सम्पादकीय

बुनियादी शर्त: डरा हुआ लेखक समाज के काम का नहीं

Neha Dani
27 Sep 2021 2:15 AM GMT
बुनियादी शर्त: डरा हुआ लेखक समाज के काम का नहीं
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लेकिन रास्ता दूसरा कोई नहीं है। साहित्य सृजन का काम पूरे समय की मांग करता है, लेकिन अब दूर-दूर तक ऐसा संभव नहीं दिखता।

दिल्ली के पंत अस्पताल में भर्ती होने को मुझे पहियेदार कुर्सी पर बिठाकर ले जाया गया, तो अस्पताल के गलियारों में तेज चाल से आते-जाते लोगों को देखकर एहसास हुआ कि-नहीं, शायद अब जीवन में स्वयं भी ऐसे ही चल-फिर सकना संभव नहीं होगा। विषाद समस्त इंद्रियों में व्याप्त अनुभव होता था, व्याकुलता चित्त को आक्रांत किए रहती थी। भविष्य की ओर किसी उजाड़ अंधकूप में झांक रहे होने की अनुभूति होती थी।

छियालिस-सैंतालिस वर्ष मुझे लिखते-छपते बीते, लेकिन आज तक शायद चार-पांच साक्षात्कार भी नहीं हैं। हिंदी साहित्य का यह दुर्भाग्य है कि यहां ऐसी वास्तविकताओं को छापने का नैतिक साहस लगभग नदारद है। सच्चाइयों से इन्कार वाला साहित्य समाज में कोई वैचारिक या संवेदनात्मक आलोड़न-विलोड़न उत्पन्न नहीं कर सकता। आज लेखकों की कोई ऐसी सामाजिक साख नहीं रह गई, जिससे कि राज्य व्यवस्था से जुड़े लोग अनुभव करें कि नहीं, लेखकों को केवल पद, पुरस्कार और विदेशी उड़ानों के लालचों तक सीमित मानना ठीक नहीं।
लेखक की तो यह बुनियादी शर्त है कि वह सच्चाई और न्याय का सम्मान ही नहीं करे, बल्कि इनसे प्रतिश्रुत हो, उसकी यह साख हो कि वह झूठ नहीं बोलेगा। राजनीति में गांधी और साहित्य में प्रेमचंद, प्रसाद और निराला की साख रही है। इस संदर्भ में मुक्तिबोध का नाम भी लेना होगा। लड़ना-झगड़ना मेरा शौक या प्रवृत्ति नहीं। मुझे चारों ओर की बाड़ेबंदियों से लिखना पड़ा, विरोध या असहमति में, और इसके जितने जोखिम उठाए और जो कुछ भुगता, केवल मैं ही जानता हूं।
आज मैं लगभग पूरी तरह टूट चुका हूं। इलाहाबाद से उजड़ ही गया। आगे भी बहुत अंधेरा है। लेकिन आज भी यही मानता हूं कि लिखते-बोलते समय लेखक का भयभीत रहना ठीक नहीं। डरा हुआ लेखक समाज के काम का नहीं रह जाता और लिखना देश, काल और समाज की वास्तविकताओं और सच्चाइयों से प्रतिश्रुत नहीं, तो फिर बावन गज की ऊंचाई भी किसी काम नहीं आती। लेखक को वर्तमान की धुरी पर से अतीत और भविष्य, दोनों को झांकना होता है।
जब से परिवार हुआ, मेरे लिए परिवार पहली प्राथमिकता रहा है, उसके बाद लिखना। लेकिन कदाचित समय आ पड़े, तो लेखक को परिवार के डर से भी उबरना जरूरी होगा। बिना भांति-भांति के डरों से उबरे लेखक के लिखे में समाज की पारदर्शी और कालजयी उजास संभव नहीं। पद, पुरस्कारों और विदेश भ्रमणों तथा सत्ताधारियों की निकटता के आनंद से वंचित हो जाने का डर भी ऐसा ही डर है। मैं भयाक्रांत हूं, स्वयं की असाध्य व्याधि और परिवार के बिखर जाने को लेकर।
राज्य व्यवस्था का जो अमानुषिक स्वरूप दिन पर दिन विकराल होता जा रहा है, जैसे लेखक संगठन वास्तव में 'लेखकों के गिरोहों' की शक्ल लेते जा रहे हैं, यह सब डरावना तो है ही, यह भी कि भविष्य का सामना कैसे संभव होगा, लेकिन रास्ता दूसरा कोई नहीं है। साहित्य सृजन का काम पूरे समय की मांग करता है, लेकिन अब दूर-दूर तक ऐसा संभव नहीं दिखता।
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