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अमेरिका ने नेपाल को करोड़ों की मदद दी, फिर चीन का अमेरिका पर आरोप क्यों

Admin Delhi 1
21 Feb 2022 6:29 PM GMT
अमेरिका ने नेपाल को करोड़ों की मदद दी, फिर चीन का अमेरिका पर आरोप क्यों
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आम जनता संसद के बाहर रैली निकाल रही है, जबकि संसद के अंदर सत्ताधारी गठबंधन के सहयोगी मुंह फुलाए हुए हैं. उनका रोष अमेरिका से मिले एक ग्रांट पर है. ग्रांट लगभग चार हज़ार करोड़ रुपये का है. ये पैसे 2017 में हुए एक समझौते के तहत नेपाल को मिलने वाले थे. इन पैसों से नेपाल से लेकर भारत के गोरखपुर तक बिजली की लाइन बिछनी था. इसके अलावा, मदद का एक हिस्सा सड़कों के विकास पर भी खर्च होना था. समझौता 2017 में हो गया. मगर पांच साल बाद भी उसे नेपाल की संसद से मंज़ूरी नहीं मिली है. 28 फ़रवरी 2022 को इसकी डेडलाइन है. संसद के भीतर एक बार फिर प्रस्ताव पेश किया गया है. अमेरिका का कहना है कि अगर प्रस्ताव पास नहीं हुआ तो ठीक नहीं होगा. वहीं दूसरी तरफ़ चीन का कहना है कि अमेरिका नेपाल के आंतरिक मामले में दखलअंदाज़ी कर रहा है. मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (MCC) की पूरी कहानी क्या है? नेपाल में इसका विरोध क्यों हो रहा है? और, आगे क्या होने वाला है? साल 1945. तारीख़ 07 मई. जर्मनी ने फ़्रांस के रेम्स में मित्र राष्ट्रों के सामने सरेंडर कर दिया. इसके साथ ही यूरोप में सेकेंड वर्ल्ड वॉर का अंत हो गया. हालांकि, पैसिफ़िक में लड़ाई जापान की हार तक जारी रही. अगस्त 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद जापान ने भी घुटने टेक दिए.


विचारधारा के स्तर पर दूसरे विश्वयुद्ध के दो बड़े विजेता बनकर उभरे. पहला, अमेरिका और दूसरा था, सोवियत संघ. अमेरिका पूंजीवादी और डेमोक्रेटिक व्यवस्था में विश्वास रखता था. जबकि, सोवियत संघ साम्यवाद और बंद मार्केट वाले सिस्टम का सूत्रधार था. दूसरे विश्वयुद्ध ने यूरोप को तबाही के कगार पर ला दिया था. करोड़ों लोगों की मौत, मानवीय और सामाजिक संरचना का पतन और आशंकाओं के साये में पल रहा भविष्य. कभी पूरी दुनिया में उपनिवेश कायम करने वाला यूरोप मदद की बाट जोह रहा था. 1940 के दशक में ब्रिटेन ग्रीस के सिविल वॉर में सरकार की मदद कर रहा था. वहां कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जंग चल रही थी. 1947 की शुरुआत में ब्रिटेन ने आगे मदद मुहैया कराने से मना कर दिया. साफ़ था कि ग्रीस में कम्युनिस्ट हावी हो जाते. यानी, यूरोप का एक और देश सोवियत ब्लॉक में चला जाता. ब्रिटेन के ऐलान के फौरन बाद अमेरिका हरक़त में आया. मार्च 1947 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हेनरी ट्रूमैन ने संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित किया. उन्होंने ग्रीस को मदद देने की इजाज़त मांगी. इजाज़त मिल गई. ट्रूमैन ने ऐलान किया कि जहां कहीं भी निरंकुश ताक़तों का खतरा होगा, वहां अमेरिका मदद का हाथ बढ़ाएगा. उनका इशारा कम्युनिस्टों की तरफ था. इसे 'ट्रूमैन सिद्धांत' के नाम से जाना गया. अमेरिका न्यूट्रल रहने की नीति से बाहर आ चुका था. अब ज़रूरत थी इसे रफ़्तार देने की. इस दौर में एक प्लान बनाया गया. इसके सूत्रधार थे, उस समय अमेरिका के विदेश मंत्री रहे जॉर्ज सी. मार्शल. वो वर्ल्ड वॉर के समय यूएस आर्मी के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ रह चुके थे. उन्हीं के नाम पर इस 'यूरोपियन रिकवरी प्रोग्राम' को मार्शल प्लान के नाम से भी जाना जाता है.

