी सीनेट के इण्डिया कॉकस के सह अध्यक्ष मार्क वॉर्नर और जॉन कोर्नी ने यह घोषणा की है कि वे हिंदुस्तान को नाटो प्लस का डिफेंस दर्जा देने के लिए अमेरिकी संसद में बिल पेश करने वाले हैं.
दरअसल, अमेरिका की यह पुरानी आदत रही है कि वह न तो अपनी जमीन पर कोई युद्ध लड़ना चाहता है और न ही अकेले कोई युद्ध लड़ना चाहता है इसलिए आज यूक्रेन रूस के हमले का सामना कर रहा है और ताइवान पर चीन के हमले का खतरा मंडरा रहा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन के बढ़ रहे सियासी असर और आक्रामकता का सामना करने के लिए अमेरिका चीन को उसके पड़ोस में ही उपस्थित हिंदुस्तान जैसे शक्तिशाली राष्ट्र के जरिए घेरना चाहता है.
यह बात दुनिया जानती है कि चीन के साथ हिंदुस्तान के संबंध अच्छे नहीं हैं लेकिन यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि 1962 की लड़ाई में हार का सामना करने के बाद जब-जब चीन की सेना हिंदुस्तान के सामने आई है, हिंदुस्तान ने उसे मुंहतोड़ उत्तर दिया है. आज का हिंदुस्तान अपने दम पर चीन को सबक सिखाने में सक्षम है. मंगलवार को शंघाई योगदान संगठन की बैठक में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मौजूदगी में हिंदुस्तान के पीएम मोदी ने आतंकवाद को लेकर चीन की दोहरी नीति पर दोटूक शब्दों में प्रहार करते हुए विस्तारवाद की नीति को लेकर भी उसे आईना दिखाने का काम किया.
यह बात एकदम ठीक है कि रूस के कमजोर होते जाने के कारण अंतरराष्ट्रीय प्रबंध भी तेजी से बदल रही है. हिंदुस्तान ने एक भरोसेमंद दोस्त होने के कारण 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बावजूद हमेशा से रूस के साथ अपने संबंधों को अहमियत दी है. तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव से लेकर वर्तमान पीएम मोदी तक हिंदुस्तान की हर गवर्नमेंट ने रूसी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखने के लिए अपनी तरफ से हरसंभव योगदान दिया लेकिन रूस आज अपने ही कारण समस्याओं से घिर गया है. हिंदुस्तान की तरफ से लगातार प्रयासों के बावजूद रूस की हालत खस्ता होती जा रही है और अब तो रूस एक तरह से चीन के पाले में जाता नजर आ रहा है. यही वजह है कि कई विश्लेषक हिंदुस्तान को अब यह राय देने लगे हैं कि रूस और चीन के एक साथ आने के बाद अब हिंदुस्तान के पास एकमात्र रास्ता अमेरिका के साथ अपनी दोस्ती को मजबूत बनाने का ही रह जाता है और इसलिए उसे नाटो प्लस में शामिल हो जाना चाहिए. इसके कई लाभ भी बताए जा रहे हैं. यह बोला जा रहा है कि यदि भविष्य में चीन हिंदुस्तान पर हमला करता है तो नाटो प्लस का सदस्य होने के कारण अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी राष्ट्र हिंदुस्तान की सहायता करेंगे. नाटो प्लस में शामिल हो जाने के बाद हिंदुस्तान को अधिक सेना समर्थन मिलेगा, नई-नई सेना तकनीक मिलेगी और साथ ही नाटो राष्ट्रों के पास उपस्थित खुफिया जानकारी तक भी हिंदुस्तान की पहुंच हो जाएगी.
लेकिन क्या वाकई ऐसा है ? क्या नाटो में शामिल होने से हिंदुस्तान को वाकई केवल लाभ ही होगा या पश्चिमी राष्ट्र खासतौर से अमेरिका अपने लाभ के लिए हिंदुस्तान को नाटो प्लस में शामिल करना चाहता है ?
सच्चाई तो यह है कि यदि हिंदुस्तान नाटो से जुड़ने का निर्णय करता है तो उसे उसकी भारी मूल्य भी चुकानी पड़ेगी. सबसे पहला असर तो यही होगा कि नाटो में शामिल होने के बाद हिंदुस्तान अंतरराष्ट्रीय मंच पर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बात स्वतंत्र तौर पर नहीं रख पाएगा. उसे रूस के साथ अपने संबंधों को तोड़ना होगा. रूस-यूक्रेन लड़ाई में शांति स्थापित करने की कोशिशों को छोड़कर अमेरिका की तरह यूक्रेन का समर्थन करना होगा. नाटो के साथ जुड़ने के बाद हिंदुस्तान की सामरिक स्वायत्तता पर भी खतरा बढ़ सकता है. इसके बाद हिंदुस्तान को अपनी हर सामरिक नीति को नाटो के सिद्धांत के मुताबिक ही बनाना पड़ेगा. हिंदुस्तान चाहकर भी अपनी ख़्वाहिश के अनुसार, अपने ढंग से कोई सामरिक कदम नहीं उठा पाएगा.
नाटो में शामिल होने के बाद हिंदुस्तान के सामने सबसे बड़ा खतरा विदेशी सेना अड्डे का खड़ा हो जाएगा क्योंकि अभी तक हिंदुस्तान ने साफ तौर पर अपनी यह नीति बना रखी है कि वह अपनी जमीन पर किसी भी अन्य राष्ट्र का सेना अड्डा नहीं बनाने देगा. लेकिन नाटो के साथ जुड़ने के बाद हिंदुस्तान को अपनी जमीन पर अमेरिकी सेना की मेजबानी करनी होगी और उसके लिए एक सेना अड्डा बनाने को स्वीकृति देनी होगी. नाटो प्लस के अन्य सदस्य देशों- जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और इजरायल में अमेरिकी सेना अड्डे उपस्थित हैं. नाटो के साथ जुड़ने के बाद सबसे बड़ा खतरा तो यह होगा कि अमेरिका, हर बार हिंदुस्तान को अपनी लड़ाई में शामिल होने के लिए विवश करेगा. जिसकी वजह से हिंदुस्तान विकास के रास्ते से भटककर बिना मतलब ही पूरे विश्व की लड़ाई और संघर्षों में फंसा रहेगा.
इन्ही कारणों की वजह से ही यह साफ है कि हिंदुस्तान को किसी भी तरह से नाटो का हिस्सा नहीं बनना चाहिए क्योंकि दुनिया को हिंदुस्तान जैसे स्वतंत्र आवाज वाले राष्ट्र की आवश्यकता है. अमेरिका के साथ दोस्ती के रिश्तों को लगातार मजबूत करना चाहिए, व्यापारिक योगदान और साझेदारी को बढ़ावा देना चाहिए लेकिन इसके साथ ही उसे दो टूक शब्दों में यह भी बता देना चाहिए कि हिंदुस्तान नाटो का हिस्सा नहीं बनेगा और जहां तक चीन की आक्रामकता का प्रश्न है, हिंदुस्तान अकेले ही अपने दम पर उससे निपटने में सक्षम है लेकिन यदि अमेरिका इसमें सहायता करना चाहता है या सहायता लेना चाहता है तो हिंदुस्तान मुकदमा टू मुकदमा के आधार पर निर्णय करेगा लेकिन नाटो के साथ नहीं जुड़ेगा.