जॉर्ज मार्शल ने ज़रूरतमंद देशों की मदद के लिए पूरा प्रस्ताव तैयार किया. इसके तहत, खाने-पीने के सामानों से लेकर आधारभूत संरचनाओं के विकास पर ज़ोर दिया गया. इन सब कामों में भारी खर्च आने वाला था. अमेरिका इतना खर्च क्यों करता? उसे इन सबसे क्या फायदा होता? मुख्य तौर पर दो लाभ होते. पहला, जब तबाह देश वापस अपने पैरों पर खड़े हो जाते, वो अमेरिका के लिए नया बाज़ार मुहैया कराते. और दूसरा, उन देशों में सोवियत संघ के हावी होने का खतरा खत्म हो जाता. 03 अप्रैल 1948 को राष्ट्रपति ट्रूमैन ने मार्शल प्लान पर सहमति दे दी. मदद का सिलसिला शुरू हो गया. ये प्लान चार सालों के लिए था. इस दरम्यान ब्रिटेन, फ़्रांस, बेल्जियम, नॉर्वे, समेत 16 देशों को लगभग 17 बिलियन डॉलर्स की रकम दी गई. मदद के रूप में. ये कर्ज़ के तौर पर नहीं था. यानी, इसे लौटाना नहीं था. अमेरिका ने मार्शल प्लान के तहत इटली और वेस्ट जर्मनी को भी पैसे दिए. ये दोनों देश सेकेंड वर्ल्ड वॉर में अमेरिका के दुश्मन थे. अमेरिका इतनी मदद कैसे कर पा रहा था? वजह साफ़ थी. पर्ल हार्बर के अलावा अमेरिका की ज़मीन पर कोई बड़ा हमला नहीं हुआ था. उनके शहर सुरक्षित थे. उनके उद्योग-धंधों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था. 1947 में पूरी दुनिया का आधा औद्योगिक उत्पादन अमेरिका में हो रहा था. इसलिए, अमेरिका मार्शल प्लान के जरिए पैसे झोंकने के लिए तैयार था. प्लान से क्या बदला? इस सवाल पर काफी बहसें चलती हैं. एक बात तो साफ है कि इससे यूरोप के कई देश भूखों मरने से बच गए. उनकी इकॉनमी वापस अपने ढर्रे पर आ गई. वे नई शुरुआत करने के लिए तैयार हो सके.

North Atlantic Treaty Organization (नेटो) को मार्शल प्लान की ही देन माना जाता है. इस प्लान ने अमेरिका और यूरोप के देशों के बीच सहयोग की भावना को उभारा था. चाहे वो आर्थिक क्षेत्र में हो या सुरक्षा के क्षेत्र में.

क्या मार्शल प्लान दूध का धुला हुआ था?

कतई नहीं. इस प्लान की कई मुद्दों पर आलोचना भी होती है. एक तर्क ये दिया जाता है कि मदद के नाम पर अमेरिका ने इन देशों में अपनी मनमानी चलाई. दूसरा तर्क पैसों के इस्तेमाल को लेकर दिया जाता है. रिपोर्ट्स के अनुसार, मार्शल प्लान की कुल राशि का पांच प्रतिशत हिस्सा सीआईए के सीक्रेट ऑपरेशंस में लगाया गया. CIA ने कई देशों में फ़र्ज़ी कंपनियां तैयार कीं. इसके ज़रिए वे अपना मिशन चला रहे थे. उन्होंने अमेरिका के फायदे के लिए सरकारें भी गिराईं. आलोचनाओं से इतर, मार्शल प्लान ने अमेरिका के रुतबे को विस्तार दिया. जब सोवियत संघ ढहा, अमेरिका इकलौती महाशक्ति रह गया. इसकी नींव मार्शल प्लान ने कोल्ड वॉर की शुरुआत में रख दी थी. कालांतर में आर्थिक मदद का रास्ता अमेरिका की विदेश-नीति की पहचान बना. इसके ज़रिए उसने दुनियाभर में अपना प्रभुत्व कायम किया. अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से लेकर मदद देने वाली एजेंसियों में अपना सिक्का जमाया. इसके माध्यम से उसने कई देशों में अपने हित में नीतियां बनवाईं और सरकारों को झुकने पर मजबूर भी किया. फिर आया साल 2001 का. अमेरिका एक बार फिर संकट में घिरा हुआ था. 11 सिंतबर को अमेरिका के ऊपर आतंकी हमला हुआ. इस घटना में लगभग तीन हज़ार लोग मारे गए. अमेरिका ने हमले के पीछे के कारणों की समीक्षा की. इसमें एक आकलन ये भी निकला कि दुनियाभर आतंकवाद के विस्तार के पीछे एक कारण ग़रीबी भी है. उस समय जॉर्ज डब्ल्यु बुश अमेरिका के राष्ट्रपति थे. उन्होंने एक नई एजेंसी बनाने का सुझाव दिया. ये एजेंसी अमेरिकी मदद को स्मार्ट तरीके से अल्प-विकसित और निम्न-आय वाले देशों तक पहुंचाने वाली थी. 2004 में अमेरिकी संसद ने प्रस्ताव को पास कर दिया. इस तरह मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (MCC) के निर्माण का रास्ता साफ़ हुआ.


बाकी एजेंसियों की तुलना में MCC के काम करने का तरीका अलग है. वो मदद देने से पहले देशों की ग्रेडिंग करती है. उसके अपने पैरामीटर्स हैं. इनमें भ्रष्टाचार, आर्थिक स्वतंत्रता, कानून का शासन, लोगों में निवेश समेत लगभग 20 मानक शामिल हैं. नेपाल इस मामले में पिछड़ा हुआ था. वहां 2006 तक सिविल वॉर चल रहा था. इसके अलावा, देश में भ्रष्टाचार और अस्थिरता का भी राज़ था. बाद में नेपाल ने मेहनत की. उसने तय मानकों के हिसाब से ख़ुद को सुधारा. 2011 में सभी पार्टियों ने मिलकर नेपाल को प्रस्ताव भेजने के लिए तैयार किया. आख़िरकार, 2015 में मिलेनियम चैलेंज का नेपाल ऑफ़िस खुला. और, 14 सितंबर 2017 को वॉशिंगटन में प्रस्ताव पर दोनों पक्षों ने दस्तख़त कर दिए. मिलेनिमय चैलेंज के तहत नेपाल ने लगभग पांच हज़ार करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट तैयार किया. इसमें से चार हज़ार रुपये MCC की तरफ़ से मिलने वाले थे. बाकी का पैसा नेपाल सरकार अपने खज़ाने से देती. नेपाल ने इन पैसों को दो प्रोजेक्ट पर खर्च करने का मन बनाया था. पहला प्रोजेक्ट 315 किलोमीटर लंबी बिजली ट्रांसमिशन लाइन से जुड़ा था. जबकि दूसरा प्रोजेक्ट सड़कों की मरम्मत से. तर्क ये दिया गया कि बिजली से नेपाल आत्मनिर्भर होगा और वो भारत को बिजली की सप्लाई करने के लिए तैयार हो जाएगा. जबकि अच्छी सड़क से सुदूर इलाकों में कम खर्चे में सामान पहुंचाने में मदद मिलेगी. इससे नेपाल की आर्थिक तरक्की होगी, रोजगार के अवसर पैदा होंगे और वो विकास के पायदान पर आगे बढ़ेगा. MCC ने मदद पर मुहर तो लगा दी, लेकिन अभी तक पैसा क्यों नहीं पहुंचा और प्रोजेक्ट शुरू क्यों नहीं हुआ है?

इसकी वजह MCC की एक ज़रूरी शर्त है. क्या? पैसे पास होने के लिए संबंधित देश की संसद का अप्रूवल ज़रूरी होगा. अमेरिका का तर्क है कि इससे प्रोजेक्ट में पारदर्शिता बनी रहेगी और आम नागरिक इसके प्रति सजग रहेंगे. MCC के समझौते में एक क्लाउज ये भी है कि अप्रूवल के बाद ये नेपाल के स्थानीय कानूनों से ऊपर होगा. MCC की एंट्री के आलोचकों का कहना है कि ये नेपाल की संप्रभुता के लिए ख़तरा है. बीच-बीच में कई अमेरिकी अधिकारियों ने ऐसे बयान भी दिए हैं कि MCC से अमेरिका की इंडो-पैसिफ़िक रणनीति को मज़बूती मिलेगी. इससे नेपाल की जनता में ये मेसेज गया कि अमेरिका उनके यहां अपने सैनिकों की तैनाती कर सकता है. हालांकि, इसको लेकर MCC का कहना है कि ये सब दुष्प्रचार है. उनका कहना है कि नेपाल निम्न-आय वाला देश है और वे उसकी साफ़ दिल से मदद करना चाहते हैं.

आज हम ये सब क्यों सुना रहे हैं?

दरअसल, MCC के प्रपोज़ल को संसद की मंज़ूरी के लिए पांच साल की डेडलाइन मिली हुई है. ये डेडलाइन 28 फ़रवरी 2022 को खत्म हो जाएगी. अगर उससे पहले संसद ने मंज़ूरी नहीं दी तो चार हज़ार करोड़ की मदद रुक जाएगी. यानी, MCC मदद वापस ले लेगा. इससे होगा ये कि नेपाल ने जिन दो प्रोजेक्ट के लिए ज़मीन का अधिग्रहण किया और पूरी रुपरेखा तैयार की, वे सब अधर में लटक जाएंगे. पिछले कुछ सालों से नेपाल में चीन का दखल भी बढ़ा है. नवंबर 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन के 50 से अधिक जासूसों ने नेपाल के आंतरिक मामलों पर पकड़ बना रखी है. और, वे बाकी देशों से नेपाल के संबंधों को प्रभावित कर रहे हैं.

जनता से रिश्ता की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका मानता है कि चीन MCC के समझौते के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार कर रहा है. अमेरिका का कहना है कि अगर तय समय में समझौता अप्रूव नहीं हुआ तो वे नेपाल के साथ रिश्तों की समीक्षा करेंगे. शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली सरकार अप्रूवल देने के पक्ष में है. लेकिन उनकी सहयोगी कम्युनिस्ट और अन्य पार्टियां इसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए है. ये पार्टियां देउबा सरकार को गिराने की धमकी भी दे रहीं है. हालिया विरोध में कम्युनिस्ट पार्टी के स्टूडेंट विंग ने मोर्चा संभाला हुआ है. 20 फ़रवरी को प्रोटेस्ट इतना हिंसक हो गया कि पुलिस को आंसू गैस के गोले और रबर की गोलियां दागनी पड़ीं. फिलहाल, नेपाल विरोध और विकास के बीच में झूल रहा है. संसद में क्या निकलकर आता है और इसका नेपाल के भविष्य पर क्या असर पड़ता है, ये देखने वाली बात होगी.

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